“आया आषाढ़, आया आषाढ़…”
“आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं।
वप्रक्रीडा परिणत गज प्रेक्षणीयं ददर्श।”
यह कालिदास की अमर और श्रेष्ठ काव्यरचना ‘मेघदूत’ की एक भावपूर्ण पंक्ति है! आषाढ़ की प्रेमपूर्ण वाणी गाने वाले इस कवि की प्रतिभा को समर्पित ‘महाकवि कालिदास दिवस’ आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है।
जब आषाढ़ आता है, तो आंखों के सामने छा जाते हैं काले-काले मेघ। पूर्वमेघ और उत्तरमेघ – इन दोनों खंडों को समेटने वाले ये घनश्याम मेघ एक मधुर विरह की रचना कर जाते हैं। भले ही यह विरह है, लेकिन आषाढ़ शृंगार रस की वर्षा कर हमें भिगो जाता है।
‘आषाढ़’ नाम ही उसके आगे-पीछे आने वाले नक्षत्रों – ‘पूर्वाषाढ़ा’ और ‘उत्तराषाढ़ा’ – से पड़ा है। आषाढ़ यानी तेज बारिश, मानो वह खुद एक उद्दंड योद्धा हो! उन्माद में बरसने वाली आषाढ़ की फुहारें! लेकिन यह तपती धरती भी इन्हीं बारिश की धाराओं को समर्पण से बांहों में भरने को आतुर रहती है! और जब धरती भी पूरे जोश के साथ आषाढ़ की बारिश में भीगती है, तब मिट्टी के नवसृजन का एक मिलन उत्सव सा सजता है।
जब आषाढ़ की धारों से सारा वातावरण भीगता है, तब केवल प्रकृति ही नहीं, बल्कि संवेदनशील मन भी भीग उठते हैं – और जन्म लेते हैं रचनात्मक विचार। जैसे-जैसे जंगल हरियाले होते हैं, वैसे-वैसे मन भी।
“दिशा-दिशा से आषाढ़ के श्याम मेघों की बाढ़,
घास की तरह मन भी हो उठे चंचल और प्यासे मोर…”
– बा.भ. बोरकर
ग्रामीण क्षेत्रों में आषाढ़ का विशेष महत्व है। कृषि संस्कृति का नया वर्ष आषाढ़ से शुरू होता है। किसानों के भावविश्व को पुष्ट करने वाला यह आषाढ़ महीना, जिसे ‘अखाड’ भी कहा जाता है। ‘खाडा’ यानी अभाव और ‘अ’ यानी नहीं – यानी जिस महीने में किसी चीज़ की कमी नहीं, ऐसा यह महीना।
लोक साहित्य में भी आषाढ़ की बड़ी सराहना की गई है:
“रोवनी करे बोवनी (भवानी)
मृग चला शियानी
अलदल का पानी आया…”
“पहले बेटे की माँ के चेहरे पर हँसी खिली,
जैसे आर्द्रा नक्षत्र में बरसने वाली फुहारों से
आषाढ़ की फसलें सुंदर हो जाती हैं…”
बहिणाबाई भी इन वर्षा नक्षत्रों – रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा – की बहुत सराहना करती हैं।
आषाढ़ में भक्ति का भी पुष्प खिलता है। कुंद पावस मौसम में ‘आषाढ़ी वारी’, ढोल-ताशों के नाद में तालबद्ध वारकऱियों के कदम – भक्ति में भीगा यह आषाढ़ महीना संतकवियों की वाणी से भर उठता है। आकाश में मेघ गूंजते हैं – “जय जय विठोबा रखुमाई” – और वारकऱियों के मन में बसे सावले विठोबा बरसात बनकर झरने लगते हैं।
गूंजता है “ज्ञानोबा-तुकाराम” का जयघोष। हरी-भरी शाखाओं में ताली की गूंज सुनाई देती है और नदियों की लहरों में अभंग की पंक्तियाँ। अबीर से सने हाथ, और पवन के साथ कानों में पड़ती है पांडुरंग की पुकार। आषाढ़ का सावला विठोबा पंढरपुर में कटि पर हाथ रखकर खड़ा है। श्रीकृष्ण को भी यह महीना प्रिय है – तभी तो पुरी में जगन्नाथ रथयात्रा भी इसी आषाढ़ में होती है।
‘देवशयनी एकादशी’ भी आषाढ़ में आती है। भगवान विष्णु भी चार महीनों की योगनिद्रा में चले जाते हैं – आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) तक। इस एकादशी को हम भक्तिभाव से आषाढ़ी एकादशी के रूप में मनाते हैं।
आषाढ़ महीना प्रकृति सौंदर्य की भी खुलकर झलक दिखाता है – हरियाली, झरने, और रचनात्मक प्रेरणा से भरपूर वातावरण। बोरकर की कविता “रे थांब जरा आषाढ़ घना…” इन मनोहारी दृश्यों को सुंदरता से चित्रित करती है:
“कोमल पन्ने जैसे खेत,
मिट्टी में औजारों की रेखाएं,
नीलम-से बांसों के द्वीप,
सब तेरे ही पदचिन्ह लगते हैं…”
वे आगे कहते हैं:
“बालियों को भर दे दूध से,
फूलों की डंडियों को मधुरता से,
पंछियों के गले को गीतों से,
घास-पत्तों को सिहरन से भर दे…”
आषाढ़ आते ही नवविवाहित बेटियां ‘आषाढ़ पावली’ के लिए मायके आती थीं। प्राचीन परंपरा के अनुसार, नववधू को इस महीने पति या ससुराल वालों को नहीं देखना चाहिए – ताकि उसे मायके में कुछ समय चैन और स्नेह से मिले। मां उसे स्वादिष्ट चीजें खिलाती, तले हुए पारंपरिक पकवानों से उसका स्वागत करती।
इस आषाढ़ में बारिश की ठंडक गृहिणियों को तले हुए खाद्य बनाने को प्रेरित करती है – भजिया, कुरडई, पापड़, और गरमागरम तला-भुना भोजन जीभ और शरीर – दोनों को संतुष्टि देता है। पाककला को जैसे नई ऊर्जा मिल जाती है। इस महीने कांदेनवमी आती है, जिसमें प्याज के विभिन्न व्यंजन बनाए जाते हैं – क्योंकि इसके बाद चातुर्मास शुरू होता है। आषाढ़ अमावस्या (गटारी अमावस्या या गताहारी) भी इसी महीने आती है – जिसमें तले-भुने पकवानों की भरमार होती है। कुछ क्षेत्रों में ‘आखाड तळणे’ नामक परंपरा है – जिसमें तले हुए व्यंजन इंसानों के साथ पालतू जानवरों को भी खिलाए जाते हैं।
यह महीना गुरु का भी सम्मान करता है। आषाढ़ में ही गुरुपौर्णिमा आती है – व्यासपौर्णिमा – महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास की जयंती। इस दिन गुरु के चरणों में कृतज्ञता प्रकट करने हेतु विशेष कार्यक्रम होते हैं।
आषाढ़ की विदाई दीप अमावस्या से होती है – जो आने वाले श्रावण के स्वागत की आहट देती है। दीयों की रौशनी से घर जगमगाते हैं। दीप, जो ज्ञान और मंगल का प्रतीक है, उसकी पूजा की जाती है। साथ ही वंश के ‘दीयों’ का भी पूजन किया जाता है।
यह आषाढ़ महीना सबकी सुध लेता है – प्रेमियों की, किसानों की, नवविवाहित बेटियों की, प्रकृति प्रेमियों की, कवियों की, भक्तों की, गुरु-शिष्यों की और खाने के शौकीनों की भी!
तो चलिए, इस बहुरंगी आषाढ़ का हम मिलकर स्वागत करें!