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कहानी नहीं, असल घटना है, ज़िला सुल्तानपुर की।

एक पंडित जी और एक बाबू साहब (ठाकुर साहब) जिगरी दोस्त थे- दो जिस्म एक जान। बचपन से चालीसवें तक। फिर जाने क्या हुआ कि दुश्मनी हो गई।

 

अब इतिहास गवाह है कि जिगरी दोस्त दुश्मन हों जाये तो दुश्मनी भी पनाह माँगने लगती है। सो वही हुआ। हर दूसरे दिन गोली चलना- लठैत छोड़िये ही, दोनों के कई बेटे तक दुश्मनी की आग का ईंधन बन गये, मगर दुश्मनी चलती रही।

 

ख़ैर, ये होते होते बाबू साहब की बेटी की शादी का वक़्त आ गया और इतिहास इसका भी गवाह है कि दुश्मनी जितनी भी बड़ी हो- बहन बेटियों की शादी ब्याह की बात आये तो बंदूकें ख़ामोश हो जाती हैं। एकदम ख़ामोश। और किसी ने यह परंपरा तोड़ी तो वो दुनियां और समाज दोनों की नज़र से गिर जाता है।

सो उस गाँव में भी वक्ती ही सही, सुकून उतर आया था।

 

और फिर उतरी बारात। ठाकुरों की थी तो गोलियाँ दागती, आतिशबाज़ी करती, तवायफ़ के नाच के साथ। परंपरा थी तब की।

 

पंडित जी उस दिन अजब ख़ामोश थे।

 

और लीजिये- अचानक उनकी नाउन चहकती हुई घर में- (गाँव में सारे संपन्न परिवारों के अपने नाऊ ठाकुर होते थे और नाउन भी- अक्सर एक ही परिवार के हिस्से।)

 

पंडिताइन को चहकते हुए बताईं कि ए भौजी- बरतिया लौटत बा। कुल हेकड़ई ख़त्म बाबू साहब के।

 

पंडिताइन स्तब्ध और पंडित जी को तो काटो तो ख़ून नहीं। बहुत मरी आवाज़ में पूछा कि ‘भवा का’?

 

नाउन ने बताया कि समधी अचानक कार माँग लिहिन- माने दाम। बाबू साहब के लगे ओतना पैसा रहा नाय तो बरात लौटे वाली है।

 

पंडित जी उठे- दहाड़ पड़े….निकालो जीप।

 

मतलब साफ- बाकी बचे बेटे, लठैत सब तैयार।

 

दस मिनट में पूरा अमला बाबू साहब के दरवाज़े पर-

कम से कम दर्जन भर दुनाली और पचासों लाठियों के साथ।

 

बाबू साहब को ख़बर लगी तो वो भागते हुए दुआर पे-

 

“एतना गिरि गया पंडित, आजे के दिन मिला रहा”

 

पंडित जी ने बस इतना कहा कि दुश्मनी चलत रही, बहुत हिसाब बाकी है बकिल आज बिटिया के बियाह हा। गलतियो से बीच मा जिन अइहा।

 

बाबू साहब चुपचाप हट गये।

 

पंडित जी पहुँचे समधी के पास- पाँव छुए- बड़ी बात थी, पंडित लोग पाँव छूते नहीं, बोले कार दी- पीछे खड़े कारिंदे ने सूटकेस थमा दिया।

 

द्वारचार पूरा हुआ। शादी हुई।

 

अगले दिन शिष्टाचार/बड़हार।

 

(पुराने लोग जानते होंगे उस वक्त की परंपरा)

 

अगली सुबह विदाई के पहले अंतिम भोज में बारात खाने बैठी तो पंडित जी ने दूल्हा छोड़ सबकी थाली में 101-101 रुपये डलवा दिये- दक्षिणा के। ख़याल रहे, परंपरानुसार थाली के नीचे नहीं, थाली में।

 

अब पूरी बारात सदमे में, क्योंकि थाली में पड़ा कुछ भी जो बच जाये वह जूठा हो गया और जूठा जेब में कैसे रखें।

 

समधी ने पंडित जी की तरफ़ देखा तो पंडित जी बड़ी शांति से बोले।

 

बिटिया है हमारी- देवी। पूजते हैं हम लोग। आप लोग बारात वापस ले जाने की बात करके अपमान कर दिये देवी का। इतना दंड तो बनता है। और समधी जी- पलकों पर रही है यहाँ… वहाँ ज़रा सा कष्ट हो गया तो दक्ष प्रजापति और बिटिया सती की कहानी सुने ही होंगे। आप समधी बिटिया की वजह से हैं। और हाँ दूल्हे को दामाद होने के नाते नहीं छोड़ दिये.. इसलिये किये क्योंकि अपने समाज में उसका हक़ ही कहाँ होता है कोई!

 

ख़ैर बारात बिटिया, मने अपनी बहू लेकर गई..!!

 

पंडित जी वापस अपने घर। बाबू साहब हाथ जोड़े तो बोले बस- दम निकरि गय ठाकुर। ऊ बिटिया है, गोद मा खेलाये हन, तू दुश्मन। दुश्मनी चली।

 

ख़ैर- बावजूद इस बयान के फिर दोनों ख़ानदानों में कभी गोली नहीं चली। पंडित जी और बाबू साहब न सही- दोनों की पत्नियाँ गले मिल कर ख़ूब रोईं, बच्चों का फिर आना जाना शुरु हुआ।

 

क्या है कि असल हिंदुस्तानी और हिंदू बेटियों को लेकर बहुत भावुक होते हैं, उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं। फिर चाहे बेटी दुश्मन की ही क्यों न हो।

 

जो नहीं करते वे और चाहे दुनिया में कुछ भी हों पर न हिंदू हो सकते हैं न हिंदुस्तानी।

 

( युवाओं से एक विनती 🙏 हिंदुओं की जनसंख्या 8% घट गई और मुस्लिम 43 प्रतिशत बढ़ गए, यही हाल रहा तो हम 50 साल बाद अल्पसंख्यक होंगे! तब क्या होगा ?

कृपया कम से कम दो फूल अपनी बगिया में अवश्य खिलाना  तभी हिंदू और सनातन बचेगा और हमारी परंपराएं भी, मंदिर भी।

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