यह मेरी बहन की कहानी है।
सासू माँ उच्च शिक्षित हैं, अनेक पुरस्कारों की प्राप्तकर्ता हैं। कई गरीब बच्चों की उच्च शिक्षा का खर्च उठाती हैं। बहुत प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं, आदरणीय हैं।
नाम लिखकर अनावश्यक रूप से विषय भटकाना नहीं चाहती।
मुद्दा यह है कि कितनी ही स्त्रियां, चाहे उन्हें अच्छा लगे या न लगे, चाहे उनकी क्षमता हो या न हो, करती रहती हैं। रीति-रिवाज और परंपराएं यूँ ही चलती रहती हैं।
अगर कोई इससे बाहर निकलना चाहे तो उन्हें शक्ति मिले।
इसीलिए यह पोस्ट लिख रही हूँ।
अगर उचित लगे तो अनुमोदन करें।
गणपति, मोदक और मैं
हर घर, हर परिवार की कुछ परंपराएं और रीति-रिवाज होते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं। पहले की पीढ़ी के लोग विदा हो जाते हैं, कंधे बदल जाते हैं, नए लोग जुड़ते हैं, पर परंपरा और पद्धति जारी रहती है।
हमारे घर में पाँच दिन का गणपति उत्सव होता है। 47 साल हो चुके हैं।
इस समय घर में सासू माँ, पति, बेटा और मैं हैं।
सासू माँ मुंबई की एक बेहद मशहूर स्कूल की प्रिंसिपल रह चुकी हैं और वहीं से सेवानिवृत्त हुई हैं। आज भी लायंस क्लब, रोटरी क्लब से जुड़ी हुई हैं।
मेरे पति एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनी के CEO हैं।
मुंबई में आलीशान घर है।
सासू माँ और पति दोनों का ही जनसंपर्क बहुत बड़ा है।
घर में मदद के लिए स्टाफ है।
गणपति के इन पाँच दिनों में लगभग 200–300 मेहमान दर्शन के लिए आते-जाते हैं।
दिन में दो बार सभी के लिए अच्छा भोजन और प्रसाद बनता है।
मददनीस होने के कारण यह संभव हो पाता है।
विशेष अवसर पर उनकी बेटी भी पूरे दिन हाथ बँटाती है।
इन पाँच दिनों में भरली केले, नारियल वड़ी, मूँग दाल का हलवा, केसर भात, ताज़े नारियल की करंजी, शिरा, गव्हल्यांची खीर, पाक में बने लड्डू, बेसन बर्फी जैसे मीठे व्यंजन प्रसाद में बनाए जाते हैं।
इतना बनाया जाता है कि हर मेहमान को मिल सके और जाते समय घर ले जाने के लिए भी पर्याप्त हो।
इसके अलावा घर के गणपति को रोज़ 11 उकड़ी के मोदक का नैवेद्य लगाया जाता है।
ये मोदक रोज़ घर में ही बनाए जाते हैं।
इसके लिए सिर्फ नारियल मोलकर लाया जाता है।
शादी के बाद कुछ साल सासू माँ और मैं मिलकर रोज़ मोदक बनाती थीं।
अब कुछ साल से मैं अकेले ही करती हूँ।
पहले साल से ही मोदक बनाते समय सासू माँ हर मोदक की कलियाँ गिनती हैं — 11 कलियों वाला मोदक ‘पास’, बाकी ‘फेल’ (वे अंत में भाप में पक जाते हैं, पर गणपति के सामने नहीं रखे जाते)।
काम में तल्लीन हो जाएँ तो काम काम नहीं लगता, पर ये मोदक तल्लीन होने ही नहीं देते।
हमेशा वो पास-नापास की अदृश्य छड़ी सामने रहती है।
कभी 8–9 ही कलियाँ बन पाती हैं।
आटा और सारण खत्म होने लगता है, 11 कलियों के 11 मोदक बनाना मुश्किल हो जाता है।
सासू माँ का माथा सिकुड़ने लगता है, बड़बड़ शुरू हो जाती है।
मेरे सामने से परात खींचकर वे खुद पारी वलने लगती हैं, पर 11 कलियाँ फिर भी नहीं बन पातीं — बस 7–8 ही होती हैं।
फिर चिढ़ बढ़ती है।
फिर मेरे पास वापस दिया जाता है — “पहले मेरे 21 कलियाँ बनती थीं, तुमने न जाने कैसे उकड़ निकाली है।”
गणपति से मन ही मन प्रार्थना करके किसी तरह टार्गेट पूरा होता है।
मोदक आनंद देने वाले न होकर दुःख देने वाले बन जाते हैं।
हर साल इन पाँच दिनों में यह घटनाक्रम कम से कम दो बार होता है।
आँखें भर आती हैं, पर घर की लक्ष्मी (गृहिणी) आँसू पोंछकर चेहरा मुस्कराता है, पति के हाथ में आरती की थाली देता है, गणपति के आगे 11 मोदक रखता है, मेहमानों का हालचाल पूछता है, हँसकर हाथ में प्रसाद देता है, सबकी तारीफ सुनता है, अपमान मन में रखता है — सालों-साल।
रीति-रिवाज, परंपरा, पद्धति —
चलती रहती हैं, औरतों की जान पर, जब तक उनमें जान है।
इस साल मैं जा रही हूँ इस सब से दूर — मुंबई के पास के एक आदिवासी क्षेत्र में, बच्चों के लिए Basic Concepts of Maths पर कार्यशाला लेने।
27 से 31 अगस्त तक।
पिछले एक साल में अंग्रेज़ी व्याकरण, रीडिंग और अलग-अलग कार्यशालाएं छुट्टियों में ले चुकी हूँ।
(बेटे की स्कूल के कारण बाकी समय संभव नहीं, इसलिए स्कूल की छुट्टियों में ही ये कार्यशालाएं लेती हूँ।)
यहाँ न गणपति है, न त्योहार, न मोदक।
पर यहाँ के प्राकृतिक वातावरण, बच्चों और पढ़ाने में ही मोद (आनंद) है।
यही मेरा सच्चा संतोष है।