
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में केतु को एक अत्यन्त रहस्यमयी, आध्यात्मिक और मोक्ष प्रदाता ग्रह माना गया है। जिस प्रकार राहु ‘भोग’ और ‘माया’ का विस्तार है, ठीक उसके विपरीत केतु त्याग, वैराग्य और मोक्ष का कारक है। केतु को ‘शिखी’ (चोटी) और ‘ध्वजा’ (पताका) भी कहा जाता है, जो यह दर्शाता है कि यह ग्रह जातक को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर परम पद ऊंचाई तक ले जाने की क्षमता रखता है।
महर्षि पराशर, वराहमिहिर, मन्त्रेश्वर, और वैद्यनाथ आदि आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के आधार पर मैं केतु ग्रह का विस्तृत, शास्त्रीय और गम्भीर विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. केतु का पौराणिक एवं शास्त्रीय स्वरूप
समुद्र मन्थन की कथा के अनुसार, स्वरभानु दैत्य का सिर कटने के पश्चात जो धड़ बचा, वही ‘केतु’ कहलाया। चूँकि केतु के पास मस्तक (आँखें और मस्तिष्क) नहीं है, अतः यह ‘हृदय’ और ‘अन्तःप्रज्ञा’ का प्रतीक है। तथापि इसका रक्ताक्ष आदि स्वरूप भी शास्त्रों में प्राप्त होता है जो धड का भी मानवीय रूप संकल्पना दिखाता है।
महर्षि पराशर ने बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् में केतु के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है—
धूम्रवर्णो द्विबाहुश्च पाषाणो विकृताननः।
गृध्रासनगतो नित्यं केतुः सर्ववरप्रदः॥
अन्यत्र वर्णन मिलता है:
रक्ताक्ष रौद्रवपुषं उग्रं कोपान्वितं सदा।
पित्तात्मकं केतुमहं नमामि॥
अर्थात्:
धूम्रवर्णो: केतु का वर्ण धुएं जैसा या विचित्र बहुरंगी है।
विकृताननः: इसका स्वरूप विकृत है।
पित्तात्मकं: राहु वात प्रधान है, किन्तु केतु पित्त (अग्नि) प्रधान ग्रह है, क्योंकि यह मंगल के समान कार्य करता है।
नेत्र: इसकी आँखें लाल और क्रोधयुक्त हैं।
लघु पाराशरी का सिद्धान्त सूत्र है—
कुजवत् केतुः। अर्थात् केतु मंगल के समान फल देता है। मंगल की तरह यह भी ऊर्जा, साहस, रक्त, और शल्य चिकित्सा का कारक है, किन्तु इसकी ऊर्जा आन्तरिक और विस्फोटक होती है।
२. केतु का कारकत्व (अधिकार क्षेत्र)
केतु को ज्योतिष में ‘मोक्षकारक’ की उपाधि प्राप्त है। यह संसार से विरक्ति उत्पन्न करता है। फलदीपिका और उत्तरकालामृत के अनुसार केतु के प्रमुख कारकत्व इस प्रकार हैं:
मोक्ष एवं वैराग्य: यह आध्यात्मिक उन्नति, समाधि और मुक्ति का नैसर्गिक कारक है।
मातामह (नाना): ननिहाल पक्ष और नाना का विचार केतु से होता है।
ज्ञान: यह ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान और गूढ़ विद्याओं का दाता है।
चोट और घाव: केतु शरीर में घाव, फोड़े-फुंसी और शल्य क्रिया का कारक है।
तन्त्र-मन्त्र: तान्त्रिक सिद्धियाँ और मन्त्र शक्ति केतु के अधीन हैं।
विष और महामारी: अज्ञात रोग, वायरस, और विषाक्तता।
ध्वजा (झंडा): कीर्ति और यश की पताका।
गुप्त षड्यंत्र: अदृश्य शत्रुओं और गुप्त षड्यंत्रों का कारक।
इलेक्ट्रॉनिक्स और सूक्ष्म यन्त्र: आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सूक्ष्म तरंगों और तारों का कारक केतु है।
३. राशि, बल एवं दृष्टि विचार
राहु की भांति केतु भी छाया ग्रह है और इसकी अपनी कोई राशि नहीं है। यह जिस भाव या राशि में बैठता है, और जिस ग्रह की दृष्टि इस पर होती है, तदनुसार फल देता है।
उच्च राशि: वृश्चिक राशि को केतु की उच्च राशि माना जाता है (कुछ मतों में धनु)।
नीच राशि: वृषभ राशि में केतु नीच का होता है (कुछ मतों में मिथुन)।
मूलत्रिकोण: मीन राशि (क्योंकि यह मोक्ष की राशि है)।
मित्र: मंगल, शुक्र, शनि।
शत्रु: सूर्य, चन्द्रमा।
सम: बुध, गुरु।
दृष्टि: केतु की दृष्टियों के विषय में मतभेद है, किन्तु बृहत्पाराशरहोराशास्त्र के अनुसार राहु की तरह केतु भी अपने स्थान से पञ्चम (५), सप्तम (७) और नवम (९) भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। केतु की दृष्टि विच्छेदकारी होती है।
४. द्वादश भावों में केतु का फल (भावफल)
चमत्कारचिन्तामणि, जातकपारिजात और सारावली के आधार पर द्वादश भावों में केतु का विस्तृत फल:
प्रथम भाव (लग्न) में केतु: लग्नस्थ केतु जातक को विचारशील और कभी-कभी भ्रमित बनाता है।
लग्ने विकलदेहः स्यात् केतौ चञ्चलमानसः। जातक का स्वभाव विचित्र होता है। लोग उसे आसानी से समझ नहीं पाते। यदि वृश्चिक (उच्च) का केतु लग्न में हो, तो जातक महाधनी और यशस्वी होता है। अशुभ होने पर जातक को सिर दर्द, पति-पत्नी में कलह और स्नायु दौर्बल्य हो सकता है।
द्वितीय भाव (धन) में केतु: धन भाव में केतु वाणी में तीखापन और धन संचय में बाधा देता है।
द्वितीये धनहीनश्च, मुखरोगी, कटुवचः। जातक कड़वा बोलने वाला होता है, जिससे परिवार में विरोध होता है। धन आता है परन्तु रुकता नहीं है। जातक को मुख या नेत्र के रोग हो सकते हैं। परन्तु यदि शुभ हो, तो जातक की वाणी में ‘वाकसिद्धि’ होती है (जो कहे वह सत्य हो जाए)।
तृतीय भाव (पराक्रम) में केतु: यह केतु के लिए अति श्रेष्ठ स्थान है।
तृतीये रिपुहा, शूरः, महाभोगी, यशोधनः। (चमत्कारचिन्तामणि) जातक अदम्य साहसी और पराक्रमी होता है। वह अपने बाहुबल से शत्रुओं को कुचल देता है। वह दीर्घायु और कीर्तिवान होता है। छोटे भाइयों को कष्ट हो सकता है। जातक तर्क-वितर्क में निपुण होता है।
चतुर्थ भाव (सुख) में केतु: चतुर्थ भाव में केतु माता और गृह सुख के लिए हानिकारक है।
सुखस्थाने मातृनाशो, गृहक्षेत्रविवर्जितः। जातक को अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ती है। माता का स्वास्थ्य पीड़ित रहता है। मानसिक शान्ति भंग रहती है। हृदय रोग की सम्भावना रहती है। परन्तु अध्यात्म के लिए यह स्थिति अच्छी है, जातक एकान्तप्रिय होता है।
पञ्चम भाव (सुत) में केतु: पञ्चम केतु सन्तान पक्ष के लिए कष्टकारी किन्तु मन्त्र सिद्धि के लिए उत्तम है।
सुतस्थाने सुतक्लेशः, उदरव्याधिपीडितः। सन्तान होने में बाधा या सन्तान से वियोग हो सकता है। गर्भपात का भय रहता है। जातक की बुद्धि तीक्ष्ण और अन्वेषणात्मक होती है। वह गूढ़ शास्त्रों का ज्ञाता होता है।
षष्ठ भाव (शत्रु) में केतु: षष्ठ भाव में केतु शत्रुहन्ता योग बनाता है।
षष्ठे रिपुक्षयकरः, दृढगात्रः, सुखी पुमान्। जातक निरोगी, साहसी और मामा कुल के लिए अरिष्टकारी होता है। शत्रुओं के षड्यंत्र विफल हो जाते हैं। जातक को भूत-प्रेत या ऊपरी बाधाओं का भय नहीं रहता। यह स्थिति जातक को बहुत ऊंचाइयों तक ले जा सकती है।
सप्तम भाव (जाया) में केतु: सप्तम केतु वैवाहिक जीवन में नीरसता और विच्छेद ला सकता है।
सप्तमे मन्दमतिः, भार्याद्वेषी, व्ययाधिकः। जीवनसाथी का स्वास्थ्य खराब रह सकता है। दाम्पत्य में कलह रहता है। जातक का जीवनसाथी आध्यात्मिक प्रवृत्ति का हो सकता है। यात्राओं में कष्ट होता है। आंतों (Intestine) के रोग हो सकते हैं।
अष्टम भाव (आयु) में केतु: अष्टम भाव गूढ़ विद्याओं का है और केतु इसका कारक है।
रन्ध्रे शस्त्रघातश्च, गुदरोगी, पराजितः। शारीरिक दृष्टि से यह बवासीर, भगंदर और चोट का भय देता है। परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से यह सर्वश्रेष्ठ है। जातक को पूर्वाभास होता है। वह तन्त्र और ज्योतिष में निपुण होता है। धन लाभ अचानक होता है।
नवम भाव (भाग्य) में केतु: नवम केतु जातक को पारम्परिक धर्म से हटाकर तपस्या की ओर ले जाता है।
धर्मे तपस्वी, धर्मिष्ठः, पितृद्वेषकरोऽपि वा। जातक तीर्थ यात्राएं करता है। पिता के सुख में कमी आती है। वह दानी और परोपकारी होता है। यदि केतु यहाँ शुभ हो, तो जातक मन्दिर या धर्मशाळा का निर्माण करवाता है।
दशम भाव (कर्म) में केतु: दशम केतु कार्यक्षेत्र में अस्थिरता और संघर्ष देता है।
दशमे पितृसौख्यघ्नः, भाग्यहीनो, मलीमसुः। परन्तु यदि लग्नेश बली हो, तो जातक समाज सुधारक या सन्यासी बनकर बड़ी कीर्ति पाता है। उसके कार्य करने का तरीका रहस्यमयी होता है। वह नौकरी की अपेक्षा स्वतन्त्र कार्य में अधिक सफल होता है।
एकादश भाव (लाभ) में केतु: एकादश भाव में केतु अपार सम्पत्ति और सफलता देता है।
लाभे बहुगुणः, प्राज्ञः, सर्ववस्तुसमन्वितः। जातक अनेक स्रोतों से धन कमाता है। वह विद्वान और राजमान्य होता है। शेयर बाजार या सट्टे से लाभ हो सकता है। पेट के रोग हो सकते हैं।
द्वादश भाव (व्यय) में केतु: बारहवां भाव मोक्ष का है और केतु मोक्ष का कारक है। यह केतु की सर्वोच्च स्थिति मानी गई है।
व्यये मोक्षगतिः, पापी, पितृवित्तविनाशकः। जातक का धन सत्कर्मों और धर्म में व्यय होता है। वह संसार से विरक्त होकर मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होता है। उसे नेत्र पीड़ा हो सकती है। जीवन के अन्त में उसे परम पद की प्राप्ति होती है।
५. केतु जनित विशिष्ट योग
केतु जिस ग्रह के साथ होता है, उसके फलों को सोख लेता है या उन्हें विचित्र बना देता है।
१. गणेश योग (गुरु + केतु): इसे ‘ध्वजा योग’ भी कहते हैं। यदि गुरु और केतु की युति (विशेषकर लग्न, ५, ९ या १२ भाव में) हो, तो जातक परम ज्ञानी, वेद-वेदांग का ज्ञाता और सात्विक होता है। यह योग मोक्ष दायक है।
२. पिशाच योग (मंगल/शनि + केतु): यदि केतु के साथ मंगल या शनि लग्न में हों, तो जातक प्रेत बाधा से ग्रस्त हो सकता है। उसका स्वभाव हिंसक और क्रूर हो सकता है।
३. ग्रहण योग (सूर्य/चन्द्र + केतु):
सूर्य + केतु: आत्मविश्वास में कमी, पिता को कष्ट, रीढ़ की हड्डी के रोग।
चन्द्र + केतु: मानसिक भटकाव, माता को कष्ट, किन्तु प्रबल अन्तर्ज्ञान। इसे ‘शक्ति योग’ भी कहते हैं यदि जातक साधक हो।
४. शंखपाल कालसर्प योग: जब राहु चौथे और केतु दसवें भाव में हो, और सारे ग्रह इनके मध्य हों। यह कार्यक्षेत्र में बहुत संघर्ष देता है, किन्तु जातक अपनी मेहनत से उच्च पद पाता है।
६. केतु की दशा एवं गोचर
विंशोत्तरी दशा: केतु की महादशा ७ वर्ष की होती है। बृहत्पाराशरहोराशास्त्र के अनुसार:
दशा का स्वभाव: केतु की दशा आकस्मिक परिणाम देती है।
केतौ नृपाद् भयंचौरैः शस्त्रघातो रुजा तथा। अर्थात् केतु की दशा में राजभय, चोर, शस्त्र आघात और रोग का भय रहता है। अग्नि काण्ड और विष का भय भी रहता है।
शुभ फल: यदि केतु केन्द्र-त्रिकोण में हो या गुरु/शुक्र से दृष्ट हो, तो दशा में तीर्थ यात्रा, ईश्वर आराधना, पुत्र प्राप्ति और धन लाभ होता है।
अशुभ फल: यदि केतु ८ या १२ में पाप युक्त हो, तो परिवार से वियोग, बन्धन (जेल) और मानसिक रोग देता है।
गोचर: केतु एक राशि में १८ महीने रहता है। केतु का गोचर सदा वक्री (उल्टा) चलता है।
जब केतु जन्म के चन्द्रमा या लग्न के ऊपर से गुजरता है, तो व्यक्ति को संसार से उचाट (विरक्ति) हो जाती है। यह समय निर्णय लेने के लिए कठिन होता है।
७. अनिष्ट केतु शान्ति के उपाय
केतु की शान्ति के लिए शास्त्रों में भगवान गणेश की आराधना सर्वश्रेष्ठ बताई गई है, क्योंकि गणेश जी ही केतु की बुद्धि को सही दिशा देते हैं।
१. मन्त्र जप: केतु के मन्त्र का १७,००० (कलियुग में चौगुना = ६८,०००) की संख्या में जप करना चाहिए। वैदिक मन्त्र:
ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः॥
पौराणिक मन्त्र:
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥
बीज मन्त्र:
ॐ स्रां स्रीं स्रौं सः केतवे नमः।
२. गणेश उपासना: प्रतिदिन ‘संकटनाशन गणेश स्तोत्र’ का पाठ करें। बुधवार को गणेश जी को दूर्वा (घास) और लड्डू अर्पित करें।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्…
३. दान: मंगलवार या शनिवार को सात प्रकार का अनाज (सतनाजा), काला-सफेद (चितकबरा) कम्बल, नारियल, और मूली का दान करना चाहिए।
केतोः प्रीत्यर्थं तिल-तैल-कम्बल-वस्त्र-धान्यानि दद्यात्।
४. रत्न धारण: केतु का रत्न लहसुनिया है। यदि केतु योगकारक हो (जैसे सिंह, वृश्चिक, धनु लग्न में), तो लहसुनिया चाँदी की अंगूठी में कनिष्ठा या मध्यमा अंगुली में धारण करें।
५. अन्य टोटके:
श्वान सेवा: कुत्ता (विशेषकर चितकबरा कुत्ता) केतु का प्रतीक है। कुत्ते को रोटी खिलाने से केतु का कोप शान्त होता है।
ध्वजा दान: मन्दिर के शिखर पर ध्वजा (झंडा) चढ़ाना केतु को बली और शुभ करता है।
कान छिदवाना: केतु के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए कानों में सोना धारण करना प्राचीन उपाय है।
केतु ‘पूर्णता’ का ग्रह है। जहाँ राहु की भूख कभी शान्त नहीं होती, वहीं केतु सिखाता है कि “संसार में कुछ भी सार नहीं है”। केतु जातक को तोड़ता है, रुलाता है, और उसे अपमानित करता है, ताकि जातक का अहंकार नष्ट हो सके और वह ईश्वर की ओर मुड़ सके।
भौतिक दृष्टि से केतु कष्टकारी लग सकता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से यह सर्वश्रेष्ठ ग्रह है। जिसकी कुण्डली में केतु बारहवें भाव में शुभ स्थिति में होता है, ज्योतिष शास्त्र कहता है कि वह जीव अपने अन्तिम जन्म में है और उसे मोक्ष प्राप्त होगा।