जय जय ठाकुर श्रीहरिदास नाममय देह
माया जाल से रक्षा करने वाले को प्रणाम।
श्री हरिदास ठाकुर जी अब अत्यंत वृद्ध हो गए हैं, फिर भी प्रतिदिन तीन लाख हरिनाम का जप करते हैं। एक दिन गोविंद, हरिदास जी को श्रीजगन्नाथ जी का महाप्रसाद देने गए, तो देखा कि वे लेटे-लेटे धीरे-धीरे हरिनाम कर रहे हैं। गोविंद ने कहा – “हरिदास! उठिए, प्रसाद ग्रहण कीजिए।”
हरिदास जी उठे और बोले – “मेरी नाम संख्या अभी पूरी नहीं हुई है।” इतना कहकर उन्होंने प्रसाद की अवहेलना न हो, इसलिए एक चावल का दाना मुख में रखा और पुनः लेट गए।
हरिदास जी की ऐसी अवस्था सुनकर अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जी स्वयं पधारे और पूछा – “हरिदास, शरीर तो स्वस्थ है?”
हरिदास जी बोले – “प्रभु, शरीर तो ठीक है परंतु मन अशांत है, क्योंकि वृद्धावस्था के कारण मैं नाम जप की निर्धारित संख्या पूरी नहीं कर पाता हूँ।”
यह सुनकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो गया, परंतु उन्होंने अपने भावों को छिपाते हुए कहा – “हरिदास, तुम तो सिद्ध महापुरुष हो, लोक कल्याण हेतु तुम्हारा अवतरण हुआ है। अब वृद्ध हो गए हो तो नाम की संख्या थोड़ी कम कर दो।”
अपनी प्रशंसा सुनकर हरिदास जी महाप्रभु के चरणों में गिर पड़े और बोले – “प्रभु, मैं अत्यंत तुच्छ हूँ, आपकी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ।”
चैतन्य महाप्रभु, हरिदास जी की विनम्र वाणी सुनकर, उनके विषादपूर्ण मुख की ओर नयन अश्रुपूरित किए देर तक देखते रहे।
हरिदास जी ने महाप्रभु से कहा – “प्रभु, मेरी एक विनती है। यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो कृपया मुझे आपसे पहले शरीर त्याग करने की अनुमति दें। प्रभु, मैं आपका वियोग सहन नहीं कर पाऊँगा।”
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु का हृदय अत्यंत दुखी हो गया। वे अश्रुपूरित नेत्रों और रुंधे कंठ से बोले – “हरिदास, यदि तुम चले जाओगे तो मैं कैसे रहूँगा? क्यों मुझे तुम्हारे साथ के सुख से वंचित करना चाहते हो? तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा और कौन है?”
हरिदास जी ने कहा – “प्रभु, असंख्य महापुरुष आपकी लीलाओं के सहभागी हैं। मेरे जैसे शूद्र जीव के चले जाने से आपकी कोई हानि नहीं होगी।” इतना कहकर वे रोने लगे और महाप्रभु के श्रीचरणों को पकड़ लिया। सिर चरणों में रखकर, कांपते स्वर में बोले – “मैं आपसे विनती करता हूँ कि मैं आपके चरणकमलों को अपने हृदय पर धारण कर, आपके मुखारविंद को देखते-देखते, मधुर नाम लेते हुए, प्राण त्याग सकूं। प्रभु, क्या आप मुझे यह वरदान देंगे?”
महाप्रभु ने एक गहरी साँस ली और धीरे से बोले – “हरिदास, तुम जो इच्छा करोगे वह श्रीकृष्ण अवश्य पूर्ण करेंगे। परंतु मैं तुम्हारे बिना कैसे रह सकूँगा?” इतना कहकर महाप्रभु मौन हो गए…
थोड़ी देर बाद वे उच्च स्वर में बोले – “हरिदास, हरिदास!” और उनसे लिपटकर रोने लगे। उनके नेत्रों के अश्रुओं से हरिदास जी का वक्ष भीग गया और उनके स्पर्श से हरिदास जी का समस्त शरीर पुलकित हो उठा।
हरिदास जी आश्वस्त होकर बोले – “कल प्रातः श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन कर इस अधम को भी दर्शन दीजिए।”
महाप्रभु समझ गए कि हरिदास जी कल ही अपनी इच्छा पूर्ण करना चाहते हैं। अगले दिन प्रातःकाल श्री चैतन्य महाप्रभु, श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन कर स्वरूप दामोदर, राय रामानंद, सार्वभौम भट्टाचार्य, वक्रेश्वर पंडित आदि भक्तों को साथ लेकर हरिदास जी की कुटिया में पधारे। भक्तों ने सोचा – आज महाप्रभु हरिदास जी के पास जा रहे हैं, अवश्य ही कोई विशेष लीला होगी।
कुटिया में पहुँचते ही महाप्रभु ने पूछा – “हरिदास, क्या समाचार है?”
हरिदास जी ने उत्तर दिया – “दास प्रस्तुत है।” कहते-कहते उन्होंने महाप्रभु और भक्तों को प्रणाम किया।
शारीरिक दुर्बलता के कारण हरिदास जी खड़े नहीं हो पा रहे थे। महाप्रभु ने उन्हें बैठाया और भक्तों सहित हरिनाम संकीर्तन और नृत्य करने लगे। स्वरूप और वक्रेश्वर नृत्य कर रहे थे, स्वयं महाप्रभु भी नृत्य कर रहे थे, रामानंद और सार्वभौम भट्टाचार्य गान कर रहे थे। हरिदास जी उन सबकी चरण धूलि लेकर अपने शरीर पर मल रहे थे।
फिर हरिदास जी धीरे-धीरे लेट गए और धीरे-धीरे महाप्रभु के चरणकमल अपने हृदय पर धारण किए। महाप्रभु के चरणकमल हाथों से पकड़कर, अपनी दृष्टि प्रभु के मुखारविंद पर स्थिर करते हुए, प्रेमाश्रुओं की धारा बहाते हुए, ‘हा गौरांग’ कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए।
भक्तगण यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। पहले तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि हरिदास जी ने स्वेच्छा से शरीर त्याग किया है। एक भक्त की मृत्यु पर हुई विजय और महिमा की अनुभूति ने महाप्रभु के हृदय को आनंद और पीड़ा दोनों से भर दिया। जिस भक्त पर उन्हें गर्व था, जिसके दर्शन से वे तृप्त होते थे, उसके वियोग से वे अत्यंत शोकग्रस्त हो उठे।
महाप्रभु ने हरिदास जी के पार्थिव शरीर को गोद में लेकर नृत्य आरंभ किया। उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे। उनके लिए भक्त ही सबकुछ हैं; हर एक भक्त के प्रति उनका प्रेम अनंत है।
नृत्य के उपरांत महाप्रभु ने हरिदास जी की स्तुति कर अपने हृदय की पीड़ा को शांति दी। तत्पश्चात वे हरिदास जी के शरीर को समुद्र तट पर ले गए। महाप्रभु आगे-आगे नृत्य करते जा रहे थे और उनके पीछे-पीछे भक्तगण कीर्तन करते हुए चल रहे थे।
समुद्र तट पर जाकर उन्होंने हरिदास जी के पार्थिव शरीर को स्नान कराया और बोले – “आज से यह समुद्र महातीर्थ हो गया।” तत्पश्चात बालू में समाधि दी गई। माला, चंदन अर्पण कर चरणामृत ग्रहण कर भक्तों ने हरिदास जी को समाधि में शयन कराया। महाप्रभु ने स्वयं अपने हाथों से समाधि पर बालू डाली।
भक्तगण ‘हरि बोल, हरि बोल’ की ध्वनि के साथ समाधि की परिक्रमा कर नृत्य-कीर्तन करते रहे। फिर सबने समुद्र स्नान किया और पुनः समाधि की परिक्रमा कर श्रीजगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पहुँचे। वहाँ महाप्रभु ने पंसारियों से भिक्षा देने का अनुरोध किया। पंसारियों ने डलिया भर-भर कर भिक्षा अर्पित की।
महाप्रभु को स्वयं भिक्षा करते देख भक्त अत्यंत दुःखी हुए और निवेदन किया – “प्रभु, कृपा कर आप अपने स्थान पर पधारें, हम भिक्षा ले आएंगे।”
महाप्रभु ने स्वरूप गोस्वामी की ओर देख कर उच्च स्वर में रोते हुए जैसे कहा हो – “प्रिय हरिदास के उत्सव के लिए भिक्षा करने से रोककर तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो।” प्रभु को दुखी मन से अपने स्थान लौटना पड़ा।
भव्य महोत्सव सम्पन्न हुआ।
महाप्रभु ने स्वयं अपने हाथों से प्रसाद परोसा। फिर भक्तों संग स्वयं भी प्रसाद लिया और हरिदास जी के गुणों का कीर्तन करते रहे।
महोत्सव समाप्त होने पर महाप्रभु ने सभी को वरदान दिया –
“हरिदास जी के देहत्याग का जो भी दर्शन करेगा, नृत्य-कीर्तन करेगा, उनकी समाधि में बालू डालेगा और इस महोत्सव में महाप्रसाद पाएगा – उसे शीघ्र ही श्रीकृष्ण की प्राप्ति होगी।”