आज भगवान पार्श्वनाथ की जयंती है। पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया तथा उसे समाजिक जीवन में प्रवेश दिलाया, तो आइए हम आपको पार्श्वनाथ के बारे में कुछ खास बातें बताते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर माने जाते हैं, जिन्होंने अज्ञान-अंधकार-आडम्बर एवं क्रियाकाण्ड के मध्य में क्रांति का बीज बन कर पृथ्वी पर जन्म लिया था। इस साल 2021 में भगवान पार्श्वनाथ की जयंती 30 दिसंबर को मनाई जा रही है। इनका जन्म अरिष्टनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी नगर में हुआ था। इनके शरीर का रंग नीला और चिन्ह सर्प माना जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ बचपन से ही चिंतनशील और दयालु स्वभाव के थे। वे सभी विद्याओं में ये प्रवीण थे, भगवान पार्श्वनाथ ने अपने समय की हिंसक स्थितियों को नियंत्रित कर समाज में अहिंसा का प्रकाश फैलाया। यूं लगता है मानो भगवान पार्श्वनाथ जीवन दर्शन के पुरोधा बनकर ही इस धरा पर जन्म लिए थे। भगवान पार्श्वनाथ की पूरी जीवन यात्रा पुरुषार्थ एवं धर्म की प्रेरणा से भरी थी। वे सम्राट से संन्यासी बने, वर्षों तक दीर्घ तप तपा, कर्म निर्जरा की और तीर्थंकर बने। भगवान पार्श्वनाथ ने जैन दर्शन के रूप में शाश्वत सत्यों का उद्घाटन किया।
पारसनाथ भगवान का प्रथम आहार गुल्मखेटपुर के महाराज ब्रह्मदत्त ने दिया। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और रानी वामादेवी के यहां पौष कृष्ण एकादशी के दिन हुआ था। तीस वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में ‘ऋषभदेव चरित’ सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया। भगवान पार्श्वनाथ क्षमा के प्रतीक और सामाजिक क्रांति के प्रणेता हैं। उन्होंने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दिया, जो अभूतपूर्व क्रांति थी। उनका कहना था कि हर व्यक्ति के प्रति सहज करुणा और कल्याण की भावना रखें।
जैन धर्म पुराणों के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ को तीर्थंकर बनने के लिए पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलतः ही वे 23वें तीर्थंकर बने। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार, भगवान पार्श्वनाथ के गणधरों की कुल संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे और इनके प्रथम आर्य का नाम पुष्पचुड़ा था।
भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द भी हमें इन घटनाओं में अभिगुम्फित दिखाई देता है। ध्यान से देखने पर भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर का समवेत रूप एक सार्वभौम धर्म के प्रवर्तन का सुदृढ़ सरंजाम है।
भगवान पार्श्वनाथ ने पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वाराणसी नगरी में दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के दो दिन बाद खीर से पहला पारणा किया। भगवान पार्श्वनाथ ने केवल 30 साल उम्र में ही सांसारिक सभी तरह की मोहमाया और गृह का त्याग कर संन्यास धारण कर लिया था। 84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही ‘घातकी वृक्ष’ के नीचे इन्होनें ‘कैवल्य ज्ञान’ को प्राप्त किया। भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण पारसनाथ पहाड़ पर हुआ था। पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया। अहिंसा सबके जीने का अधिकार है, उन्होंने इसे स्वीकृत किया।
पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना की। प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था। उनके गणधरों की संख्या 10 थीं। आर्यदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। उनके अनुयायियों में स्त्री और पुरुष को समान महत्व प्राप्त था। सुपार्श्व तथा चन्द्रप्रभा का जन्म काशी में ही हुआ था। सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर जैन धर्म के 11.वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।
पार्श्वनाथ की जन्मभूमि के स्थान पर निर्मित मंदिर भेलूपुरा मोहल्ले में विजय नगरम् के महल के पास स्थित है। सिर के ऊपर तीन, सात और ग्यारह सर्पकणों के छत्रों के आधार पर मूर्तियों में इनकी पहचान होती है। काशी में भदैनी, भेलूपुर एवं मैदागिन में पार्श्वनाथ के कई जैन मन्दिर हैं।