कल देगलूरकर सर के घर पर एक अद्भुत पेंटिंग देखा, जो उन्हें प्रसिद्ध चित्रकार वासुदेव कामत से उपहार स्वरूप मिला था। कल से यह पेंटिंग मेरे दिमाग से हट नहीं रहा है। यह पेंटिंग उस घटना पर आधारित है, जिससे संस्कृत में पहली छंदबद्ध कविता और इसके साथ ही रामायण जैसे महाकाव्य का जन्म हुआ था। वासुदेव कामत जैसे सिद्धहस्त चित्रकार की कूची से बनी इस पेंटिंग में क्रौंचवध की घटना को चित्रित किया गया है।
मूल कहानी इस प्रकार है: गंगा की एक सहायक नदी तमसा के तट पर ऋषि वाल्मीकि का आश्रम था। एक बार भोर के समय अपनी दैनिक क्रियाएँ समाप्त करने ऋषि वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने प्रेममग्न एक सारस पक्षी के जोड़े को देखा। ये पक्षी अपने जीवन में एक ही साथी चुनते हैं और उसके प्रति निष्ठावान रहते हैं। इनका प्रेमालाप नृत्य देखने योग्य होता है। नर और मादा सारस पक्षी लंबे समय तक अपने और एक-दूसरे के चारों ओर घूमकर नृत्य करते हैं। भोर की उस धुंधली, नीली रोशनी में ऋषि वाल्मीकि ने उनका नृत्य देखा होगा और उसकी सुंदरता में खो गए होंगे।
लेकिन तभी एक शिकारी का तीर तेजी से आया और एक सारस पक्षी को मार गिराया। अपने साथी को पाँव ऊपर करके तड़पते हुए देखकर मादा सारस पक्षी करूण विलाप करने लगी। यह देखकर ऋषि वाल्मीकि का कवि हृदय द्रवित हो गया और उनके मुख से अनायास शब्द फूटे:
‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।’
अर्थात, “हे निषाद, तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी क्योंकि तूने इस प्रेम में मग्न सारस जोड़े को अकारण अलग कर दिया।”
करुणा से जन्मे ये संस्कृत के पहले छंद थे। अपने मुख से निकले इस श्लोक को सुनकर ऋषि वाल्मीकि ने भारद्वाज से कहा:
‘पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।।’
अर्थात, “यह श्लोक शोक से उत्पन्न हुआ है। इसके चार चरण हैं, हर चरण में समान अक्षर हैं और एक स्वाभाविक लयबद्धता है।”
करुणा से जन्मी इस कविता को सुनकर साक्षात ब्रह्माजी ने ऋषि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ की उपाधि दी और कहा कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की कथा को छंदबद्ध काव्य के रूप में संसार को सुनाएँ, जो तब तक अमर रहेगी, जब तक इस पृथ्वी पर नदियाँ बहेंगी और पर्वत खड़े रहेंगे।
‘यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।।’
इस सुंदर और करूण कथा के निर्णायक क्षण को यह चित्र दर्शाता है। भोर का नीला, धुंधला और अस्पष्ट प्रकाश फैला हुआ है, लेकिन आकाश अभी भी काला है। तमसा नदी का प्रवाह भी नीला और स्वप्नवत प्रतीत होता है। तीर से घायल सारस पक्षी पाँव ऊपर करके पानी में गिरा पड़ा है, उसकी छाती पर रक्त का लाल धब्बा है। पास ही मादा पक्षी चोंच खोलकर विलाप कर रही है। घायल पक्षी के पंख हवा में उड़ते हुए नीचे गिर रहे हैं। इस अत्यंत करूण पृष्ठभूमि में सफेद वस्त्रधारी तपस्वी ऋषि वाल्मीकि अर्घ्य देते-देते ठिठक गए हैं। उनका चेहरा वेदना से भरा हुआ है। इस वेदना के पीछे सात्विक क्रोध भी है और इसी भावना से प्रेरित होकर संसार का पहला काव्यमय शोक श्लोक रूप में प्रकट हो रहा है।
ऋषि वाल्मीकि के चेहरे की प्रत्येक रेखा मानो बोल रही है। उनका दुख उस भोर के नीले आकाश जितना विशाल और सर्वसमावेशी है। चित्रकार वासुदेव कामत अपने पोर्ट्रेट्स के लिए विश्वप्रसिद्ध हैं। किसी व्यक्ति का चित्र बनाते समय केवल ‘समानता’ ही पर्याप्त नहीं होती।
व्यक्ति का चित्र तकनीकी दृष्टि से निर्दोष होना चाहिए, लेकिन उस क्षण की भावनात्मक स्थिति को पकड़ पाना आसान नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चित्र को देखने वाले के हृदय को सीधे छूने वाला अनुभव प्रदान करना, जो यह तय करता है कि चित्र अच्छा है या उत्कृष्ट। क्रौंचवध के इस चित्र में ये तीनों तत्व खूबसूरती से समाहित हैं। यह चित्र और इसका प्रभाव लंबे समय तक मन में बना रहता है और इसे देखने वाले के हृदय को इस चित्र की अथाह करुणा छू जाती है |