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मनोधैर्य

रास्ते के छोर पर एक खूबसूरत छोटा-सा बंगला, चारों ओर तरह-तरह के फल-फूलों के पेड़-पौधे। नीना ने इस बंगले को बहुत सुंदर तरीके से सजाया था, जो हरियाली और प्रकृति से भरपूर था।
नीना और शेखर का छोटा-सा परिवार था। शेखर, उनका बेटा, बहू और दो पोते-पोतियां। सब सुख-शांति से रह रहे थे। लेकिन अचानक, जैसे किसी की नज़र लग गई, नीना भगवान को प्यारी हो गई।
नीना के जाने के बाद शेखर को बिल्कुल भी चैन नहीं था। हाल ही में उसने अपने व्यापार की सारी जिम्मेदारी बेटे को सौंप दी थी और अब वह मुक्त हो गया था।
नीना के रहते वह हर शाम घूमने जाता था, मंदिर जाता था, लेकिन अब उसे कुछ भी करने का मन नहीं करता था। धीरे-धीरे उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। डॉक्टरों के पास चक्कर बढ़ने लगे।
जांच से पता चला कि उसे एक संक्रामक बीमारी हो गई है।
बेटे ने बंगले की नीचे वाली कमरे को शेखर के लिए तैयार कर दिया और खुद ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो गया।

अब बहू खुश थी, उसका सपना जो इतने दिनों से अधूरा था, वह पूरा हो गया। शेखर की देखभाल के लिए गांव से गंगाराम को बुलाया गया। गंगाराम उसकी दवा, खानपान और जरूरतों का ध्यान रखने लगा।
धीरे-धीरे पोते-पोतियों का आना-जाना भी कम हो गया। बीमारी के कारण किसी और को दिक्कत न हो, इस डर से शेखर पिछवाड़े के बगीचे में ही टहलने लगा।
आज शेखर का मन बहुत उचाट हो रहा था, इसलिए वह आगे के आंगन में चला गया। वहीं उसे अपनी बहू और बेटे की बातें सुनाई दीं।
बहू अपने पति से कह रही थी, “पापा आजकल बच्चों से बातें करते रहते हैं, कहीं कल को हमारे बच्चों को भी यह बीमारी हो जाए तो? क्यों न हम उन्हें एक अच्छे वृद्धाश्रम में भेज दें।”
बेटा बोला, “ठीक है, मैं कल बात करता हूं पापा से।”

अगली सुबह शेखर जल्दी उठकर तैयार हो गया और बेटे का इंतजार करने लगा। जैसे उसने सोचा था, बेटा आ ही गया।
शेखर ने उससे पूछा, “अरे, आज सुबह-सुबह कैसे आना हुआ? कुछ खास बात है क्या? लेकिन अच्छा हुआ, मुझे भी तुमसे बात करनी थी।”
बेटा बोला, “पापा, मुझे भी आपसे कुछ बात करनी थी, लेकिन पहले आप बताइए, आपको क्या कहना है, फिर मैं कहूंगा।”
शेखर ने दो मिनट तक गहरी सांस ली और शांत स्वर में बोलने लगा, “हाल ही में मेरी तबीयत और बिगड़ गई है। इससे दूसरों को तकलीफ हो सकती है। इसलिए मैंने यह तय किया है कि अब मैं वृद्धाश्रम में रहूंगा। वहां मेरे जैसे ही और लोग होंगे, जो बीमार हैं या असहाय हैं। उनके साथ रहूंगा तो अकेलापन महसूस नहीं होगा।”
यह सुनकर शेखर रुका और बेटे की प्रतिक्रिया देखने लगा। बेटे के मन और दिमाग पर जो बड़ा बोझ था, वह जैसे उतर गया। उसके चेहरे पर सुकून झलक रहा था। अब उसे शेखर से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। फिर भी बनावटी चिंता दिखाते हुए उसने कहा, “यह क्या कह रहे हैं पापा, ऐसा क्यों सोच रहे हैं?”

शेखर ने जवाब दिया, “बेटा, यह निर्णय लेना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन मैंने सोच-समझकर यह तय किया है। अब तुम व्यापार को अच्छे से संभाल सकते हो। मेरी मदद की तुम्हें अब जरूरत नहीं।”
बेटा बोला, “हां पापा, अब आप निश्चिंत रहिए। आपने मुझे सब कुछ अच्छी तरह सिखा दिया है।”
शेखर ने आगे कहा, “मैंने व्यापार और ऑफिस पहले ही तुम्हारे नाम कर दिया है। बस यह बंगला मेरे नाम पर है। अब मैं इसी बंगले में वृद्धाश्रम खोलने जा रहा हूं, ताकि मेरे जैसे ही असहाय और वृद्ध लोग मेरे साथ रह सकें। मुझे भी सहारा मिलेगा और उन्हें भी।”

इतना कहने के बाद शेखर को थोड़ी थकान महसूस हुई। वह फिर बोला, “तुम्हें इतने बड़े बंगले में रहने की आदत हो गई है, इसलिए जल्दी ही अपने परिवार के लिए एक अच्छी जगह ढूंढ लो। और हां, तुम्हें भी मुझसे कुछ कहना था ना?”
कमरे में सन्नाटा छा गया…

जीवन में कभी-कभी ऐसा दृढ़ मनोधैर्य दिखाना ही पड़ता है।

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