भारत के भयानकतम मूर्ख और तथाकथित “अतिआधुनिक सनातन हिंदुओं” द्वारा उनके प्राचीनतम ग्रंथों में वर्णित हजारों वर्ष प्राचीन “पुनर्जन्म के सिद्धांत” ( Principal of Rebirth ) की अवहेलना और उसको भूलना उनके अस्तित्व के लिए क्यों भयानकतम रूप से घातक हो गया और इसके परिणामस्वरूप उनके अस्तित्व के पूर्णतया विनाश का भयानकतम खतरा क्यों खड़ा हो गया है ?
भारत में अक्सर हिंदुओं के भयानकतम पराभव और इस्लाम के भयानकतम विस्तार पर चर्चाएं तो तथाकथित अपने को विद्वान समझने वाले परंतु वास्तव में निपट मूर्ख बुद्धिजीवियों द्वारा की जाती रहती हैं लेकिन उसका मूल कारण वे तथाकथित विद्वान नहीं ढूंढ़ पाते।
वास्तव में जातियों, नस्लों और धर्मों के सामूहिक जीवन और चरित्र एक,दो या पचास सौ वर्षों में नहीं बनते बल्कि उसमें कई सहस्त्राब्दियों का समय लगता है।
-यहूदियों के बहुत लंबे जीवन और विश्वास काल ( Survivalship ) का राज उनके गहन और प्रबल विश्वास “Chosen People of God” ( ईश्वर द्वारा चुने हुए व्यक्तियों ) में है, जिसने उन्हें अमरता के प्रति आश्वस्त किया हुआ है।
-पश्चिम की तकनीकी श्रेष्ठता का राज उनकी कठोर जलवायु में है जिसके कारण Innovation and Exploration की आदत ने उन्हें तकनीकी रूप से श्रेष्ठ बनाया है।
-चीनियों का विश्वास उनकी मूल ‘हान’ जाति की श्रेष्ठता और पूरे विश्व को चीन केंद्रित बनाने की उत्कट और प्रबल भावना में निहित है।
-इस्लामिक समाज का चरम विश्वास मृत्यु के बाद जन्नत पाने की होड़ में है जिसने उन्हें यहूदियों की भांति उत्कट और प्रबल ‘अमरता’ और ‘श्रेष्ठताबोध’ से भर रखा है।
हिंदुओं का चरम विश्वास “आत्मा की अनश्वरता और पुनर्जन्म” में था जिसे उन्होंने जानबूझकर अवज्ञापूर्वक भुला दिया और नाश कर दिया !
पश्चिम ने, चीन ने, यहूदियों ने और मुस्लिमों ने अपने जातीय विश्वास को आज तक उसी प्रकार से बनाये रखा है लेकिन अवास्तविक दुनिया में जीने वाले भयानकतम मूर्ख और घमंडी सनातन हिंदुओं ने अपने धर्म, सभ्यता और संस्कृति के मूल विश्वास “आत्मा और पुनर्जन्म” को भयानकतम अवज्ञापूर्वक छोड़ दिया !
एक टी वी सीरिज ‘रोम’ में एक हिंदू व्यापारी को रोमन सैनिक बंदी बना लेते हैं और उन्हें मारने को उद्यत हैं लेकिन उसे बिल्कुल शांत देखकर एक रोमन सैनिक पूछता है : “क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है?” और तब वह व्यापारी गीता के अमर श्लोक ‘वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय’ को अपने शब्दों में बोलता है–‘तुम सिर्फ मेरे शरीर को मार सकते हो आत्मा को नहीं, जो मृत्यु के बाद फिर नया शरीर धारण कर लेगी।’
इसी धारणा के दम पर हिंदुओं ने सुदूर अफ्रीका से दक्षिणी अमेरिका महाद्वीपों तक सनातन हिंदू संस्कृति का विस्तार किया था जिसके प्रमाण आज पूरे विश्व में बिखरे हुए मिलते हैं। यही वह दृढ विश्वास था जिसने खुदीराम बोस, भगतसिंह व रामप्रसाद बिस्मिल इत्यादि इत्यादि महापुरुष पैदा किये थे जो फांसी के फंदे पर भी गाते हुए चढ़ते थे, “नौ महीने बाद फिर लौटूँगा।”
यही वह भावना थी जिसके बल पर ब्राह्मणों ने सैन्य विजेता मुस्लिमों को ‘मलेच्छ’ अर्थात ‘टट्टी के समान’ कहकर ऐसा भयानक तिरस्कार किया था कि हिंदुओं में सबसे कमजोर वर्ग ‘भंगी’ भी मुस्लिमों का छुआ पानी तक पीने से भी घृणा करता था।
यही सनातन हिंदू जाति की महान शक्ति का केंद्र था, जिसपर भयानकतम चोट अवांछित, नीच, अवास्तविक और घोर नास्तिक बौद्ध और जैन पंथों ने की, “आत्मा और पुनर्जन्म के अस्तित्व को नकारकर।”
बाकी की भयानकतम चोट भारत के भयानकतम मूर्ख तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा विज्ञान की आधी अधूरी समझ ने कर दी कि पुनर्जन्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है जबकि विज्ञान ने सिर्फ इतना कहा था कि पुनर्जन्म का कोई प्रमाण अभी तक प्रायोगिक रुप से नहीं मिला है। लेकिन सनातन हिंदू विरोधियों व काले अंग्रेजों ने भयानकतम बकवास करना शुरू कर दिया कि पुनर्जन्म संभव ही नहीं है।
इस अधकचरी अवधारणा के कारण ही एक सिद्धांत बना :-
“यावज्जीवेत सुखम् जीवेत ! ऋणं कृत्वा घृतम् पीवेत् ! भष्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमन: कुत: !! ( चार्वाक दर्शन ४१ : २३४ )
अर्थात : जब तक जीओ सुख से जीओ ! ऋण लेकर भी घी पीओ ! जब यह शरीर आग में जल कर राख हो जाएगा तब वापस कैसे आ सकेगा ??
इसी दूषित सनातन हिंदू घोर नास्तिक चार्वाक दर्शन ने हिंदुओं में न केवल “पापबोध की भावना को क्षीण कर उन्हें भयानकतम अनैतिक बना दिया बल्कि श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित कृष्ण के कर्मफल सिद्धांत को भी भुला दिया।”
यही कारण है कि आम सनातन हिंदू को भयानकतम पेटपूजक, भोगी और विलासी ब्राह्मणों और तथाकथित साधु संतों और कथावाचकों ने भयानकतम कायर , डरपोक, मूर्ख और अनैतिक बना दिया है और वे निरंतर अधिक से अधिक बनते ही जा रहे हैं और पुनर्जन्म व कर्मफल में विश्वास न होने के कारण उन्हें भयानकतम कायर और डरपोक भी बना दिया गया है।
अब वे छोटी से छोटी भी चुनौती मिलने पर भी संघर्ष बिल्कुल भी नहीं करते बल्कि तुरंत पलायन को ही प्राथमिकता देते हैं ताकि “तिरस्कृत जीवन” ही सही परन्तु कम से कम परिवार सहित “निकृष्टतम और निंदनीय जीवन” का उपभोग तो कर ही सकें।
जो कार्य विदेशी विधर्मियों के दो हजार वर्षों और तुर्कों के एक हजार वर्ष के अत्याचार से भी नहीं कर पाये वह कार्य उपभोक्तावाद और नीच, कमीने तथा क्रिप्टो ( गुप्त, छुपा हुआ ) मुस्लिम मोहन दास करमचंद गांधी और कांग्रेस के “सर्वधर्मसमभाव” के खोखले नारों ने पिछले एक सौ वर्षों में कर दिखाया और भारत के सनातन हिन्दुओं को बिल्कुल हिंजड़े बना कर छोड़ दिया !
सोचकर देखिये जब तक हमारे पूर्वज मुस्लिमों का छुआ पानी भी नहीं पीते थे वहीं अब्दुला की मटन बिरियानी और उसको अपने चौके तक ले जाने के प्रक्रम ने उन्हें हिंदुओं की बेटियों के ब्लाउजों और पेटीकोटों तक पहुँचा दिया और हिंजड़े हिंदुओं को उनके अपने घरों से निष्कासित करवा दिया।
भयानकतम मूर्ख, कायर और डरपोक सनातन हिंदुओं ! जब तक कर्मफल व पुनर्जन्म में सच्चे ह्रदय से विश्वास नहीं रखोगे और जब तक नौकरी खोने और पैसे के घाटे की कीमत पर भी उनके मुँह पर खुले आम यह कहने की ताकत नहीं रखोगे कि सनातन हिंदुत्व संसार का श्रेष्ठतम धर्म है और तुम “मलेच्छ” हो, तब तक हिंदुओं में ना तो लड़ने का माद्दा पैदा होगा और न उनका मुस्लिम बहुल इलाकों से पलायन रुकेगा, बस भयानकतम हिंजड़े केवल सरकार को दोष देते रहेंगे और इधर उधर भागते रहेंगे और एक दिन भारत और विश्व से सदा सर्वदा के लिए लुप्त हो जाएंगे !