भारतीय संस्कृति में कहावतों का विशेष महत्व है। ये कहावतें केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों, परंपराओं और व्यवहारिक ज्ञान का निचोड़ होती हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कहावत है – “आषाढ़ का तला, सावन का भूना”। इस कहावत का अर्थ है कि आषाढ़ (बरसात की शुरुआत का महीना) में तला हुआ भोजन नहीं खाना चाहिए और सावन के महीने में भूना हुआ भोजन त्याग देना चाहिए।
यह कहावत सुनने में भले ही साधारण लगे, लेकिन इसके पीछे बहुत गहराई से जुड़े स्वास्थ्यवर्धक और धार्मिक कारण हैं। आइए विस्तार से समझते हैं कि यह कहावत किस प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित करती है और इसके पालन से कैसे हम बेहतर स्वास्थ्य और अध्यात्मिक संतुलन पा सकते हैं।
आषाढ़ का महीना आमतौर पर जून के अंत से जुलाई के मध्य तक चलता है। यह वर्षा ऋतु की शुरुआत का समय होता है। इस दौरान वातावरण में नमी की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे बैक्टीरिया और फफूंद (fungus) का प्रकोप तेज़ हो जाता है। ऐसे समय में तला-भुना, गरिष्ठ और ऑयली भोजन पाचन क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
इसीलिए, बुजुर्गों और आयुर्वेदाचार्यों की राय रही है कि इस महीने में तले-भुने खाद्य पदार्थों से बचना चाहिए। यह सलाह न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से सही है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन में भी संतुलन बनाए रखने वाली है।
सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित माना जाता है। यह माह श्रद्धा, भक्ति और व्रतों का काल होता है। इस दौरान लाखों श्रद्धालु शिव मंदिरों में पूजा, रुद्राभिषेक, उपवास और सात्त्विक आहार का पालन करते हैं।
इस माह में भूने हुए और विशेषकर सांस-युक्त (गंधयुक्त या अधिक मसालेदार) भोजन, जैसे मांस, अंडा या अन्य भारी व्यंजन, वर्जित माने जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, सावन में सात्त्विकता, संयम और शुद्धता का विशेष महत्व होता है।
यह कहावत केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य विज्ञान और आयुर्वेद से भी जुड़ी हुई है। भारत में ऋतुचक्र के अनुसार जीवनशैली और आहार-विहार को ढालना हमारी सांस्कृतिक परंपरा रही है।
“आषाढ़ का तला, सावन का भूना” जैसी कहावतें केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए नहीं होतीं, बल्कि यह सामाजिक जागरूकता बढ़ाने का भी माध्यम होती हैं। जब पूरा समाज एक जैसी सावधानियाँ अपनाता है, तो सामूहिक रूप से रोगों के फैलाव की संभावना कम हो जाती है।
आज के दौर में जब बाहर का तला-भुना खाना, फास्ट फूड, स्ट्रीट फूड आदि का चलन बढ़ गया है, ऐसे में यह कहावत और भी प्रासंगिक हो जाती है। सावन और आषाढ़ जैसे महीनों में मौसमी संक्रमण, वायरल बुखार, डेंगू, मलेरिया आदि बीमारियों का खतरा भी रहता है।
इस प्रकार, “आषाढ़ का तला, सावन का भूना” न केवल एक साधारण कहावत है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों की जीवनदृष्टि, अनुभव, और स्वास्थ्य-संवेदनशील सोच का प्रतीक है। यह हमें सिखाती है कि कैसे ऋतु के अनुसार भोजन का चयन कर हम अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं और साथ ही अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी निभा सकते हैं।
अतः इस कहावत को केवल एक परंपरा के रूप में न लेकर, एक चेतावनी, एक सुझाव और एक ज्ञान के रूप में अपनाना चाहिए। इससे हम अपने जीवन में अनुशासन, संयम और संतुलन का समावेश कर सकते हैं।