श्रीमहादेव जी ने पार्वतीजी के अनुनय पर उन्हें भगवान् के मत्स्य-कुर्मादि अवतारों का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनाया। इसी प्रसंग में उन्होंने पार्वती को समुद्रमंथन की कथा सुनाते हुए भगवान् विष्णु की नाम-महिमा का प्रकाशन इस प्रकार किया-
शुद्ध एकादशी तिथि को समुद्र का मंथन आरम्भ हुआ। उस समय लक्ष्मी के प्रादुर्भाव की अभिलाषा रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरों ने भगवान् लक्ष्मीनारायण का ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्त में सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, जो बहुत बड़े पिण्ड के रूप में था। वह प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भय से पीड़ित हो भागने लगे। यह देख मैंने उन सबको रोककर कहा-
‘देवताओं ! इस विष से भय न करो। इस कालकूट नामक महान् विष को मैं अभी अपना आहार बना लूँगा।’ मेरी बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे चरणों में पड़ गये और ‘साधु-साधु’ कहकर मेरी स्तुति करने लगे। उधर मेघ के समान काले रंगवाले उस महाभयानक विष को प्रकट हुआ देख मैंने एकाग्र चित्त से अपने हृदय में सर्वदुःखहारी भगवान् नारायण का ध्यान किया और उनके तीन नामरूपी महामन्त्र का भक्तिपूर्वक जप करते हुए उस भयंकर विष को पी लिया। सर्वव्यापी श्रीविष्णु के तीन नामों के प्रभाव से उस लोकसंहारकारी विष को मैंने अनायास ही पचा लिया। उन्होंने आगे कहा-
अच्युतानन्तगोविन्द इति नामत्रयं हरेः।
यो जपेत्प्रयतो भक्त्या प्रणवाद्यं नमोऽन्तकम्।।
तस्य मृत्युभयं नास्ति विषरोगाग्निजं महत्।
नामत्रयमहामन्त्रं जपेद् यः प्रयतात्मवान्।।
कालमृत्युभयं चापि तस्य नास्ति किमन्यतः।।
(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड- १६० / १९ – २१)
अच्युत, अनन्त और गोविन्द- ये हरि के तीन नाम हैं। जो एकाग्रचित्त हो इनके आदि में ‘प्रणव’ और अन्त में नमः (ॐ अच्युताय नमः, ॐ अनन्ताय नमः, ॐ गोविन्दाय नमः – इस रूप में) भक्तिपूर्वक जप करता है, उसे विष, रोग और अग्नि से होनेवाली मृत्यु का भय नहीं प्राप्त होता। जो इस तीन नामरूपी महामन्त्र का एकाग्रतापूर्वक जप करता है, उसे काल और मृत्यु से भी भय नहीं होता, फिर दूसरों से भय होने की बात ही क्या है |