वशिष्ठ संहिता में स्पष्ट रूप से कहा है, कि बिना भूत शुद्धि के किसी भी प्रकार की कोई भी साधना सफल नहीं हो पाती। भूत शुद्धि का तात्पर्य है- शरीरस्थमलिन भूतों की भस्म कर नवीन दिव्य भूतों का निर्माण करना है, जिससे कि शरीर पूर्ण पवित्र होकर साधना के दिव्यालोक से प्रकाशित हो सके ।
भूत शुद्धि का क्रम इस प्रकार है-
१. सर्व प्रथम स्नानादि कर अपने आसन पर बैठ, और ऐसा विचार मन में लावे, कि मेरे चारों तरफ अग्नि-पुंज है, जिसे पार कर कोई पाप निकट नहीं आ सकता । इस हेतु आसन के चारों ओर अग्निबीज ‘र’ का उच्चारण करता हुआ जल छिड़के।
२. फिर संकल्प – भूत शुद्धि-संकल्प करे-ॐ अद्यत्यादि देवपूजा कार्य सिद्धयर्थं भूत शुद्धाद्यहं करिष्ये’ करे ।
३. फिर कुण्डलिनी का चिन्तन करे, और उसे उबुद्ध करने का प्रयास
४. फिर स्वशरीर में पैर के तलवे से तालु तक जो पृथिवीमंडल है, उसका ध्यान करे।
१. पैर के तलवे से जंघा तक पृथ्वीमंडल, चौकोर पीतरंग का है, इसे ऊं हां ब्रह्मणे पृथिव्याधिपतये निवृत्ति कलात्मने हुं फट् स्वाहा
— मंत्र से जल में विसर्जित करे।
२. जंघा से नाभिपर्यन्त अर्द्धचन्द्राकार श्वेत वर्णं जल मंडल है। इसे ‘ॐ ह्रीं वैष्णवे जलाधिपतये प्रतिष्ठा कलात्मने फट् स्वाहा, मंत्र से अग्नि में विसर्जित कर देना चाहिए।
३. नाभि से हृदय तक त्रिकोणात्मक अग्निमंडल है, इसे ‘ऊं हृ रुद्राय तेजोसापतये विद्याकलात्मने हुं फट् स्वाहा, मंत्र से वायुमंडल में विलीन कर देना चाहिए।
४. हृदय से भू मण्डल तक गोलाकार वायु मंडल है, जिसे ‘ॐ’ हृ’ ईशानाय वायव्याधिपतये शांति कलात्मने स्वाहा, मंत्र से आकाश मण्डल में विलीन कर देना चाहिए।
५. भूमध्य से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त आकाश मण्डल है, इसे ऊं हूँ सदाशिवाय आकाशाधिपतये शान्त्यतीत कलात्मने हुं फट् स्वाहा-मंत्र से अहंकार में विलीन कर दे, फिर अहंकार को महत्तत्व में, तथा महत्तत्व को प्रकृति में विलीन कर देना चाहिए, और प्रकृति को नित्य शुद्ध बुद्ध स्वरूप परमात्मा में विलीन कर देना चाहिए।
इसके पश्चात् पाप पुरुष का शोषण करने के लिए
‘ॐ’ शरीरस्यान्तर्यामी ऋषिः सत्यं देवता प्रकृति पुरुष प्रछन्द्रः पाप पुरुष शोषणे विनियोगः , विनियोग करे ।
उपरोक्त विधि की भावना समझते हुए आवृत्ति करनी चाहिए। यदि कुछ दिनों तक इसका अभ्यास किया जाता है, तो विचित्र तरह से अनुभव प्राप्त होते हैं, तथा आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त होती है।
।कालेन समौषधम्।