मैत्री, प्रेम की एक सुंदर परिभाषा है — जो सिर्फ़ तुम्हारे-मेरे, चार लोगों के बीच, या किसी विशेष समुदाय या वर्ग तक सीमित न रहकर संपूर्ण विश्वव्यापी होनी चाहिए।
इसी कारण श्री ज्ञानराज महाराज ने पसायदान जैसी विश्व प्रार्थना में दूसरे चरण में यह उद्घोष किया है —
“जे खळांची व्यंकटी सांडो । तया सत्कर्मी रती वाढो ।
भूता परस्परे जडो । मैत्र जीवांचे ॥”
यहाँ ज्ञानराज महाराज की इस वैश्विक प्रार्थना में ‘मैत्री’ कोई संकीर्ण (सीमित) विचार नहीं है, बल्कि एक व्यापक, सर्वसमावेशक अर्थ ग्रहण करती है।
हिंदी भाषा में ‘मित्र’ शब्द का अर्थ है ‘दोस्त’। इसकी एक सुंदर व्याख्या की जा सकती है —
जहाँ दो व्यक्तियों के मन और विचार एक-दूसरे से जुड़ते हैं, जहाँ ‘तेरा-मेरा’ जैसी द्वैत भावना का पूर्ण रूप से अंत हो जाता है, वही ‘मैत्री’ है। और जब यह स्थिर (स्थायी) हो जाती है, तब एक-दूसरे के सभी दोष स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
यानी — “जहाँ दो मनों के बीच एक-दूसरे के विषय में दोषों का पूर्ण ‘अस्त’ हो जाए, जहाँ तेरा-मेरा का यह द्वैत खत्म हो जाए — वही तो ‘दोस्त’ कहलाता है।”
श्री महाराज भी यही प्रतिपादन करते हैं —
“जे खळांची व्यंकटी सांडो”,
अर्थात – जिनके भीतर नकारात्मकता या दोषपूर्ण विचार हैं, वे समाप्त हो जाएँ। और जहाँ दोष समाप्त होते हैं, वहाँ स्वतः ही सत्कर्म (अच्छे कार्यों) की वृद्धि होती है।
फिर उस व्यक्ति के लिए, उस मानसिकता के लिए, सम्पूर्ण संसार ही ‘मैत्रीपूर्ण’ बन जाता है।
“यह पूरा विश्व मेरा घर है!” —
यह भाव तभी संभव है जब हमारी मैत्री की परिभाषा वही हो जो श्री ज्ञाननाथ महाराज ने बताई है — एक विश्वात्मक (सर्वव्यापक) परिभाषा।
मैत्री किसी विशेष दिवस या संस्कृति तक सीमित नहीं है। लेकिन जब भी इसका उल्लेख हो, तो हमें हमारे संतों द्वारा दी गई इसकी व्यापक और सार्वभौम (universal) परिभाषा ज़रूर ज्ञात होनी चाहिए।