सैनिकों के प्रति कृतज्ञता
आज रविवार। भारतीय सैनिकों के शौर्य को नमन करने का दिन। कुछ खास दिनों को छोड़कर आम जनता सैनिकों को अक्सर भूल जाती है। जब तक कोई बड़ी अप्रिय घटना या आपदा न हो, हमें सैनिकों का स्मरण नहीं आता। लेकिन सच्चाई यह है कि हमें हर पल, हर समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए, क्योंकि 24 घंटे, 12 महीने देश की सेवा में डटे रहना कोई साधारण कार्य नहीं है। हर रविवार सैनिकों का गुणगान करना अनिवार्य नहीं, पर उनकी स्मृतियाँ हमारे मन में जीवित रहनी ही चाहिए। यही इस लेख का उद्देश्य है – उन शूरवीरों की याद कराना जिनके नाम तक हमारे ख्याल में नहीं आते।
बचपन से उड़ान की चाह
स्कूल के बच्चों की तरह यह बच्चा भी कागज़ के विमान उड़ाता था, पर उसके विमान हमेशा सही ढंग से सुरक्षित उतरते। उसे आकाश में उड़ते लड़ाकू विमानों का आकर्षण अधिक था। घर की स्थिति ठीक न होने और माता-पिता के विरोध के बावजूद उसने कठिन परिश्रम और आत्मविश्वास के बल पर 1961 में एनडीए, खडकवासला में प्रवेश लिया।
1963 में दिलीप कमलाकर पारूळकर भारतीय वायुसेना में लड़ाकू वैमानिक बने।
1965 का युद्ध – पहली मौत से भेंट
1962 का चीन युद्ध अभी ताजा ही था और सेना का मनोबल कुछ गिरा हुआ था। 1965 में पाकिस्तान ने हमला किया। पारूळकर साहब ऐसे मौके की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने स्वेच्छा से हमले में हिस्सा लिया।
पाकिस्तानी टैंकों पर अमेरिकी पॅटन टैंक रोधी तोपें लगी थीं। एक गोली उनके विमान के कॉकपिट से होते हुए सीधे कंधे में लगी। प्रचंड रक्तस्राव हुआ। आदेश मिला – “विमान से बाहर कूदो!” पर उन्होंने आदेश की परवाह न की और एक हाथ से विमान को नियंत्रित कर सुरक्षित भारतीय बेस पर उतारा।
इस बहादुरी के लिए उन्हें वायु सेना मेडल मिला।
लेकिन सबसे बड़ी बात – यदि वे कूद जाते तो उनकी इजेक्शन सीट का पैराजूट खुलता ही नहीं, क्योंकि गोली से उसका मैकेनिज़्म खराब हो चुका था। आदेश मानते तो वे सीधे 400 किमी/घंटा की रफ्तार से जमीन पर गिरते। इस तरह उन्होंने पहली बार मौत को मात दी।
1970 – दूसरी बार मौत को मात
2 मई 1970 को वे सुखोई-7 उड़ा रहे थे। इंजन ने साथ छोड़ दिया। मजबूरी में विमान से कूदना पड़ा। यह उनकी दूसरी मौत से भेंट थी।
1971 – युद्ध और कैद
10 दिसंबर 1971, भारत-पाक युद्ध। वे लाहौर पर हमले में शामिल हुए। उनका सुखोई पाकिस्तानी तोपों की चपेट में आ गया। इस बार भी उन्होंने सही समय पर छलांग लगाई। पर वे पाकिस्तानी सेना की गिरफ्त में आ गए और युद्धबंदी बन गए।
युद्ध खत्म हुआ, लेकिन भारतीय पायलटों की रिहाई में देरी हुई। पारूळकर साहब ने अपने वचन के अनुसार कैद में चुप न बैठने का निश्चय किया। उन्होंने दो अन्य वैमानिकों के साथ मिलकर योजना बनाई और जेल से फरार हो गए। उनका लक्ष्य था – अफगानिस्तान की सीमा। वे वहाँ से मात्र 4 मील दूर रह गए थे। पर रास्ते में वे जिस रेलवे स्टेशन की तलाश कर रहे थे, वह वर्षों पहले बंद हो चुका था। वे उसी स्टेशन के बारे में पूछते घूमे और पकड़े गए।
उन्हें गोली मारने का आदेश दिया गया, पर पाकिस्तानी वायुसेना प्रमुख ने संभावित नतीजों की चेतावनी दी, इसलिए उनकी जान बची। अंततः 1 दिसंबर 1972 को उन्हें भारत वापस लाया गया। वाघा बॉर्डर पर उनका जोरदार स्वागत हुआ। इस तरह यह उनकी तीसरी मौत से भेंट थी।
उनके इस पलायन पर पुस्तक “Four Miles to Freedom” और फिल्म “The Great Indian Escape” बनी।
1975 – चौथी बार मौत को मात
24 जनवरी 1975 को फिर से उनका सुखोई-7 तकनीकी खराबी का शिकार हुआ और उन्हें विमान से कूदना पड़ा। यह उनकी चौथी और आखिरी मौत से मात थी।
गौरवशाली सेवा
सेवानिवृत्ति के बाद वे पर्यावरण संरक्षण और कृषि में सक्रिय रहे। खेलों में भी उनकी रुचि थी और वे विम्बलडन का दौरा नियमित करते थे।
अंत
10 अगस्त 2025 को, 82 वर्ष की आयु में, चार बार मृत्यु को मात देने वाले इस महान वायुसैनिक का देहांत हुआ। पुणे में उनके अंतिम संस्कार के समय भारतीय वायुसेना ने उन्हें पूर्ण सैन्य सम्मान दिया।
उनका जीवन “फेअर विंड्स” (नौसेना की परंपरा अनुसार – “आपकी यात्रा को शुभ हवाएँ मिलें”) की तरह रहा।
जय हिंद। भावपूर्ण श्रद्धांजलि। 🙏