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चरक संहिता प्रथम अध्याय – ०६७:-- (परलोकैषणा - पुनर्जन्म से कर्म)

युक्तिश्रचैषा-पड़धातुसमुदायाद् गर्भजन्म, कर्तृकरणसंयोगात् क्रिया, कृतस्य कर्मणः फलं नाकनस्य, नाङ्कुरोत्पत्तिरबांजात, कर्म- सदृशं फलं नान्यस्माद्वीजादन्यस्योत्पत्तिरिति युक्तिः ॥३१॥

 

यहां किये कर्म से दूसरा जन्म होगा, बीज से फल का अनुमान होता है, कर्म से पुनर्जन्म का और पुनर्जन्म से कर्म का अनुमान होता है ॥

युक्ति भी हैं कि – पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, आकाश और चेतना – इन छः (६) धातुओं के समुदाय मिलने से – जन्म  होता है।

 

और कर्त्ता और करण (साधन) के मिलने से – क्रिया उत्पन्न होती है।

 

किये हुए ही कर्म का फल होता है,

 

न किये हुए कर्म का फल नहीं होता ।

 

जिस प्रकार बिना बीज के अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे कर्म के अनुसार समान ही फल मिलता है।

 

यथा – एक जाति के बीज से, दूसरी जाति का फल उत्पन्न नहीं होता ॥३१॥

 

एवं प्रमाणैश्चतुर्भिरुपदिष्टे पुनर्भवे धर्मद्वारेष्ववधीयेत, तद्यथा- गुरुशुश्रूषायामध्ययने व्रतचर्यायां दारक्रियायामपत्योत्पाद ने भृत्यभरणे- तिथिपूजायां दानेऽनभिध्यायां तपस्यनसूयायां देहवामानसे कर्मण्य- क्लिष्टे देहेन्द्रिय मनोऽर्थ- बुद्धद्यात्म-परीक्षायां मनःसमाधाविति यानि चान्यान्यप्येवंविधानि कर्माणि सतामविगर्हितानि स्वर्ग्याणि वृत्तिपुष्टि- कराणि विद्यात्तान्यारभेत कर्तुम्, तथा हि कुर्वन्निह चंव यशो लभते प्रेत्य च स्वर्गमिति तृतीया परलोकैषणा व्याख्याता भवति ॥३२॥

इस प्रकार आपतोपदेश (योग्यता), प्रत्यक्ष, अनुमान, और युक्ति चारों (४) प्रमाणों द्वारा – पुनर्जन्म के सिद्ध होने पर धर्म-साधन के मार्गों में चित लगावे ।

 

यथा – (?) माता, पिता, आचार्य की सेवा, अध्ययन-पठन में, ब्रह्मचर्य कार्य, मन, (?) से त्याग, ब्रह्मचर्य्यपालन, विवाह कर्म में, सन्तानोत्पत्ति, आश्रित (?) के पोषण में, अतिथि सत्कार में,

 

यथाशक्ति दान देने में, दूसरे के धन को न चाहने में, द्वन्द्व सुख-दुःख सहने में, दूसरे के गुणों में दोष न देखने में, शरीर को बिना कष्ट पहुँचाये शरीर, वाणी, और मन से कर्म करने में, देहपरीक्षा में,

 

इन्द्रिय परीक्षा, मन परीक्षा, विषय की परीक्षा, ज्ञान की परीक्षा, आत्म परीक्षा, और मन की समाधि (चित्रावृत्ति-निरोध) में मन का लगाना ही धर्म मार्ग है।

 

और भी दूसरे इसी प्रकार के कर्म, सज्जनों से अनिन्दत, पूजित, स्वर्ग सुख को देने वाले, जीवन पालन करने वाले हो, उनको करने का उद्योग करें, – ऐसा करने पर इहलोक में यश मिलता हैं, और मरने पर स्वर्ग, अर्थात् पुनर्जन्म मे सुख मिलेगा।

 

इस प्रकार से – तीसरी परलोकैषणा भी कह दी ॥३२॥

 

जय श्री कृष्णा

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