एक घनघोर जंगलमें एक बरगदके नीचे योगी गोरखनाथजी बैठे थे। उस समय उनकी वृत्ति अन्तर्जगत् में विचरण कर रही थी और वे अपने-आप अपने-आपसे बातचीत कर रहे थे। तबतक भारत-सम्राट् नवयुवक महाराज भरथरीजी (भर्तृहरि) एक काले हिरनके पीछे घोड़ा दौड़ाते हुए उधर आ निकले। योगी गोरखके पीछे खड़े होकर महाराज उनकी खुदमस्तीकी बातें सुनने लगे।
गोरख—दुआ माँग! दुआ कर! दुआसे जमीनतक फट जाती है और आसमानतक उड़ जाता है। जिस कामको कोई नहीं कर सकता, उसको दुआ कर सकती है। प्रार्थना कर प्रार्थना।
भरथरी—(मनमें) कोई महात्मा मालूम पड़ता है।
गोरख—अगर तू उसको देख लेगा तो उसके परदेमें परदा ही क्या रह जायगा? विचित्र परदा तो इसीलिये बनाया गया है कि उसको कोई देख न ले।
भरथरी—कोई तत्त्वज्ञानी जान पड़ता है।
गोरख—सब जगत् परमात्मामें है। परमात्मा मुझमें है, तो महात्मा बड़ा हुआ न परमात्मासे?
भरथरी—अबकी दफा दूरकी मसकी! जीवात्मा और महात्मा दोनों ही परमात्माके भीतर रहते हैं, जैसे तारे और चाँद आसमानके भीतर रहते हैं।
गोरख—शक्तिकी उपासना करनेवाले ‘रावण’ बन जाते हैं और शिवकी उपासना करनेवाले ‘राम’ बन जाते हैं।
भरथरी—इस हिसाबसे मैं एक ‘रावण’ हूँ; क्योंकि राजा होता है शक्तिका उपासक।
गोरख—इस विशाल भूगोलमें सब स्त्रियाँ-ही-स्त्रियाँ हैं। उनकी इच्छा है कि जमीनपर जो रहे, सो एक औरत बनकर।
भरथरी—यह बात समझमें नहीं आयी। यह आदमी कुछ सनकी भी मालूम पड़ता है।
गोरख—इस विशाल भूगोलमें सब पागल-ही-पागल रहते हैं। अगर कोई होशमें आने लगता है तो उसे पागल लोग पागल कहने लगते हैं; क्योंकि वे खुद पागल हैं।
भरथरी—सभी पागल हैं? अबकी फिर इसने जकंद भरी। मालूम होता है कि विचार करते-करते यह आदमी पागल हो गया है।
गोरख—जमीन कहती है कि मैं बड़ी और आसमान कहता है कि मैं बड़ा। औरत कहती है कि मैं बड़ी और मर्द कहता है कि मैं बड़ा। वास्तवमें न जमीन बड़ी, न आसमान बड़ा। बड़ी है ‘भूल’ जो कि दोनोंको अहमक बनाये हुए है।
भरथरी—क्यों जी! तुमने इधर कोई काला हिरन देखा था?
गोरख—मैं यहाँ नहीं रहूँगा। जहाँ सब अन्धे-ही-अन्धे हैं, वहाँ मैं नहीं रहूँगा, जहाँ सब पागल-ही-पागल हैं, वहाँ मैं कैसे रह सकूँगा? जिस गाँवके सब लोग नशेबाज हैं, उस गाँवमें मेरा गुजारा कैसे होगा? नहीं-नहीं, औरतोंके इस शहरमें मेरा निवास नहीं रह सकता।
भरथरी—क्यों जी! तुम कौन हो? मेरी बात नहीं सुनते?
गोरख—आपकी अप्रकाशित ‘विधान’ नामक नाटक-पुस्तकमें दो भाग हैं—एक ‘दु:खान्त नाटक’ और दूसरा ‘सुखान्त नाटक’। दु:खान्त नाटक पहले खेला गया और सुखान्त नाटक बादको खेला जायगा। परंतु इस दु:खान्त नाटकका अन्तिम परदा कब उठेगा? इसकी समाप्ति किस संवत् में होगी? ऐसा न हो कि आप ‘सुखान्त’ का समय भूल जायँ। आपमें चाहे कोई अवगुण न हो, किंतु भूलका अवगुण तो है ही।
भरथरी—क्यों जी! यहाँसे कोई गाँव नजदीक है?
गोरख—यह धरतीका देश बहुत बड़ा है, यह विशाल धरतीका देश, पानीके देशके बीचोबीच सो रहा है और पानीका देश, आगके देशमें हिलोर भर रहा है, तो भी इस धरतीपर रहनेवाले समस्त कीटाणु बेफिक्रीके इन्तजाम सोच रहे हैं, निधड़क घूम रहे हैं सब निशाचर!
भरथरी—पूरा पागल मालूम होता है। मैं पूछता हूँ आगरेकी बात और यह देता है दिल्लीकी खबर।
संध्या हो रही है और उस हिरनका पता नहीं।
तबतक गोरखनाथजीका वह पालतू काला हिरन वहाँ आ पहुँचा, जिसके पीछे महाराज परेशान हो रहे थे। महाराजने एक तीर चला दिया और हिरन मरकर वहीं योगिवर गोरखनाथजीकी गोदीमें गिर पड़ा। उनकी चित्तवृत्ति अन्तर्जगत् से हटकर इस बाहरी जगत् में आ गयी। हिरनको मरा हुआ देख गोरखनाथजीने महाराजसे कहा—
गोरख—तुम कौन हो?
भरथरी—भारतके उदय-अस्तका मैं राजा हूँ।
गोरख—भारतका उदय जब होगा तब होगा, तुम्हारा अस्त तो आज हो जायगा।
भरथरी—क्यों?
गोरख—इस निरपराध और पालतू हिरनको क्यों मारा?
भरथरी—मैं राजा हूँ, जिसको चाहूँ मारूँ।
गोरख—मैं नहीं मानता कि तुम राजा हो। शूर नहीं, क्रूर हो।
भरथरी—तुम्हारे न माननेसे क्या होता है?
गोरख—हमारे न माननेसे तुम राजा रह कैसे सकते हो?
भरथरी—अच्छा।
गोरख—और नहीं तो?
भरथरी—क्या करोगे मेरा तुम?
गोरख—जो तुमने हिरनका किया, ठीक वही।
भरथरी—तुम्हारे पास हथियार तो कोई है ही नहीं, फिर मुझको मारोगे कैसे?
गोरख—हथियारसे मारा करते हैं हिजड़े लोग। हमारी दुआ ही हमारी तलवार है। दुआसे जमीनतक फट जाती है। तुम्हारा फट जाना कौन बड़ी बात है?
भरथरी—क्या मैंने कोई अपराध किया है?
गोरख—बड़ा भारी।
भरथरी—क्या?
गोरख—मार वही सकता है कि जो जिला सकता हो। जो जिलाना नहीं जानता, उसको मारनेका हक नहीं है, हुक्म नहीं है, कानून नहीं है।
भरथरी—मरकर कोई जीवित नहीं हो सकता। यह बात प्रकृतिके नियमसे विरुद्ध है।
गोरख—प्रकृतिके नियमोंको तुम क्या जानोगे?
प्रकृतिका नाम ही सुन लिया या उसे कभी देखा भी? विष खानेसे आदमी मर जाता है, परंतु शंकरजी विष खाकर अमर हो गये। बिना जड़का कोई पौधा नहीं होता; किंतु अमरबेल बिना मूलके ही फूलती है। सम्भव और असम्भव दोनों नियमोंकी नियमावलीकी माला जो प्रकृति पहने है, उसका नाम ही सुन भगे हो या कुछ जानते भी हो?
भरथरी—मुझे फुरसत नहीं, जो ज्यादा बकवाद करूँ। हिरनको लेकर राजधानी लौटना है।
गोरख—हिरनको लेकर? हिरनको छोड़कर ही राजधानी चले जाओ तो मैं जानूँ? बिना इसे जीवित किये तुम एक डग नहीं रख सकते। राजधानीमें नहीं जाओगे तो कुरबानीमें जरूर जाओगे। हजार बातकी एक बात यह कि इसे जीवित करो या मरनेको तैयार हो जाओ।
भरथरी—तुम कौन हो?
गोरख—पब्लिकको बनाने और बिगाड़नेका खेल राजा लोग खेला करते हैं। हम योगी वे लोग हैं जो राजाओंके बनाने-बिगाड़नेका खेल खेला करते हैं।
भरथरी—क्या तुम इस हिरनको जीवित कर सकते हो?
गोरख—अगर जीवित कर दें तो?
भरथरी—तो भारतका सम्राट् तुम्हारा गुलाम हो जायगा।
गोरख—कंचन, कामिनी और कीर्तिकी आपातकमनीय त्रिमूर्ति राजपाटको छोड़कर नम्रता, ब्रह्मचर्य और त्यागकी आपातभयावनी त्रिमूर्ति भक्तिमार्गमें आ जाओगे?
भरथरी—जरूर आ जाऊँगा।
अमरविद्या या प्राणकलाके एक आचार्य गोरखनाथजीने उसी क्षण मरे हुए हिरनको सचमुच जिला दिया।
गोरख—राजा भरथरी!
भरथरी—बाबा भरथरी कहो बाबा!
गोरख—राजा बड़ा कि योगी?
भरथरी—राजा केवल मार सकता है, पर योगी मार भी सकता है और जिला भी सकता है।
जय श्री राधे …….यह गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक है – “एक लोटा पानी”, उसी पुस्तक से यह कहानी लिया गया है।