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दत्त की गाय

दत्त दत्त
दत्त की गाय,
गाय का दूध,
दूध की साय (मलाई),
मलाई का दही,
दही का छाछ,
छाछ का मक्खन,
मक्खन का घी,
घी की धार,
दत्त दत्त
दत्त की गाय।

दिगंबरा दिगंबरा
श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा!

हर गुरुवार को देवघर के सामने हाथ जोड़कर धीमी लय में, मन से “दत्त दत्त दत्त की गाय…” बोलने वाली अम्मा को चिरंजीव मोरू बचपन से देखता आया था। आज भी चिरंजीव मोरू अम्मा को वैसे ही देख रहा था।

और हर गुरुवार उसे दो ही सवाल सताते—
अम्मा यह स्तोत्र क्यों बोलती है?”
और क्या यह सच में कोई स्तोत्र है?”

“अब बस… आज मुझे अम्मा से पूछना ही है।” चिरंजीव मोरू ने मन में तय किया।

अम्मा की पूजा खत्म हुई। अम्मा ने दिए हुए मिश्री के दाने को मुंह में डालते हुए चिरंजीव मोरू पूछ बैठा—
“अम्मा, एक बात बताओ…”

“अम्मा से अंग्रेज़ी में मत बोलो!” मोरू ने अपने चिरंजीव को डांटा।
अम्मा ने हँसते हुए कहा—
“अरे वह सिनेमावाला बड़बड़ अंग्रेज़ी मुझे नहीं समझ आता, पर तू क्या बोलता है, इतना तो समझ ही लेती हूँ। बोल बेटा।”

“अम्मा, यह जो ‘दत्त दत्त दत्त की गाय’ तुम बोलती हो—यह कोई स्तोत्र है? बुरा मत मानना… पर मेरा मतलब यह कि रामरक्षा या अथर्वशीर्ष जैसे स्तोत्रों में हम भगवान से प्रार्थना करते हैं। लेकिन इसमें तो बस फूड प्रोसेसिंग है—दूध, मलाई, दही, छाछ, मक्खन… इसमें भक्ति कहाँ है? क्या मैं गलत सोच रहा हूँ?”

“अरे कैसी-कैसी शंका हैं तेरी! बिलकुल बेकार की बात!” मोरू झुँझला गया।

“अरे रहने दे मोरू… उसे पूछने दे। ये सवाल तो तुझे भी कभी न कभी पूछने चाहिए थे। बचपन से तू भी तो सुनता आया है।”
मोरू के बाबा बोले और फिर सौ. मोरू से बोले—“तुम बताओगी या मैं बताऊँ?”

“मैं ही बताती हूँ,” मोरू की माँ बोली, “मेरी माँ ने मुझे जो अर्थ बताया, वही मैं तुम्हें बताती हूँ…

गाय दत्तात्रेय को अत्यंत प्रिय है।
गाय का अर्थ है—करुणा, समृद्धि, सात्विकता।

“असल में गाय का मतलब है पालन-पोषण—क्योंकि वह दूध देती है।”
मोरू के बाबा ने बीच में कहा,
“तो ‘दत्त दत्त दत्त की गाय’ कहना मतलब—दत्त की कृपा और सुरक्षा माँगना।”

“ठीक है, यह तो समझ में आया।
लेकिन दूध, मलाई, दही, छाछ, मक्खन और घी—इनका क्या?”
चिरंजीव मोरू अपनी बात पर टिका रहा।

अम्मा समझाने लगी—
“दूध से घी तक का सफर दूध, दही, छाछ का सफर नहीं है… यह भक्त का सफर है, साधक का सफर है।”

“कुछ समझा नहीं अम्मा…” चिरंजीव मोरू बोला।

अम्मा ने समझाया—
पहला—दूध।
भक्त के मन में सबसे पहले आती है—श्रद्धा।
दूध जैसे निर्मल, वैसे ही श्रद्धा भी निर्मल।”

मोरू की माँ बोली—
“फिर इस श्रद्धा की सतह पर जमती है मलाई — यानी श्रद्धा से जन्मे हुए सद्विचार।”

“हाँ, समझ गया… आगे?” चिरंजीव बोला।

“श्रद्धा और सद्विचार मिलकर बनते हैं—सदाचार रूपी दही। समझ रहे हो?”

“हाँ, दही तक पहुँच गया मैं… आगे बताओ।”

“दही से बनता है छाछ।
छाछ हल्का होता है—
तो सदाचार रूपी दही से जब छाछ तैयार होता है, तो मन का भारीपन, अहंकार—सब हल्का होने लगता है।”

“बहुत रोचक लग रहा है अम्मा… आगे?”

“सोचो, छाछ को मथे तो ऊपर क्या आता है?”

“मक्खन!” चिरंजीव मोरू बोला।

“सही!
अहंकार रहित मन में मंथन (चिंतन) होने पर जो निकलता है—वह है सार्थकता।”

“सार्थकता मतलब—meaningfulness of life।”
मोरू के बाबा बोले।

“और मक्खन को गर्म करो तो?”

“घी बनता है!” चिरंजीव बोला।

“सही कहा।
वही—सार्थकता की अंतिम अवस्था है घी रूपी आत्मशुद्धि।
जैसे स्नान शरीर को शुद्ध करता है, वैसे आत्मशुद्धि मन को।”

“हाँ अम्मा… अब मुझे समझ आया कि यह फूड प्रोसेसिंग नहीं है।
यह तो भगवान तक पहुँचने की बीट-बाय-बीट यात्रा है।
अद्भुत! धन्यवाद अम्मा, धन्यवाद बाबा!”

मोरू के पिता ने निष्कर्ष बताया—
“जैसे दूध घी बनने तक कई चरणों से गुजरता है,
वैसे ही साधक दत्तात्रेय की कृपा और मार्गदर्शन में
अशुद्धि से शुद्धि,
आरंभ से पूर्णता
की ओर बढ़ता है।”

फिर मुस्कुराते हुए बोले—
“और जैसे घर में रोज भोजन पर घी की धार डाली जाती है,
वैसे ही दत्त की कृपा की धार
आप सब पर बनी रहे।”

“और जो कल मार्केट नीचे गया था, वह भी दत्त कृपा से आज ऊपर जाए!”
मोरू बोल पड़ा।

“अरे गधे…” कहते हुए बाबा ने उसे अखबार का गोला मार दिया—
“आज दत्त जयंती है। कुछ मीठा-मीठा बनाओ…
और अभी मुझे एक कप चाय दे दो!”

अंत में लेखक कहता है—
जैसे हम दत्त की पालखी उठाते हुए कुछ समझते हैं,
वैसे ही आज हमें भी यह अर्थ समझ में आया,
यह स्वीकार करते हुए—
निकल पड़े हम दत्त की पालखी लेकर…”

दत्त जयंती
गुरुवार, मार्गशीर्ष शुक्ल १४,
शके १९४७

दत्त पूर्णिमा: श्रद्धा, ज्ञान और करुणा का पर्व

श्री दत्त प्रसन्न हैं!

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