सामग्री : स्फटिक शिवलिंग, पुत्रजीवा माला।
जिस व्यक्ति के घर में पुत्र न हो या पुत्र उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं हो रही हो अथवा संतान दीर्घायु नहीं होती हो तो उसके लिए यह प्रयोग महत्वपूर्ण है| इस प्रयोग को सम्पन्न करने से पुत्र यदि कहना नहीं मानता हो तो कहना मानने लगता है, वह आज्ञाकारी होता है। इस प्रकार के प्रयोग से गृहस्थ जीवन अनुकूल एवं सुखदायक भी बन जाता है।
यह प्रयोग श्रावण के प्रथम सोमवार को प्रारंभ होता है और चारों सोमवारों को यह प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार यह प्रयोग मात्र चार बार ही पूरे महीने में किया जाता है।
साधक को चाहिए कि वह श्रवण सोमवार के दिन संध्या प्रदोषकाल के समय स्नान कर पूर्व की तरफ मुंह कर बैठ जाए। सामने लकड़ी के तख्ते पर एक थाली में चावल से त्रिकोण जिसका मुंह ऊपर की ओर हो बनाकर उसके मध्य में स्फटिक शिवलिंग स्थापित करें, और एक भोजपात्र पर निम्नलिखित मंत्र के सामने रख दें और फिर इसी मंत्र की पुत्रजीवा माला से 11 मालाएं जपें। इसके बाद नर्मदेश्वर शिवलिंग व भोजपत्र को पवित्र स्थान पर रख दें। यही प्रयोग श्रावण महीने में प्रत्येक सोमवार को करें।
अंतिम सोमवार को जब प्रयोग पूरा हो जाए तो उस भोज-पत्र को चांदी या सोने के ताबीज में डालकर स्वयं धारण कर लें या पत्नी को पहना दें तो निश्चय ही मनोकामना पूर्ण होती है।
यदि कोई साधक किसी दूसरे के लिए प्रयोग करना चाहे तो सकंल्प ले कि ‘मैं यह प्रयोग अमुक व्यक्ति के लिए सम्पन्न कर रहा हूं’।
मंत्र
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ॐ नमो नारसिंहाय हिरण्यकशिपोर्वक्ष: स्थल विदारणाय त्रिभुवन व्यापकाय भूतप्रेत पिशाच डाकिनी कुलनाशाय स्तम्भोद भवाय समस्त दोषान हर-हर विष-विष पच पच मथ मथ हन हन फट हुं फट ठः एहि रूद्रौ ज्ञापयति स्वाहा।
यह महत्वपूर्ण प्रयोग है और यह ताबीज किसी भी अवस्था में अपवित्र नहीं होता।
सच्चा ध्यान
जब शिशु गर्भ में था और नाल (शरीर के नाभि-कमल स्थित एक नाड़ी होती है) से युक्त था, तब वह ध्यान-मुद्रा में आत्म-ज्योति का दर्शन करता रहता था, जो दिव्यानन्द से युक्त था, जिसकी अनुभूति में शिशु मस्त पड़ा रहता है, जिसको बाहय दृश्य दर्शन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। उसी ध्यान मुद्रा में ही शिशु की पैदाइश होती है, जिसके कारण आँखें बन्द रहती हैं और नाल जब कटवा दी जाती है तब आत्म-ज्योति से सम्बन्ध कट जाता है,
तब शिशु को परेशानी न हो या कष्ट न हो अथवा जीव उस ज्योति की खोज में शरीर छोड़कर न चला जाय, इसीलिए
प्रसूति-गृह में शिशु की उत्पत्ति से पूर्व ही ‘दीप’ जला दिया जाता है
शिशु जो ब्रह्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुआ दिव्यानन्द में मस्त था, वहीं अब नाल कट जाने से ब्रह्म-ज्योति का दर्शन होना तो बन्द हो जाता है, तब शिशु का जीव आत्म-ज्योति की तलाश में शरीर छोड़कर न चला जाय या विक्षिप्त न हो जाय, इसी को यमदूत का ले जाना या छूना कहा जाता है। यही कारण है कि दीप जलाकर शिशु को भरमाया जाता है कि ऐ शिशु ! मत घबराओ, जिस आत्म-ज्योति को देखते थे, देखो ! यह दीप-ज्योति वही ब्रह्म-ज्योति है ! इतना बड़ा पाखण्ड, धोखा, छल एवं फंसाहट शिशु के जीव के साथ करते हैं।
गर्भस्थ शिशु जब गर्भ में रहता है तो उसका सम्बन्ध ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म से रहता है और जब पैदा होता है,
तब भी नाल के माध्यम से ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध कायम रहता है, जिसके कारण शिशु की जिह्वा, जिह्वा मूल से ही ऊर्ध्वमुखी होकर कण्ठ-कूप में प्रवेश कर ‘अमृत-पान’ करती रहती है। यही कारण है कि शिशु की जिह्वा उल्टी रहती है।
जब शिशु का नाल काट दिया जाता है, उसी समय ब्रह्म-ज्योति से उसका सम्बन्ध टूट जाता है, जिसके कारण जिह्वा को मुख में अंगुली डालकर कण्ठ-कूप से बाहर नीचे लाकर मुख में सामान्य रूप में कर दिया जाता है और कहा जाता है कि मुख के अन्दर कण्ठ से ‘लेझा’ निकाला गया है। यह उन लोगों को कौन समझाये कि ‘लेझा’ नहीं निकाला गया, बल्कि शिशु जो अमृत-पान कर रहा था, उसका उससे सम्बन्ध छुड़ा दिया गया है ताकि शिशु सांसारिक बनकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करे।
अमृत-पान वह क्रिया है जिसके लिए बहुत-बहुत से योगी जीवन भर ‘खेचरी मुद्रा’ की क्रिया का अभ्यास करते रहते हैं। यह सबसे कठिन मुद्रा मानी जाती है। योगियों की माता भी यही मुद्रा कहलाई है।
अमृत-पान से वंचित होने पर जो लोग उस समय उस स्थान पर उपस्थित रहते हैं, बार बार यह कहना प्रारम्भ कर देते हैं कि जल्दी मधु चटाओ, नहीं तो गला सूख जाएगा। झट से ‘मधु’ लाया और चटा दी। शिशु बेचारा क्या करे ?
उसको क्या पता कि पैदा होते ही मेरा जीवन धोखे, छल, पाखण्ड और मिथ्या भ्रम में डाला जा रहा है। अमृत-पान ही कर रहे हैं।
गर्भस्थ शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसका कान ‘एक विचित्र किस्म के ध्वनि अवरोधक पदार्थ’ रूप ‘जावक’ से बन्द रहता है, जिसके कारण बाहरी कोई ध्वनि या शब्द अन्दर नहीं पहुँच पाती है। गर्भ में नाल के माध्यम से शिशु ब्रह्म-ज्योति से सम्बंधित रहता है जिसके कारण अन्नाहार और जल के स्थान पर अमृत-पान करता रहता है। ब्रह्म के पास निरन्तर दिव्य-ध्वनियाँ होती रहती हैं, जिसको सुनते हुये शिशु मस्त पड़ा रहता है जो ‘अनहद्-नाद’ कहलाता है।
शिशु की नाल जब काट दी जाती है तो ब्रह्म से सम्बन्ध भी कट जाता है और तब दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देनी बन्द हो जाती हैं, जिसके स्थान पर माता-पिता या पारिवारिक सदस्य लोग शिशु को उन दिव्य ध्वनियों के स्थान पर नकली ध्वनियाँ थाली बजाकर कि ये वही दिव्य ध्वनियाँ हैं, सुनाते हैं। “सोम”
जब कोई सन्त-महात्मा फँसे हुये व्यक्ति का पुनः ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध जोड़ कर पारिवारिक, सामाजिक आदि बन्धन से मुक्त करते हैं तो कुछ स्वार्थी लोग, सन्त-महात्मा को ही ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरी आदि कहकर बदनाम करते हैं।