Sshree Astro Vastu

बोधकथा – मोक्ष

यह घटना है 27 नवम्बर 2012 की। नर्मदा किनारे नगावा नाम का एक गाँव है। मज़ेदार बात है — गाँव का नाम है नगावा। वहाँ नर्मदा तट के पास केवट धर्मशाला में उन बच्चों के लिए हमारा एक अनौपचारिक शिक्षा केंद्र था जिन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी थी। इसे आप निःशुल्क कोचिंग क्लास भी कह सकते हैं।
सुबह के करीब साढ़े दस बजे का समय था। मैं कक्षा में पढ़ा रही थी। खिड़की से बाहर नज़र गई तो दो परिक्रमावासी आते हुए दिखे। कुछ देर बाद उनमें से एक ने खिड़की से झाँककर पूछा —
“भारती ठाकुर से मिलना था, कहाँ मिलेंगी?”
मैं मुस्कराई और बोली — “वो मैं ही हूँ। आप थके हुए लग रहे हैं, ज़रा बैठिए, मैं यह विषय खत्म करके आती हूँ।”

पास के ही मंदिर में परिक्रमावासियों के रहने की व्यवस्था थी। मंदिर के ओटले पर वे दोनों मेरा इंतज़ार करने लगे। थोड़ी देर बाद मैं वहाँ पहुँची। परिचय हुआ — दोनों पुणे के रहने वाले सगे भाई थे — श्री माधव परांजपे और श्री मुकुंद परांजपे। दोनों की उम्र लगभग सत्तर वर्ष के आसपास रही होगी।
बड़े भाई ने बैग से एक डायरी निकाली, जिसमें कुछ नाम लिखे थे। ऊपर शीर्षक लिखा था — नर्मदा परिक्रमा में इन लोगों से अवश्य मिलना है।” उन चार–पाँच नामों में मेरा भी नाम था और मेरे नाम के आगे मेरा मोबाइल नंबर लिखा था।

क्योंकि उस मंदिर में हमारा आना-जाना था, वहाँ के लोग मुझे जानते थे। मैंने प्रबंधक से कहा —
“ये हमारे पुणे के मेहमान हैं, इनका ध्यान रखिए।”
और फिर मैं वापस अपने केंद्र में लौट आई।

अगले दिन सुबह करीब साढ़े पाँच बजे मुकुंद परांजपे का फोन आया —
“ताई, दादा चले गए… मैं मुकुंद परांजपे बोल रहा हूँ।”
मुझे समझ नहीं आया — “कहाँ गए?”
उन्होंने कहा, “दादा का देहांत हो गया। रात दो साढ़े तीन बजे हार्ट अटैक आया। हम लोग भट्याण के पास गोधारी आश्रम में रुके थे। रात तक सब ठीक था, पर भोर में अचानक उनकी साँस लेने में तकलीफ़ हुई, मैंने पानी दिया लेकिन कुछ ही देर में उनका प्राण निकल गया। स्वामीजी ने डॉक्टर को बुलाया, पर कुछ हो न सका।”

मैं उनकी पीड़ा समझ सकती थी। मैंने कहा — “आप चिंता मत कीजिए, मैं तुरंत पहुँचती हूँ।”
मैंने अपने दो कार्यकर्ताओं को साथ लिया और वहाँ पहुँच गई। वह दिन था कार्तिक पूर्णिमा का। गोधारी आश्रम नर्मदा किनारे स्थित है और परशुराम की तपोभूमि के नाम से प्रसिद्ध है।

धीरे-धीरे खबर फैल गई कि एक परिक्रमावासी का देहावसान हुआ है। लोग दर्शन के लिए आने लगे। सब कहते — “नर्मदा किनारे परिक्रमावासी की मृत्यु और वह भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन — यह तो बहुत पुण्य की बात है।”
कहा गया कि वे चित्पावन ब्राह्मण थे और परशुराम तपस्थली में उनका निधन हुआ — यह तो और भी शुभ माना गया।

दिनभर लोग आते रहे। कोई चाय लाया, कोई दूध, कोई शुद्ध घी, कोई गोबर की व्यवस्था कर गया। गाँव की औरतों ने कहा — “दीदी, हमारे पास बहुत लकड़ियाँ हैं, आप ले जाइए।” गाँव वालों की मदद से किनारे पर चिता की व्यवस्था हो गई।

लेकिन तभी एक नई दुविधा सामने आई।
आश्रम के स्वामीजी ने कहा —
“जो परिक्रमावासी होता है, वह एक प्रकार से सन्यासी होता है। और सन्यासी का दाह संस्कार नहीं किया जाता, उसे जल-समाधि दी जाती है।”

मैंने इसका विरोध किया। मैंने कहा — “नर्मदा का पानी लोग पीते हैं, उसी में स्नान करते हैं। अगर शरीर वहीं डाला जाए तो वह सड़ता है, यह उचित नहीं।”
बहस चली। अंत में मैंने उनके पुत्र से कहा कि वह स्वामीजी से बोले —
“मैं पुत्र होने के नाते अपने पिता को अग्नि देना चाहता हूँ, ताकि उनकी अस्थियाँ ले जाकर घर पहुँचा सकूँ।”
अंततः सब सहमत हुए और नर्मदा किनारे दाह संस्कार किया गया।

रात के समय गाँववाले, रिश्तेदार, और परिवारजन सब वहाँ पहुँचे। बैंड बाजा भी आ गया क्योंकि इसे “पुण्य अवसर” माना गया — मृत्यु नहीं, मोक्ष का क्षण।
अंत्ययात्रा चाँदनी रात में नर्मदा तट तक गई। सबकी आँखों में आँसू और मन में श्रद्धा थी।

उस रात मैं उनकी बेटी पूजा के साथ आश्रम में ही रुकी। मैंने देखा कि स्वामीजी और उनके एक परिचित अंत्ययात्रा में नहीं गए। मैंने पूछा —
“आपने इतना सहयोग किया, अब क्यों नहीं गए?”
वे मुस्कराए और बोले —
“हम कैसे जा सकते हैं? अब तो हमारा असली काम शुरू होगा — सभी के लिए भोजन बनाना है।”
उन्होंने स्नान किया और दाल-बाटी बनाने लगे। अंत्यसंस्कार से लौटे सभी लोगों को उन्होंने प्रेमपूर्वक भोजन कराया।

अगले दिन परांजपे जी का परिवार अस्थि-कलश लेकर पुणे लौट गया।

ऐसी ही एक और घटना पिछले वर्ष हुई।
दिलीप गोखले, जो मेरी नाशिक की मित्र माधुरी माटे के भाई थे, नर्मदा परिक्रमा में थे। एक रात नरसिंहपुर के पास एक आश्रम में उनकी भी नींद में ही हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई।
परिवार मुंबई और नाशिक में था — वहाँ तक पहुँचने में दो दिन लगने वाले थे। मैं चिंतित थी कि पोस्टमार्टम और अन्य कार्य कैसे होंगे। तभी मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले डॉ. चांदोरकर और उनकी पत्नी नरसिंहपुर से हमारे पास आए थे। मैंने उन्हें फोन किया और सब बताया। उन्होंने तुरंत ज़िम्मेदारी ली।

उन्होंने पोस्टमार्टम कराया, शव को बर्फ की पेटी में रखवाया और अपने अस्पताल में सुरक्षित रखा। जब तक परिजन पहुँचे, उन्होंने बर्मनघाट में अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था कर दी थी — यहाँ तक कि परिजनों की वापसी के लिए रेल आरक्षण भी करवा दिया था।

मैंने तब जाना कि एक महंत ने जो कहा था —

“नर्मदा परिक्रमा करने वाला व्यक्ति सीमित परिवार से निकलकर असीम परिवार का सदस्य बन जाता है,”
वह बिल्कुल सत्य है।

नर्मदा परिक्रमा के दौरान यदि किसी परिक्रमावासी की मृत्यु होती है, तो कहा जाता है कि उसे स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पर वास्तव में मोक्ष क्या है — यह कौन जान सकता है, जब तक हम स्वयं मृत्यु का अनुभव न करें?

ऐसे क्षणों में मुझे विनोबा भावे के शब्द याद आते हैं —

“मोक्ष का अर्थ है — मोह का क्षय।”

यह परिभाषा मुझे बहुत प्रिय है, क्योंकि जो व्यक्ति भौतिक मोह-माया से मुक्त हो जाता है, वही परिक्रमा के मार्ग पर निकलता है।

लेकिन जब मैं “मोक्ष” शब्द सुनती हूँ, तो मुझे स्वामी विवेकानंद की बात याद आती है —

“मैं साधना तो करता हूँ, पर मोक्ष के लिए नहीं। जब तक इस देश में एक भी बेसहारा कुत्ता भूखा है, मैं मोक्ष की कामना नहीं करूँगा।”

स्वामी विवेकानंद मेरे आदर्श हैं।
उनके इस संकल्प में मैं अपनी ओर से एक वाक्य जोड़ना चाहती हूँ —

“जब तक इस देश का सबसे गरीब बच्चा शिक्षित नहीं हो जाता, तब तक मुझे भी मोक्ष नहीं चाहिए — चाहे मैं नर्मदा किनारे ही क्यों न रहूँ।”

आप सभी लोगों से निवेदन है कि हमारी पोस्ट अधिक से अधिक शेयर करें जिससे अधिक से अधिक लोगों को पोस्ट पढ़कर फायदा मिले |
Share This Article
error: Content is protected !!
×