शौर्यगाथा भाग – 1
आज रविवार। भारतीय सैनिकों के शौर्य को नमन करने का दिन।
भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के चंगुल से 16,100 महिलाओं की रक्षा की थी। मेजर जनरल सुनील कुमार राज़दान (सेवानिवृत्त) द्वारा की गई एक सफल कार्रवाई में कुछ वैसा ही साम्य दिखाई देता है। इसी दृष्टि से लेखक ने इसे विस्तार से लिखा और कल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। आइए पढ़ें पौराणिक और वास्तविक घटनाओं का अद्भुत साम्य। शौर्यगाथा लंबी है लेकिन शौर्य जितना महान है, इसलिए इसे दो भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है।
वह मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की तरह जन्मा तो नहीं था, लेकिन उसका बचपन और युवावस्था मथुरा में ही गुज़री। उसके मूल जन्मस्थान को “नंदनवन” की उपमा दी जाती है, जिसमें ‘नंद’ शब्द आता है। यह भी एक समानता कही जा सकती है। उसके कर्म भी कुछ हद तक भगवान श्रीकृष्ण जैसे ही थे।
जैसे भौमासुर उर्फ नरकासुर — जो कंस का मित्र था — अत्याचार करता और असम (प्राग्ज्योतिषपुर) पर शासन करता था। नरकासुर ने 16,100 माताओं-बहनों को कैद कर रखा था। अंततः श्रीकृष्ण ने माता रुक्मिणी के साथ मिलकर नरकासुर का वध किया और मुरा नामक असुर को भी मारकर “मुरारी” नाम पाया।
भगवान की इस लीला की याद दिलाने वाला पराक्रम हमारे इस नायक ने भी किया। यह कथा मराठी लोगों को शायद कम ज्ञात हो।
जम्मू–कश्मीर के श्रीनगर (भारत का नंदनवन) में 8 अक्टूबर 1952 को उनका जन्म हुआ। जगह थी प्रसिद्ध पुरुश्यार शिव मंदिर के लिए मशहूर पुरुश्यार गाँव। पास में झेलम नदी पर “हब्बा कडाल” नामक पुल प्रसिद्ध था।
उनका कुलनाम राज़दान था – अर्थात योद्धा, ज़मींदार और पंडित। जन्म समय भी कृष्ण जैसा ही — रात 10 बजकर 10 मिनट, धनिष्ठा नक्षत्र। कहा जाता है कि इस नक्षत्र में जन्मे लोग अनुशासित और अत्यंत साहसी होते हैं। इसका प्रमाण 42 वर्ष बाद सुनील कुमार राजदान ने अपने शौर्य से दिया।
उनके दादा ब्रिटिश सेना में द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे और पिता भारतीय सेना की आर्टिलरी रेजिमेंट में थे। उनकी अंतिम पोस्टिंग श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा में रही और सेवानिवृत्ति के बाद वहीं बस गए।
सुनील कुमार बचपन में पढ़ाई से ज्यादा गोटियाँ खेलने में मग्न रहते। एक बार पिता ने डांटते हुए थप्पड़ मार दिया। राजकुमार जैसे सम्मानित बेटे को सबके सामने मारना उन्हें अपमानजनक लगा। नाराज़ होकर वे यमुना किनारे चामुंडा देवी मंदिर पहुँचे और वहीं अध्यात्म में रमने लगे।
मंदिर के पास ही सेना अधिकारियों का गोल्फ क्लब था, जहाँ उनका परिचय सेना अधिकारियों से होने लगा। परंतु स्वयं का झुकाव गणित की पढ़ाई और अध्यात्म में था। गणित की पढ़ाई करते हुए वे अक्सर लाइब्रेरी में समय बिताते। वहीं एक सहपाठी सीडीएस (कंबाइंड डिफेंस सर्विसेस) परीक्षा का फॉर्म भर रहा था और मजाक में सुनील से कहा कि “यह तुम्हारे बस की बात नहीं, तुम गणित के प्रोफेसर ही बनो।”
अपमानित होकर सुनील ने जिद में फॉर्म भरा, तैयारी की और सफल हुए। वही सहपाठी फेल हुआ और बाद में जब पास हुआ तो सुनील का जूनियर बन गया।
सन 1972 में, मात्र 22 वर्ष की आयु में सुनील कुमार भारतीय सेना में अधिकारी बने। उन्हें “पैराशूट रेजिमेंट स्पेशल फोर्सेस” (Para SF) में जाना पड़ा — जो सबसे कठिन प्रशिक्षण वाली इकाई है। “मरून बेरेट” (विशिष्ट कैप) पाना सैनिक का सपना होता है, पर इसे कमाना पड़ता है।
कठोर परीक्षा में 20–25 किलो का बोझ लेकर 20 किलोमीटर जाना और वापस आना होता था। मई-जून की तपती दोपहरी में यह कराना असंभव सा था। उनके कंधे छिल गए, खून बह निकला, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अध्यात्म और अष्टावक्र गीता का स्मरण करते हुए उन्होंने दर्द सहन किया और समय से पहले कार्य पूरा किया।
कमांडर प्रभावित हुए, उन्हें सम्मान के साथ मरून बेरेट दी गई। यह उनकी पहली बड़ी उपलब्धि थी।
आगे चलकर उन्होंने मणिपुर में आतंकवाद-रोधी अभियान में शौर्य दिखाया, कैलाश पर्वत अभियान में हिस्सा लिया, बर्फ़ीले तूफ़ान में दबे सैनिकों को गणितीय गणना से खोजकर बचाया।
शूटिंग प्रतियोगिताओं में अव्वल रहे, “चेटवुड कप” जीता। योग, तैराकी और दौड़ में वे हमेशा आगे रहते।
काश्मीर में सेवा करते हुए उन्हें स्थानीय भाषाएँ व रीति-रिवाजों की गहरी जानकारी थी। वे वेश बदलकर स्थानीय नागरिक जैसे घुलमिल जाते और गुप्त सूचनाएँ हासिल करते।
6 अक्टूबर 1994 को, जब वे साथियों संग स्थानीय वेश में घूम रहे थे, तभी एक स्वास्थ्यकर्मी ने उन्हें बताया कि उसके गाँव (दमाल हाजीपुर) में हिजबुल मुजाहिद्दीन और अन्य आतंकी पिछले एक महीने से 14 युवतियों को बंधक बनाकर उनका शोषण कर रहे हैं। उसकी बेटी भी उन्हीं में थी।
सुनील कुमार के हृदय में यह बात तीर की तरह लगी। नवरात्रि के दिन थे, उनका कठोर उपवास चल रहा था। उन्हें माँ की शिक्षा याद आई कि स्त्रियों का सम्मान हर पुरुष का कर्तव्य है।
उन्होंने तुरंत अपने वरिष्ठ अधिकारियों से अनुमति ली और 7 अक्टूबर को योजना बनाई।
8 अक्टूबर – उनके जन्मदिन के दिन – यह विशेष अभियान शुरू हुआ। दो अधिकारी, 24 जेसीओ और कमांडोज़ का दस्ता उनके साथ निकला।
गाँव की ओर बढ़ते हुए शाम हो गई। मेंढपाले से सूचना मिली कि एक चार मंज़िला मकान में आतंकी डेरा जमाए हैं और चौकीदार चौथी मंजिल पर रहता है।
सैनिकों ने गाँव को घेरा। सुनील कुमार को घी की महक आई। स्थानीय लोग सरसों के तेल का इस्तेमाल करते थे, घी नहीं। इसका मतलब अंदर पाकिस्तानी आतंकी ही थे।
और फिर शुरू हुआ अभियान…
शौर्यगाथा – भाग २
रात के दस बजकर दस मिनट हो चुके थे… वही समय जब साहब का जन्म हुआ था। और तारीख भी आठ – यानी जैसे जन्माष्टमी की रात! कश्मीर के घरों की संरचना को ध्यान में रखकर भारतीय सैनिकों को कार्रवाई की ट्रेनिंग दी जाती है। छह में से दो सैनिक बाहर रहे, दो दूसरी तरफ़ से ऊपर की मंज़िल पर गए और दो जवान साहब के साथ सीधे भीतर दाख़िल हुए। सभी ने काले कपड़े से चेहरा ढक रखा था, केवल आंखें खुली थीं।
राइफलें तैयार कर साहब और चार जवान घर की ओर बढ़े। अंदर से महिलाओं की धीमी बातें सुनाई देने लगीं। साहब निचली मंज़िल के रसोईघर की खिड़की पर पहुंचे। आतंकियों को अंदाज़ा भी नहीं था कि भारतीय सेना इस तरह उनके अड्डे तक पहुंच जाएगी। वे ऊपर की मंज़िल पर आराम से बैठक कर रहे थे।
रसोई में एक महिला आतंकियों के लिए ऑमलेट बना रही थी। साहब खिड़की से अंदर घुसे और धीरे से उससे कुछ पूछा। उसे लगा यह भी कोई आतंकी ही है। उसने झुंझलाकर कहा – “काम तुम ही बताते हो और पूछते भी हो कि क्या कर रही हूँ?” तब साहब ने विशेष लहज़े में उसे पहचान दिलाई और काज़ीगुंड के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के कर्मचारी का हवाला दिया। तब जाकर वह और अन्य महिलाएँ बाहर की ओर भागीं। सैनिकों ने उन्हें खिड़की से एक-एक करके बाहर निकाला।
उनमें से चौदह वर्षीय एक लड़की भागते समय आतंकियों को गालियां देती रही। क्यों न दे? उन सब बहनों ने महीने भर से अधिक समय तक बलात्कार सहा था!
यह शोर सुनकर आतंकी सतर्क हो गए। तब तक दो सैनिक ऊपर की सीढ़ी पर पहुंच चुके थे। अंधेरे में, एक विशालकाय छह फ़ुट से भी ऊँचा आतंकी पहरा दे रहा था। अचानक सैनिकों की लाल-लाल आंखें देख वह घबरा गया। उसने उछलकर सिर छत से टकराया और चीखने लगा – “जिन्न… जिन्न!”
हमारे सैनिक भी उसकी ऊंचाई देखकर चौंक गए। शोर सुनकर साहब के साथ आए दो जवान बाहर निकले। अब साहब अकेले कमरे में रह गए। इतने में दो आतंकी सीढ़ियों से नीचे उतरे। साहब ने कमरे का दीया बुझा दिया। एक पर झपटकर उसकी राइफल छीनी, साथ वाले की राइफल भी हथिया ली और दोनों के सिर पर प्रहार किया। गिरते ही उन्हें गोली मार दी।
लेकिन खतरा टला नहीं था। एक और आतंकी नीचे आता दिखा। साहब ने उसे भी गोली मारी। वह घायल होकर गिर पड़ा। साहब उसकी राइफल उठाने आगे बढ़े, तभी उसने मरे होने का नाटक करते हुए अचानक गोली चला दी। सीधी साहब के पेट में लगी – नऊ-दस गोलियां, आंतें फाड़ती हुई रीढ़ तक जा पहुँचीं!
साहब ने उसी हालत में उसे भी ढेर कर दिया। उनकी आंतें बाहर आने लगीं। साहब ने अपना पगड़ी खोलकर आंतों को भीतर ठूंसा और कसकर बांध दिया। फिर दोनों हाथों के सहारे रेंगते हुए कमरे से बाहर आए।
बाहर सैनिकों ने समझा साहब शहीद हो गए, और उन्होंने घर पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। साहब ने तुरंत संदेश भेजकर गोलीबारी रुकवाई। तब तक खून बह रहा था, लेकिन साहब ने हार नहीं मानी। उन्होंने सैनिकों से स्थानीय दवा दुकान से ग्लूकोज़ मंगवाया और सिगरेट लाइटर की रोशनी में खुद ही सलाईन चढ़ा लिया!
पहाटे चार बजे तीन आतंकी भागने लगे। साहब ने कश्मीरी लहज़े में आवाज़ लगाई – “उधर मत जाना, इंडियन आर्मी वाले हैं… इस तरफ़ आ जाओ भाईयों!”
आतंकी धोखा खा गए और पास आ गए। साहब ने उन्हें बंदी बना लिया।
सुबह तक छह आतंकी मारे गए और तीन पकड़े गए। चौदह महिलाएँ सुरक्षित बाहर निकाली गईं। भारी मात्रा में हथियार, गोला-बारूद और विस्फोटक बरामद हुए।
लेकिन साहब की हालत गंभीर थी। उनका नौ फुट लंबा आंत का हिस्सा निकालना पड़ा। रीढ़ की हड्डी टूट जाने से डॉक्टरों ने साफ कह दिया – अब कभी चल नहीं पाएंगे।
एक ओर परिवार – पत्नी और दो छोटे बेटे, दूसरी ओर अधूरी रह गई फौजी ज़िंदगी। लेकिन साहब ने हार नहीं मानी। महीनों तक इलाज चला। बाद में पुणे भेजे गए। आर्थिक संकट भी था, लेकिन साहब ने किसी से मदद नहीं ली।
देश ने उनके शौर्य के लिए उन्हें कीर्ति चक्र प्रदान किया। उनकी धर्मपत्नी मंजू राझदान ने कठिन समय में उनका साथ निभाया। बेटा ईशान सेना में अफसर बना और पार्थ डॉक्टर।
व्हीलचेयर पर होने के बावजूद साहब ने सेना की सेवा जारी रखी। उन्हें ब्रिगेडियर और बाद में मेजर जनरल तक पदोन्नति मिली। वे भारतीय सेना के पहले व्हीलचेयर पर कार्यरत मेजर जनरल बने।
उन्होंने कश्मीर के युवाओं को सेना में भर्ती के लिए प्रेरित किया। हजारों युवकों को सेना में भेजा। उनका शिष्य लेफ्टिनेंट फ़ैयाज़ आतंकवाद विरोधी अभियान में शहीद हुआ।
कश्मीर का एक दुकानदार एक दिन उनके पास आया और बोला – “साहब, आपने हमारी इज्ज़त बचाई है।” और सबसे महंगी शॉल उनके कंधे पर डाल दी।
आज मेजर जनरल सुनील कुमार (एस.के.) राझदान साहब दिव्यांगों और जवानों के लिए प्रेरणा हैं।
🚩 इस जन्माष्टमी पर इस “कृष्ण” को शत-शत नमन।
जय हिंद!