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ऑपरेशन व्हाइट वॉश: एक अदृश्य युद्ध की कहानी

शुभ प्रभात, जय हिंद।
आज रविवार है, और यह दिन हमारे भारतीय सैनिकों के शौर्य को नमन करने का दिन है।
पहालगाम में आतंकवादियों द्वारा किए गए कायराना हमले में दुर्भाग्यवश हमारे जवानों की शहादत से पूरे देशवासियों में स्वाभाविक रूप से आक्रोश है।
सरकार की ओर से निश्चित ही उचित कार्रवाई की जाएगी, लेकिन ऐसे समय में देश के नागरिकों और मीडिया को सतर्क रहना चाहिए ताकि हम अपनी रणनीति उजागर करके दुश्मन को तैयारी का मौका न दें।

हमें मुंबई हमले की घटना याद है – जब मीडिया के जरिए पूरे देश में लाइव प्रसारण हो रहा था, उसी का फायदा उठाकर पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के सरगना यहां के आतंकियों को दिशा-निर्देश दे रहे थे, जिससे हमारे सैनिकों और कमांडोज को कार्रवाई में दिक्कत आई और जानमाल की हानि भी हुई।
आज भी वही स्थिति बन रही है – ‘भारत क्या करेगा, कैसे करेगा’ इस पर दिन-रात बहस हो रही है, जो नहीं होनी चाहिए।

साथ ही सेना का मनोबल गिराने वाली खबरें और बहसें नहीं होनी चाहिए।
इंटेलिजेंस फेलियर पर सवाल उठाने वालों को कश्मीर की भौगोलिक स्थिति, स्थानीय समर्थन, सीमा पर फैले घने जंगल, पहाड़ी इलाके और छिपने की अनगिनत जगहों की जानकारी नहीं है।
कश्मीर की जनता की आजीविका पर्यटकों से चलती है, तो क्या उन पर्यटकों की सुरक्षा वहां की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार की जिम्मेदारी नहीं है?
फिर भी किसी भी चर्चा में वहां की सरकार से कोई सवाल नहीं किया गया।

खैर, सभी सुरक्षा एजेंसियां अपने-अपने कार्यों में लगी हैं और समय आने पर उचित जवाब दिया जाएगा – हमें ऐसा विश्वास रखते हुए एक सतर्क नागरिक की तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।

इसी संदर्भ में आज हम एक वीरगाथा साझा कर रहे हैं, जो दर्शाती है कि ऐसे संकट के समय सरकार और संबंधित एजेंसियां कितनी गुप्तता और सूझबूझ से अपने कार्य करती हैं।

सियाचिन, जहां बर्फ के महासागर में मौत छुपी रहती है – वहां एक गुप्त मिशन चलाया गया जिसे कहा गया ऑपरेशन व्हाइट वॉश”, जिसकी जानकारी गिने-चुने लोगों को ही थी।

यह कहानी है DRDO, RAW, ISRO और BARC के कुछ जांबाज वैज्ञानिकों और अफसरों की, जिन्होंने देश के लिए नामुमकिन को भी मुमकिन कर दिखाया।

दुश्मन ने पहाड़ी की ऊंची चोटी पर बंकर बना लिए थे जिन्हें नेस्तनाबूद करना जरूरी था। लेकिन ऊंचाई और हजारों किलोमीटर फैले बर्फीले पठार के कारण वहां पहुंचना लगभग नामुमकिन था, क्योंकि एक छोटी सी हलचल भी दूर से नज़र आ सकती थी।

तब DRDO ने काली’ नाम के लेजर हथियार को मुख्य अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने का फैसला लिया।
ISRO ने सैटेलाइट की मदद से इलाके की निगरानी की और हिमस्खलन की संभावना वाले सटीक बिंदु चिह्नित किए।
BARC के वैज्ञानिकों ने मौसम और समय का अध्ययन कर योजना बनाई।
RAW ने तकनीकी जानकारी दी।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था कि 10 टन का यह आधुनिक हथियार सियाचिन की कठिन जमीन में कैसे ले जाया जाए? और उसके कंपन से अगर जमीन खिसक गई तो क्या किया जाए?

फिर तय हुआ कि इसका हवाई प्रयोग किया जाएगा। वायुसेना को इसमें शामिल किया गया। दो विशाल मालवाहक विमानों में एक विशेष प्लेटफॉर्म बनाकर ‘काली’ की स्थापना की गई। ओडिशा बेस कैंप पर इसका परीक्षण किया गया।

इसी दौरान गरुड़ कमांडोज़ को ग्राउंड रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी गई। ऑपरेशन से चार दिन पहले से ही उनका काम शुरू हो गया।
एक जवान बोला – “इतना बोरिंग टास्क पहले कभी नहीं देखा, यहां तो कुछ करना ही नहीं है।”
उसका कमांडर शांत स्वर में बोला –
“चुप रह। आदेशों का पालन कर। मरने की इतनी जल्दी है तो ऑपरेशन के बाद तुझे ऐसे मोर्चे पर भेजूंगा जहां सांस लेने का भी समय नहीं मिलेगा।”

मिशन का समय तय हुआ – सुबह 2 से 4 बजे के बीच, क्योंकि BARC के वैज्ञानिकों के अनुसार लेजर के लिए साफ आकाश ज़रूरी था।
तारीख तय हुई – 7 अप्रैल 2012, समय – सुबह 4:40 बजे।

घुप अंधेरा। बर्फीली ठंड। सियाचिन का जमी हुई सांसें रोक देने वाला तापमान।

दो मालवाहक विमान ‘काली’ को लेकर उड़ चले। उनके साथ MIG फाइटर जेट्स और हवा में ईंधन भरने वाले विमान भी तैयार थे।
गरुड़ कमांडोज़ की रिपोर्ट आई – “सभी जगह शांत, कोई गतिविधि नहीं।”

सुबह 4 बजे दोनों विमान लक्ष्य के लगभग 10-12 किलोमीटर ऊपर पहुंचे। ISRO का हरी झंडी मिलते ही ‘काली’ लेजर ने टारगेट पर हमला शुरू कर दिया।
अगले 5 मिनट में दोनों विमान सुरक्षित बेस कैंप लौट आए।

शुरुआत में कुछ नहीं हुआ।

फिर कुछ ही मिनटों में – बर्फ के अंदर हलचल शुरू हुई और 4:40 पर, यानी हमले के लगभग 40 मिनट बाद – पूरा पहाड़ भरभराकर गिरने लगा – सीधा शत्रु के बंकरों पर!

गरुड़ कमांडोज़ ने देखा – लाखों टन बर्फ भयंकर वेग से नीचे गिर रही थी। दुश्मन के बंकर, टेंट, तंबू – सब कुछ बर्फ में समा गया – 80 से 100 फीट गहराई तक।

शुरुआत में सिर्फ धरती हिली, फिर कुछ भी समझने से पहले ही सबकुछ खत्म हो गया।
पूरी जीत हमारी थी।
एक भी गोली चली, एक भी सैनिक हताहत। सिर्फ विज्ञान, साहस और सूझबूझ।

ISRO ने तस्वीरें भेजीं, गरुड़ कमांडोज़ की रिपोर्ट आई, ऑपरेशन इंचार्ज ने बस एक वाक्य कहा –
मिशन अकंप्लिश्ड।”
बेस पर खुशी की लहर दौड़ गई, पर कोई शोर नहीं – क्योंकि यह ऑपरेशन गुप्त था और गुप्त ही रहना था।

सूरज के उगने से पहले ही मिशन पूरा हो चुका था।
पाकिस्तान को इसका अंदाज़ा तक नहीं हुआ – वर्षों तक वे इसे प्राकृतिक आपदा समझते रहे।

आज यह कहानी इसलिए बताई गई क्योंकि जब भी कश्मीर जैसी कोई घटना होती है तो कुछ लोग पूछते हैं –
इंटेलिजेंस एजेंसियां क्या कर रही थीं?”
यह सवाल अज्ञानता और गैर-जिम्मेदारी का परिचायक है।

गुप्तचर एजेंसियों का कार्य गुप्त होता है।
हमें केवल उसका परिणाम दिखता है – लेकिन उसके पीछे की योजना, त्याग और संघर्ष नहीं दिखता।
और न ही इसे जानने का प्रयास करना चाहिए – क्योंकि इससे देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।

हमें सिर्फ एक बात करनी है –
अपने जवानों और इंटेलिजेंस एजेंसियों पर पूरा विश्वास रखना है।
और दिल से कहना है –
जय हिंद! जय जवान!

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