मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ (गीता १०-३५)
आकाश में तारों के मध्य जिस मार्ग पर सूर्य गति करता प्रतीत होता है उसे क्रान्तिवृत्त (ecliptic) कहते हैं जो पृथ्वी की कक्षा का आकाश पर पात है। क्रान्तिवृत्त के उत्तर-दक्षिण में ९-९ अंश के विस्तार से बनी १८ अंश चौड़ी पट्टी को भचक्र (zodiac) कहते हैं। सौर मण्डल के अन्य ग्रह इसी पट्टी में पश्चिम से पूर्व की ओर गति करते दीखते हैं। पृथ्वी की विषुवत् रेखा का आकाश पर पात क्रान्तिवृत्त को जिन दो बिन्दुओं पर काटता है उन्हें संपात कहते हैं। २१ मार्च व २३ सितम्बर में सूर्य की स्थिति संपातों में होती है और तब पृथ्वी के दोनों ध्रुव सूर्य से समान दूरी पर होते हैं जिससे पृथ्वी पर सर्वत्र दिन-रात की अवधियाँ लगभग समान होती हैं (दिन ६-७ मिनट बड़ा होता है)। तब उत्तरी गोलार्ध में क्रमशः वसन्त व शरद् ऋतु होती है।
घूर्णन व परिक्रमण गतियों के अतिरिक्त पृथ्वी में एक और गति होती है जिसे अक्षीय डोलन कहते हैं। पृथ्वी का लगभग साढ़े तेईस अंश झुका हुआ अक्ष पूर्व से पश्चिम की ओर डोलन करता है। वर्तमान गति के आकलन के अनुसार एक डोलन प्रायः २६००० वर्षों का होता है। फलतः विषुवत् रेखा के आकाशीय पात की स्थिति परिवर्तित होती जाती है परिणामस्वरूप क्रान्तिवृत्त में संपात भी पूर्व से पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं। संपातों के पिछड़ने के कारण प्रति ७०-७१ वर्ष उपरान्त कोई ऋतु एक दिन पूर्व ही आरम्भ होने लगती है (२६०००वर्ष÷३६५=७१वर्ष) तदनुसार प्रायः २००० वर्षों के अन्तराल पर सभी ऋतुएँ एक मास (३०दिन) पूर्व ही आरम्भ होने लगती हैं (७०वर्ष×३०=२१००वर्ष)।
चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन (कौमार), कार्तिक, मार्गशीर्ष (अग्रहायण), पौष, माघ व फाल्गुन क्रमशः आने वाले चान्द्र मास हैं जिनके कारक तारे भचक्र पर क्रमशः पश्चिम से पूर्व की ओर पड़ते हैं। संपात पूर्व से पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं अर्थात् २००० वर्ष पूर्व किसी ऋतु का आरम्भ वर्तमान मास के पश्चात् आने वाले मास में होता था। यथा सम्प्रति फाल्गुन-चैत्र में वसन्त संपात पड़ता है तो २००० वर्ष पूर्व वह चैत्र-वैशाख में पड़ता था और उसके २००० वर्ष पूर्व वैशाख-ज्येष्ठ में पड़ता था आदि।
गीता में श्रीभगवान् कहते हैं कि “मैं मासों में मार्गशीर्ष हूँ तथा ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।” कुसुमानाम् आकर इति कुसुमाकरः। जिस ऋतु में सर्वत्र कुसुम दृश्य होते हैं वह कुसुमाकर है अर्थात् वसन्त। श्रीभगवान् के कथन परस्पर विरोधी नहीं हो सकते अतः यदि ऐसा माना जाय कि जिस समय ये कथन कहे गए उस समय मार्गशीर्ष मास में वसन्त संपात होता था तो सम्प्रति वसन्त संपात का मास फाल्गुन लेने पर मार्गशीर्ष से उसका अन्तर ९ मास का है तदनुसार उक्त कथन प्रायः १८००० वर्ष प्राचीन मानने होंगे। अब समस्या यह है कि पारम्परिक मान्यतानुसार श्रीकृष्णावतार प्रायः ५००० वर्ष पूर्व हुआ था तो क्या परम्परागत मान्यता भ्रामक है? इसका उत्तर जानने के लिए मासगणना की प्राचीन परम्परा को जानना अपेक्षित है। सम्प्रति वसन्त ऋतु के मास से मासगणना का आरम्भ होता है अतः चैत्र प्रथम मास है किन्तु प्राचीन काल में शरद् ऋतु के मास से मासगणना का आरम्भ होता था। जिस प्रकार ऋतुओं में वसन्त को श्रेष्ठ माना जाता था उसी प्रकार मासों में प्रथम मास को श्रेष्ठ माना जाता था जो शरद् ऋतु का होता था।
मार्गशीर्ष प्रथम मास था इसी कारण उसका एक नाम ‘अग्रहायण’ है। अग्रहायण शब्द से भी यही अर्थ प्रकट होता है (अग्र = प्रथम मास ; हायण = वर्ष)। सम्प्रति शरद् संपात का मास भाद्रपद लेने पर मार्गशीर्ष से उसका अन्तर ३ मास का है तदनुसार उक्त कथन प्रायः ६००० वर्ष प्राचीन हैं जो श्रीकृष्णावतार की प्राचीनता की परम्परागत मान्यता से मेल खाते हैं।
शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में
इष, ऊर्ज, रयि व पोष,
(क्वांर/आश्विन), (कार्तिक), (अग्रहायण/मार्गशीर्ष), (पौष) ?
इन चार को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है.
इष और ऊर्ज शरद ऋतु के मास हैं .
ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .
रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होगी.
पोष … पौष मास पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से .
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वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात् शब्द की बहुधा आवृत्ति है ।
नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है .
हो भी या नहीं भी ।
मित्र और वरुण
मित्र (सूर्य) , वरुण शतभिषा के अधिपति।
दोनों के वाहन मकर और मीन हैं। कुम्भ से भी नाता है और इनके अगस्त्य तथा वसिष्ठ नाम की दो सन्तानें भी हैं।
क्या आप यह बता सकते हैं कि सूर्य के कुम्भ राशिगत होने पर कब अगस्त्य उदित होते थे?
मार्गशीर्षे भवेन्मित्रः पौषे विष्णुः सनातनः ।
वरुणो माघमासे तु सूर्यः……
कूर्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के आदित्य का नाम मित्र है।
ऋग्वेदसंहिता के सप्तम मण्डल का छाछठवाँ सूक्त इन्हीं देवद्वय को समर्पित है।
पश्ये॑म श॒रदः॑ श॒तं जीवे॑म श॒रदः॑ श॒तं ॥
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कुम्भ शतभिषा
शतभिषज शतभिषक्
“मैत्रेण कृषन्ते । वारुणेन विधृता आसते।” — -तैत्तिरीयब्राह्मणम् ।
मित्र(अनुराधा) , वरुण (शतभिषक्)
मैत्रावरुण वसिष्ठ से अगस्त्य तक।
मित्र से वरुण तक की दूरी १०० अंश ।
सौ की सँख्या के कारण कौरवोत्पत्ति में कुम्भ का योग है।
सौ दिनों में तैयार होने वाली सस्य कौन सी हैं?
वर्षाकाल का वर्णन कब का है?
वरुण देवता का आधिपत्य शतभिषा से ज्येष्ठा तक की यात्रा संहिताओं में वर्णित है।
वैधृति से वरुण को सम्बद्ध किया गया है।
संवत्सर की ठीक ठीक गणना, नियमन वरुण द्वारा होता था।
वैधृत इन्द्रः।(भा.पु.)
भागवते। ८। १। २९।
“देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप।
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा॥”
वैधृत्ये नगरेषु च ३९( अथर्ववेदे कौशिकसूत्रे चतुर्दशोऽध्याये )
जब सूर्य तथा चन्द्र एक ही अयन में हों तथा क्रान्तिसाम्य हो एवं दोनों के भोगांशों का योग ३६०° (०°) हो तब वैधृति नामक पात की सृष्टि होती है।
व्यतीपातः प्रसिद्धो अयम् सञ्ज्ञाभेदेन वैधृतः|
पञ्चसंवत्सरात्मक युगगणना में व्यतीपात की भी गणना की गई है। (केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि की प्रस्तावना पृ.१३).
पात एवं अयन की गणनायें तथा आनयन लगधप्रोक्त कालज्ञान से भी पुरातन है।
#भारतीयज्योतिष
तुला – तराजू
आश्विन व कार्तिक मासों में सूर्य क्रमशः कन्या व तुला राशि में स्थित होता है। तुला राशि का नाम तुला रखे जाने के पीछे आकाश का सम विभाग है, उत्तर गोल तथा दक्षिण गोल । शरद इषुव से सूर्य दक्षिण गोल में प्रवृत्त हो जाते हैं।
आश्विन मास का एक नाम इष है तथा कार्तिक मास का नाम ऊर्ज है। इषम् अन्न को भी कहते हैं तथा इष धातु इच्छा अर्थ में भी है। इष का अर्थ होगा द्युलोक से वर्षा द्वारा कामनाओं की पूर्ति। ऊर्ज का अर्थ होता है वह ऊर्जा जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में गति करके द्युलोक तक पहुंच जाती है। इस पृथिवी पर जितनी ओषधियां विद्यमान हैं, वह सब ऊर्ज का रूप हैं। वैदिक साहित्य में ऊर्ज को रथंतर कहा गया है। रथंतर का अर्थ है – यह पृथिवी जो द्युलोक से वर्षा के रूप में सारी कामनाओं को प्राप्त करती है, द्युलोक को बदले में क्या देती है। कहा गया है कि यह देवयजन देती है।
पृथिवी से ऊर्ज के रूप में जो ऊर्जा द्युलोक को पहुंचती है, उसे धूम्र नाम भी दिया गया है। इसके कईं प्रकार कहे गए हैं। इसी तथ्य को कहने का दूसरा प्रकार यह है कि तुला का एक पक्ष अन्तर्मुखी चेतना है, एक बहिर्मुखी चेतना। इन दोनों की जहां संधि होती है, वहां तुला को स्थापित किया जाता है। वैदिक यज्ञ में दक्षिणाग्नि की स्थिति अन्तर्वेदी व बहिर्वेदी के मध्य में होती है। यह अन्तर्वेदी व बहिर्वेदी भी अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी चेतना की प्रतीक हैं।
शतपथ ब्राह्मण में इसे इस प्रकार से कहा गया है- अथ हैषैव तुला। यद्दक्षिणो वेद्यंतः। स यत्साधु करोति तदंतर्वेदि। अथ यदसाधु तद्बहिर्वेदि। तस्माद्दक्षिणं वेद्यंतमधिस्पृश्येवासीत। तुलायां ह वा अमुष्मिंल्लोक आदधति। यतरद्यंस्यति। तदन्वेष्यति। यदि साधु वाऽसाधु वेति। अथ य एवं वेद। अस्मिन् हैव लोके तुलामारोहति। अत्यमुष्मिँल्लोके तुलाधानं मुच्यते। साधुकृत्या हैवास्य यच्छति; न पापकृत्या। – मा.श. ११.२.७.३३
वृश्चिक राशि के बिच्छू के दोनों जबड़े ही तुला के पलड़े थे, जिन्हें नासमझ योरोपिअनों ने सम्पात के अनुसार छोड़कर नई आकृति कल्पित कर ली।
संवत्सरों का देश
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हमारे यहां कितने संवत्सर रहे? कहां कहां रहे? कितने प्रकार से रहे? कितने स्तर पर किन – किन पंचांग करने वालों ने अपनाए हैं और क्यों ? चैत्र की मान्यता कब आई? क्यों आई और कैसे आई ? चैत्र से गणना है और पहला मास है तो नया बरस क्यों बताया गया जबकि लगभग हर मास से भी कोई न कोई संवत् शुरू होता है ! गीताजी में मार्गशीर्ष को अग्रहायण क्यों कहा ? क्योंकि कभी इस महीने से साल की गणना होती। कृतिका, माघ से भी और श्रावण से भी! मासों के नाम कहां समान और कहां असमान हैं।
कभी डॉ. पुरुषोत्तमलाल तिवारी जी हमें यह समझाते थे फिर जब गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी की पुस्तक “भारतीय प्राचीन लिपिमाला” का संपादन किया तो चौंक गया! लगा कि भारत यदि सरिता के सींचन और ऋतुओं संबद्ध होने से वर्ष है तो सम श्रेणी सर से संवत्सरों, अब्दों का पालक प्रदेशों का देश! कलि अब्द से लेकर बजट वर्ष तक के नाम से यहां वर्ष हैं। राष्ट्रीय संवत् शक है।
मालवा, मेवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र आदि में श्रावणादि, कार्तिकादि से भी वर्ष चले हैं और आज तक चलन में हैं, महिलाएं बहुत अच्छे से जानती हैं। अग्रहायण से संवत्सर की गणना की स्मृति अभी भी संधान विधि और औषध सेवन से जुड़ी हुई है और घर घर में मान्य है। नर्मदा के इस और उस पार में संवत् बदले हैं, अष्टोत्तरी और विंशोत्तरी तय की है! जानते हैं न!
जब जब जिसका प्रभाव रहा और जैसा प्रचार रहा, वैसा साल माना और मनाया गया… आज भी ऐसा ही है न!
साल / सालि का मतलब धान्य, फसल होता है न। सब का नाता फसल से है, अकबर के काल में “फसली” ही लिखा गया तो माना गया कि साल का कोई नया प्रयोग हुआ जबकि बात फसल आधारित अवधि की थी…।
दैवज्ञजनों ने संवत ज्ञात करने, गणना करने की विधियां लिखी हैं और हर तरह की जानकारी रखने की सलाह दी है। सबसे बड़े संवत्सरविद् वराहमिहिर ने बृहत्संहिता (587 ई.) में क्या कहा :
तस्माद्राज्ञाधिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोsग्रणी:।
जयं यश: श्रियं भोगान् श्रेयश्च समभीप्सता।।
अर्थात्- जो वर्ष के प्रत्येक पक्ष के फलादि सम्बन्ध में चिंतनपूर्वक कथन का सामर्थ्य रखता हो और सर्वदृष्टि विद्वान हो, उनके सान्निध्य में रहना चाहिए, यदि हमें विजय, यश, समृद्धि, भोग और कल्याण की इच्छा हो, तो ऐसा अवश्य करना चाहिए, किसी के बहकाने से बचना चाहिए। (बृहत्संहिता 2, 26)
सभी को नए साल की कोटि-कोटि मंगलकामनाएं। भारत का कभी कोई आग्रह नहीं रहा, हम सब मानते हैं और कुछ भी नहीं मानते हैं… 🙂
आप सब मित्रों को नित्य बधाई। मंगल, बधाई तो जब मिले तब अच्छी, सबसे बड़ा निमित्त और प्रस्थान काल के लिए अति उत्तम सगुन है। सारे ही पुराण, शकुन शास्त्र इसकी पुष्टि कर रहे हैं :
मंगलाभिवर्धनवचनं नित्यं प्रशस्तम्।
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( चश्मा उतारो, फिर देखो यारो!
दुनिया नई है, चेहरा पुराना 🙂