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जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े

हाजी मस्तान और यूसुफ पटेल पर बॉलीवुड में फिल्में बनती हैं, लेकिन इन सभी अपराधियों की कॉलर पकड़कर, उनसे उठक-बैठक करवाने वाले व्यक्ति का नाम दुर्भाग्य से हमारे बच्चों और युवा पीढ़ी को मालूम नहीं है। हवलदार बापू लक्ष्मण लामखड़े की आज जन्मशताब्दी का वर्ष समाप्त हो रहा है। उनकी पवित्र स्मृति को अनंत कोटि प्रणाम।

जिनका नाम सुनते ही मुंबई के स्मगलरों के पसीने छूट जाते थे, ऐसे जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े की जन्मशताब्दी का वर्ष आज समाप्त हो रहा है। उन्होंने अपनी 34 साल की शानदार सेवा में उस समय लाखों रुपये का तस्करी का माल पकड़ा था, जिसकी कीमत आज अरबों रुपये में होती।

इतिहास के पन्नों में छिपा एक दुर्लक्षित सुनहरा पृष्ठ हैं जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े।

उनके कई चर्चित कारनामों में से एक था, 20 सितंबर 1957 को विक्टोरिया डॉक में तीन चीनी नाविकों से 300 तोले सोना जब्त करना। उन्होंने ये सोना अपने गुप्तांगों में छिपाया था। यह तस्करी के इतिहास में पहली बार हुआ था। बापू ने इसे अपनी तेज़ नजर और अनुभव के दम पर बिना किसी मुखबिर की मदद के पकड़ लिया। इस घटना ने सिंगापुर और हांगकांग तक अपराधियों के बीच सनसनी मचा दी।

60-70 के दशक में जब स्मगलर्स और गैंगस्टर्स का नाम सुनते ही लोग कांपते थे, ऐसे योद्धा थे जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े।

1960-70 का दशक मुंबई के अंडरवर्ल्ड का स्वर्णकाल था। इस समय शराब, मटका और तस्करी जैसे अवैध धंधों से कई अपराध सम्राट उभरे और उन्होंने मुंबई को बंधक बना लिया। बॉलीवुड में इन्हें बार-बार महिमामंडित करके दिखाया गया है।

लेकिन क्या ये सब सच है? नहीं। सच्चाई यह है कि मुंबई कस्टम्स से एक आवाज हमेशा गूंजती थी, जिसने इन सभी भाईयों और अपराधियों के दिलों में डर पैदा किया था। वह आवाज थी जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े की।

स्मगलरों पर फिल्म बनाना फिल्म उद्योग के लिए नई बात नहीं है। जब-जब बॉलीवुड में नई कहानियों का अभाव होता है, तो ये लेखक और निर्देशक 1960-70 के मुंबई के अपराध जगत को खंगालते हैं और किसी स्मगलर या भाई की कहानी ढूंढकर फिल्म बना लेते हैं।

बापू लक्ष्मण लामखड़े का जन्म 2 जुलाई 1922 को महाराष्ट्र के जुन्नर तालुका के मंगळूर-पारगांव नामक गांव में एक किसान परिवार में हुआ।

बचपन में प्लेग की महामारी ने उनके पिता को छीन लिया। बड़े भाई चिमाजी मुंबई की गोदी में कठिन परिश्रम करते थे। वहीं बापू अपनी मां की कठोर अनुशासन में बड़े हो रहे थे। खेतों में बकरियां चराते हुए, कठोर प्रकृति और गांव के वातावरण ने बापू को शारीरिक और मानसिक रूप से इतना मजबूत बना दिया कि नियति ने मानो उन्हें महान कार्यों के लिए तैयार कर लिया था।

अपने परिवार को सहारा देने के लिए बापू ने अपने बड़े भाई के नक्शे कदम पर चलते हुए मुंबई की गोदी का रुख किया। 1944 में 22 वर्ष की उम्र में बापू ने मुंबई कस्टम्स में सिपाही के पद पर नौकरी शुरू की। यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई।

बापू की साहसिक प्रवृत्ति, तेज बुद्धि और गुप्तचर जैसे गुणों ने उन्हें अद्वितीय बना दिया।

1964 में उन्हें पहला राष्ट्रपति पुरस्कार मिला, जो कस्टम विभाग का पहला पुरस्कार था। 1978 में उन्हें मरणोपरांत दूसरा राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। कस्टम विभाग की आधिकारिक पुस्तिका में बापू को छठी इंद्रीय वाला व्यक्ति बताया गया है।

उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनका विश्वासपात्र सहयोगी नेटवर्क और उनका खुद का खुफिया जाल। रामसिंग, गाडेकर, गावड़े, और मेहेंदळे जैसे सहयोगियों और कलेक्टर मुगवे, सोनावणे, कमर काज़ी जैसे अधिकारियों के सहयोग से बापू ने असाधारण कारनामे किए।

बापू ने कई बार अपने प्राणों की परवाह किए बिना अकेले तस्करों और अपराधियों का मुकाबला किया। कस्टम विभाग ने उन्हें एक किंवदंती के रूप में सम्मानित किया है।

4 दिसंबर 1978 को अचानक उनकी मृत्यु हो गई। उनके दुखद निधन के बाद मुंबई कस्टम्स कार्यालय के चौक का नाम उनके सम्मान में “जमादार बापू लक्ष्मण चौक” रखा गया। उनके गांव में उनके एक कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई।

बापू की 34 वर्षों की सेवा ने मुंबई के अंडरवर्ल्ड और तस्करों को घुटनों पर ला दिया। हाजी मस्तान, यूसुफ पटेल, वरदराजन, और ढोलकिया भाइयों के सभी ठिकानों को उन्होंने खोज निकाला।

बापू ने अपने साहस और परिश्रम से कानून और न्याय का डर अपराधियों में पैदा किया। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कामों की गूंज दूर-दूर तक सुनाई दी।

उनकी साइकिल, जो उनके साथ हर मिशन पर जाती थी, कस्टम्स ऑफिस में रखी गई। बापू के साहसिक और देशभक्ति भरे जीवन को हमेशा याद किया जाएगा।

जमादार बापू लक्ष्मण लामखड़े का नाम मुंबई कस्टम्स के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।

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