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वस्तुप्रकार | मयमतम् अध्याय – 2 |

आवास एवं भूमि के प्रकार – अमर (देव) एवं मरणधर्मा (मनुष्य) जहाँ जहाँ निवास करते हैं, विद्वज्जन उसे वस्तु (वास्तु) कहते है । उन निवासस्थलों के भेदों का मैं (मय ऋषि) वर्णन करता हूँ ॥१॥

 

वास्तु चार प्रकार के होते हैं – भूमि, प्रासाद (देवालय), यान एवं शयन । इनमें प्रधान वास्तु भूमि ही हैं; क्योंकि शेष इसी से उत्पन्न होते हैं ॥२॥

प्रासाद आदि वास्तु प्रधान वस्तु (वास्तु) भूमि से उत्पन्न होने एवं उस पर आश्रित होने के कारण वास्तु ही है । इसी कारण प्राचीन आचार्यो ने इन्हें वास्तु की संज्ञा प्रदान की है ॥३॥

 

(चारो वास्तुओं में प्रथमतः प्रधान वास्तु पर विचार करना चाहिये ।) भवन-प्रासादादि के निर्माण के लिये भूमि की परीक्षा वर्ण (रंग), गन्ध, रस (स्वाद), आकृति, दिशा, शब्द एवं स्पर्श के द्वारा करनी चाहिये । परीक्षा के पश्चात्‌ ही निर्माणकार्य की आवश्यकता के अनुसार भूमि-ग्रहण करना चाहिये ॥४॥

 

भूमिभेद

 

प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मणादि) के अनुसार भूमि का वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से भूमि क्रमशः दो प्रकार की होती है – गौण एवं अङ्गी (प्रधान) ॥५॥

 

भूमि अङ्गी होती है तथा ग्रामादि गौण के अन्तर्गत आते है । सभागार, शाला, प्रपा (प्याऊ), रङ्गमण्डप एवं मन्दिर (प्रासाद होते है) ॥ ६॥

 

इन्हें प्रासाद कहते है । शिबिका, गिल्लिका, रथ, स्यन्दन एवं आनीक को यान कहा जाता है ॥७॥

 

शयन के अन्तर्गत मञ्च (सिंहासन), मञ्चिलिका (दिवान), काष्ठ (काष्ठ के आसन), पञ्जर (पिंजरा), फलकासन (बेञ्च), पर्यङ्क (पलंग), बालपर्यङ्क आदि ग्रहण किये जाते हैं ॥८॥

 

भूप्राधान्य हेतु

 

उपर्युक्त चारो में प्रथम स्थान भूमि का कहा जाता हैं; क्योंकि भूतों(पञ्च महाभूतों) में प्रथम स्थान भूमि का है, संसार की स्थिति इसी पर है एवं यही सबका आधार है ॥९॥

 

वर्णानुरूप भूमि

 

ब्राह्मणो के लिये प्रशस्त भूमि के लक्षण इस प्रकार है – भूमि चौकोर (लम्बाई-चौड़ाई का प्रमाण सम) हो, मिट्टी का रंग श्वेत हो, उदुम्बर के वृक्ष से (गूलर) युक्त हो एवं भूमि का ढलान उत्तर दिशा की ओर रहे ॥१०॥

 

कषाय-मधुर स्वाद वाली भूमि (ब्राह्मणो के लिये) सुखद कही गयी है । क्षत्रियों के लिये श्रेष्ठ भूमि के लक्षण इस प्रकार है – भूमि लम्बाई में चौडाई से आठ भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग लाल हो एवं स्वाद में तिक्त हो ॥११॥

 

पूर्व की ओर ढलान वाली, विस्तृत, पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि राजाओं (क्षत्रियों) के लिये शुभ एवं सर्वदा सभी प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाली कही गई है ॥१२॥

 

लम्बाई चौड़ाई से छः भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग पीला हो, उसका स्वाद खट्टा ओ, प्लक्ष (पाकड़) के वृक्ष से युक्त हो एवं पूर्व दिशा की ओर ढलान हो-ऐसी भूमि वैश्य वर्ण के लिये प्रशस्त कही गई है ॥१३॥

 

लम्बाई और चौड़ाई से चार भाग अधिक हो, पूर्व दिशा की ओर ढलान हो, मिट्टी का रंग काला हो तथा स्वाद कड़वा हो, भूमि पर बरगद के वृक्ष हो । इस प्रकार की भूमि शूद्र वर्ण वालों को धन-धान्य एवं समृद्धि प्रदान करती है ॥१४॥

 

इस प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के अनुरूप वास्तु (भूमि) के प्रकार का वर्णन किया गया है । देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये सभी प्रकार की भूमियाँ प्रशस्त होती है (यह उपर्युक्त मत का विकल्प है); किन्तु शेष दो (वैश्य एवं शूद्र) को अपने अनुरूप भूमि का ही चयन करना चाहिये ॥१५॥

 

इति मयमते वास्तुशास्त्रे द्वितीय अध्याय:

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