“जय हिंद!”
मुंबई से ठाणे जाने वाली लोकल ट्रेन चल पड़ी थी। ज्यादा भीड़ नहीं थी, और सौभाग्य से मुझे विंडो सीट भी मिल गई। मैं आराम से बैठकर खिड़की से बाहर के दृश्य निहार रहा था।
तभी एक लंबा, प्रभावशाली, चौड़े कंधों वाला युवक आकर मेरे बगल में बैठ गया। उसके चेहरे पर एक चमक थी, लेकिन वह शांत था… बेहद स्थिर।
बिना कुछ कहे भी उसकी उपस्थिति में कुछ अलग महसूस हो रहा था। एक सुसंस्कृत, मौन आकर्षण… जो शब्दों से नहीं, बल्कि उसकी उपस्थिति से महसूस हो रहा था। एक बात और मैंने गौर की — शुरुआत से ही वह बिल्कुल सीधा बैठा था, जैसे 90 डिग्री का कोण हो।
अचानक उसका फोन बजा।
“मैं डेढ़ घंटे में पहुँच रहा हूँ। साढ़े छह तक घर पर हो जाऊंगा। साढ़े आठ को वीवा के साथ डिनर है, और ठीक 10:30 पर मुझे निकलना है। सभी समय का सख्ती से पालन करें। आई एम सॉरी – इस बार अतिरिक्त समय नहीं है।”
शब्द स्पष्ट, आदेशात्मक। संवाद छोटा लेकिन ठोस।
“ओके ओके, ओवर एंड आउट।”
मैं चकित रह गया… कौन मोबाइल पर इस तरह बात करता है?
मैंने अनजाने में पूछ लिया,
“आप…?”
उसने शांत स्वर में उत्तर दिया,
“मैं निरंजन। 16 बटालियन से। कश्मीर में अर्जेंट पोस्टिंग है। कल सुबह रिपोर्टिंग है। सिर्फ दो-तीन घंटे मिले हैं, माँ और पत्नी से मिलने ठाणे जा रहा हूँ।”
उस क्षण मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं चुपचाप उठकर उसे विंडो सीट पर बैठने को कह बैठा।
फिर बातें शुरू हुईं। बस इतना बताया कि वह रेडियो टेक्नीशियन है। लेकिन किस्सों और अनुभवों का खजाना था वह।
जब ठाणे स्टेशन पास आया, तो उसने हँसते हुए हाथ आगे बढ़ाया और कहा, “फ्रेंड्स?”
यह मेरे लिए सम्मान था।
मैंने सहज पूछ लिया,
“इतनी जल्दी दोस्ती कर लेते हो आप लोग? कैसे?”
उसने कहा,
“क्योंकि हमारा जीवन इतना अनिश्चित होता है कि कब क्या हो जाए, कह नहीं सकते। हमारे पास दुश्मनी के लिए भी समय नहीं होता — तो फिर दोस्ती के लिए समय बर्बाद क्यों करें?”
उसके एक वाक्य में जीवन का सार समा गया। गंभीरता और सादगी का ऐसा संगम मैंने बहुत कम लोगों में देखा है।
मैं चाहता था कि उसे अपने घर ले जाऊं।
“कम से कम एक कॉफी पी लो, फिर चले जाना।”
वह मुस्कराया,
“तुमने मेरा शेड्यूल सुना ही है न? फिर भी?”
मैं चुप हो गया। वह बोला,
“चलो, नाराज मत होओ। नीचे उतरते हैं, कॉफी पीते हैं और फिर मैं निकल जाऊंगा।”
स्टेशन के पास ही एक बढ़िया-सा होटल मैंने चुना।
फिर कश्मीर, युद्ध, पोस्टिंग… इन सब पर सवालों की झड़ी लग गई।
वह हर सवाल का जवाब मुस्कुराते हुए, सादे शब्दों में देता रहा।
बिल मंगाया, तो एक और सुखद झटका मिला।
वेटर ने नम्रता से कहा,
“इनसे पैसे नहीं लेने साहब। ये हमारे लिए बहुत करते हैं। इनसे पैसे लेना पाप है। थोड़ा पुण्य हम भी कमा लें।”
उस क्षण निरंजन का चेहरा देखने लायक था।
उस एक वाक्य से उसके चेहरे पर गर्व और विनम्रता दोनों झलक रही थीं।
उसकी आँखों में चमक थी — अभिमान की, लेकिन उसमें कहीं न कहीं छुपा दर्द भी था।
वह उठा।
“लेट्स गो,” कहकर वेटर को हाथ मिलाया।
बाहर आए।
“निरंजन, तू निकल जा…” मैं भारी आवाज़ में कह सका।
सच तो ये था कि मुझे उसकी पीठ देखकर विदा नहीं करनी थी।
शायद उसे भी एहसास हो गया था।
“लेट्स मूव अहेड,” कहकर चल पड़ा।
मैं उसे देखता रहा… शून्य दृष्टि से… टूटे दिल के साथ।
अचानक कुछ याद आया —
“निरंजन! रुको!”
मैं पीछे दौड़ता गया।
“तेरे लिए कुछ कर नहीं सकता, लेकिन ये ले।
ये हमारे कुलदेवता का अंगारा है। हमारी आस्था है।
इसे अपने पास रख। लगता है कि हमारा कुछ तेरे साथ जाना चाहिए।”
उसने कुछ न कहकर वह छोटी सी पुड़िया माथे पर लगाई, और कहा —
“आज तुम मेरे लिए प्रार्थना कर रहे हो… ये प्रार्थना हमारी पूरी यूनिट के लिए करना।
परसों हमारी यूनिट का एक जवान शहीद हो गया।
प्रार्थना… शायद हमें और शक्ति दे सके।”
… और “जय हिंद!” कहकर, बिना पीछे मुड़े, तेज कदमों से आगे बढ़ गया।
धैर्य क्या होता है,
सेवा क्या होती है,
देश के लिए जीना क्या होता है…
यह मैंने उस दिन महसूस किया।
निरंजन सिर्फ कुछ घंटों के लिए माँ और पत्नी से मिलने आया था।
लेकिन अपने पीछे वो एक अमिट छाप छोड़ गया।
“ओवर एंड आउट… और जय हिंद!”