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ज्ञान नेत्र

जब बलि दान देने के लिए संकल्प लेने लगा तो भगवान वामन कमंडलु से जल गिराने लगे किंतु आश्चर्य हुआ कि जल गिर ही नहीं रहा है! क्योंकि शुक्राचार्यजी उस कमंडलु की टोटी में बैठ गए थे कि न तो जल गिरेगा और न ही संकल्प बोला जाएगा और न तो मेरे यजमान की संपत्ति जाएगी। मुस्कुराकर वामन भगवान ने बलि के हाथ से कुश ले लिया। कुश बहुत नुकीला होता है और ज्योंही नुकीले कुश से भगवान ने उस छिद्र में प्रहार किया,

सीधे वह कुश शुक्राचार्यजी की एक आंख में घुसा और ज्योंही आंख फूटी, शुक्राचार्यजी की निकलकर बाहर आ गए। इस प्रकार भगवान ने उनकी एक आंख फोड़ दी। भगवान ने यह बड़ा ही सांकेतिक उपाय चुना। शुक्राचार्यजी ने भगवान को बाद में यह उलाहना दिया कि आपने मेरी आंख क्या समझकर फोड़ दी ? भगवान ने कहा कि वस्तुतः अंतर्जीवन में ज्ञान और वैराग्य दो नेत्र माने जाते हैं

और आपकी ज्ञान वाली आंख तो बिल्कुल ठीक थी क्योंकि बलि ने मुझे नहीं पहचाना और आपने पहचान लिया। पर वैराग्य वाली आंख लगता है पहले से ही फूटी हुई थी क्योंकि पहचानने के बाद आपको शिष्य से यह कहना चाहिए था कि सब कुछ सौप दो अथवा यह कहना चाहिए था कि भगवान को कुछ न दो ? इसलिए शरीर से लोगों को भले ही अब यह दिखाई देने लगे लगा कि आपके पास एक आंख है पर अंतर्जीवन में तो आप पहले से एकाक्ष थे। इसलिए मैंने इस नकली आंख या फूटी हुई को ही फोड़ दिया है।

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