चातुर्मास में वर्ष के चार महीने आते हैं
सावन, भादों, क्वार, कार्तिक।
(श्रावण, भाद्र,अश्विन, कार्तिक-मास)
एक दण्डी तथा त्रिदंडी सभी के लिए ही चातुर्मास व्रत करणीय है अर्थात एक दंडी -ज्ञानीगण तथा त्रिदंडी भक्त गण दोनों ही चातुर्मास व्रत का पालन करते हैं। श्री शंकर मठ के अनुयायियों में भी चातुर्मास व्रत की व्यवस्था है।
मनुष्य एक हजार अश्वमेध यज्ञ करके मनुष्य जिस फल को पाता है, वही चातुर्मास्य व्रत (10 जुलाई से नवंबर) के अनुष्ठान से प्राप्त कर लेता है।
आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में एकादशी के दिन 10 जुलाई उपवास करके मनुष्य भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रत प्रारंभ करे।
इन चार महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, पत्तल पर भोजन, उपवास, मौन, जप, ध्यान, स्नान, दान, पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।
इन चार महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, पत्तल पर भोजन, उपवास, मौन, जप, ध्यान, स्नान, दान, पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। विशेषतः चतुर्मास में यह व्रत संसार में अधिक गुणकारक है। जो चतुर्मास में अपने प्रिय भोगों का श्रद्धा एवं प्रयत्नपूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती हैं।
चतुर्मास में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है।
ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है और उसका कंठ सुरीला होता है।
दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है।
व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। विशेषतः चतुर्मास में यह व्रत संसार में अधिक गुणकारक है। जो चतुर्मास में अपने प्रिय भोगों का श्रद्धा एवं प्रयत्नपूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती हैं।
चतुर्मास में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है।
ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है और उसका कंठ सुरीला होता है।
दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है।
नमक छोड़ने वाले के सभी पूर्तकर्म (परोपकार एवं धर्म सम्बन्धी कार्य) सफल होते हैं।
जो मौनव्रत धारण करता है उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता।
चतुर्मास में काले एवं नीले रंग के वस्त्र त्याग देने चाहिए। कुसुम्भ (लाल) रंग व केसर का भी त्याग कर देना चाहिए।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी 10 जुलाई को श्रीहरि के योगनिद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर मनुष्य चार मास अर्थात् कार्तिक की पूर्णिमा 08 नवंबर तक भूमि पर शयन करे। ऐसा करने वाला मनुष्य बहुत से धन से युक्त होता और विमान प्राप्त करता है।
जो भगवान जनार्दन के शयन करने पर शहद का सेवन करता है, उसे महान पाप लगता है।
चतुर्मास में अनार, नींबू, नारियल तथा मिर्च, उड़द और चने का भी त्याग करे।
चातुर्मास्य में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करे। परनिंदा को सुनने वाला भी पापी होता है।
चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। काँसे के बर्तनों का त्याग करके मनुष्य अन्यान्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करे। अगर कोई धातुपात्रों का भी त्याग करके पलाशपत्र, मदारपत्र या वटपत्र की पत्तल में भोजन करे तो इसका अनुपम फल बताया गया है।
अन्य किसी प्रकार का पात्र न मिलने पर मिट्टी का पात्र ही उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाश के पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनाये और उससे भोजन-पात्र का कार्य ले। पलाश के पत्तों से बनी पत्तल में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है।
प्रतिदिन एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ के फल का भागी होता है।
पंचगव्य सेवन करने वाले मनुष्य को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है।
यदि धीर पुरुष चतुर्मास में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है तो उसके सब पातकों का नाश हो जाता है और वह वैकुण्ठ धाम को पाता है।
चतुर्मास में केवल एक ही अन्न का भोजन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता।
जो मनुष्य चतुर्मास में केवल दूध पीकर अथवा फल खाकर रहता है, उसके सहस्रों पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं।
जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर ‘पुरुष सूक्त’ का पाठ करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है)। कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |
चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। इसमें धर्मयुक्त श्रद्धा से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए।
देवशयनी एकादशी ४ जुलाई से देवउठनी एकादशी ३१ अक्टूबर तक उक्त धर्मों का साधन एवं नियम महान फल देने वाला है।
चतुर्मास में भगवान नारायण योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिए चार मास शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये मास तपस्या करने के हैं।
चतुर्मास में योगाभ्यास करने वाला मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है।
‘नमो नारायणाय’ का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है।
यदि मनुष्य चतुर्मास में भक्तिपूर्वक योग के अभ्यास में तत्पर न हुआ तो निःसंदेह उसके हाथ से अमृत का कलश गिर गया।
जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है वह मूर्ख है।
चतुर्मास में विशेष रूप से जल की शुद्धि होती है। उस समय तीर्थ और नदी आदि में स्नान करने का विशेष महत्त्व है।
नदियों के संगम में स्नान के पश्चात् पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके जप, होम आदि करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य जल में तिल और आँवले का मिश्रण अथवा बिल्वपत्र डालकर ॐ नमः शिवाय का चार-पाँच बार जप करके उस जल से स्नान करता है, उसे नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है।
चतुर्मास में अन्न, जल, गौ का दान, प्रतिदिन वेदपाठ और हवन – ये सब महान फल देने वाले हैं।
सद्धर्म, सत्कथा, सत्पुरुषों की सेवा, संतों के दर्शन, भगवान विष्णु का पूजन आदि सत्कर्मों में संलग्न रहना और दान में अनुराग होना – ये सब बातें चतुर्मास में दुर्लभ बतायी गयी हैं।
चतुर्मास में दूध, दही, घी एवं मट्ठे का दान महाफल देने वाला होता है।
जो चतुर्मास में भगवान की प्रीति के लिए विद्या, गौ व भूमि का दान करता है, वह अपने पूर्वजों का उद्धार कर देता है।
विशेषतः चतुर्मास में अग्नि में आहूति, भगवद् भक्त एवं पवित्र ब्राह्मणों को दान और गौओं की भलीभाँति सेवा, पूजा करनी चाहिए।
चतुर्मास में जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है।
जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के धाम को जाता है।
जो भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटि गुना फल मिलता है।
पद्म पुराण के उत्तर खंड, स्कंद पुराण के ब्राह्म खंड एवं नागर खंड उत्तरार्ध से संकलित