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कर्ण-रोग

(१) यदि मान्दि के साथ मंगल तृतीय स्थान में बैठा हो तो आतक कर्ण रोगी होता है।

(२) यदि तृतीय स्थान में कोई पाप ग्रह बैठा हो और उसपर किसी पापग्रह की दृष्टि भी पड़ती हो तो जातक कर्ण रोगी होता है।

(३) यदि तृतीयेश क्रूर षष्ठांश का हो तो भी कर्ण रोग होता है। (४) यदि पापग्रह तृतीय,पञ्चम, नवम और एकादश भावों में किसी प्रकार से पड़ते हो, तथा उनपर शुभग्रह की दृष्टि न हो तो ग्रहगण अपने बलानुसार श्रवण शक्ति में न्यूनता पैदा करते हैं (१) यदि द्वितीयेश और मंगल लग्नगत हों तो कर्ण-पीड़ा होती है।

(६) यदि शनि, मंगल और द्वितीयेश लग्नगत हो अथवा

 

द्वितीयेश और षष्ठेश लग्नगत हो अथवा मंगल और गुलिक द्वादशस्थ हों तो जातक के कान में सर्वदा पीड़ा रहती है अथवा उसका काम कट जाता है।

(७) यदि चन्द्रमा पर शनि की दृष्टि पड़ती हो पर कब्ज पर सूर्य और शुक्र की दृष्टि न हो तो जातक का काम काटा जाता है।

(८) यदि षष्ठ का शुक्र हो और वह लग्न-गत हो तथा उस पर चन्द्र‌मा एवं पापग्रह की दृष्टि हो तो जातक दाहिने कान से बधिर होता है।

(९) यदि षष्ठेश और बुध चौथे स्थान में हों, उन पर शनि को चतुर्थ दृष्टि (तीन पाद दृष्टि) पड़ती हो अथवा षष्ठेश और बुध छठे स्थान में हों तथा उसपर शनि की दृष्टि पड़ती हो तो जातक बधिर होता है।

(१०) यदि छठे स्थान का स्वामी बुध, ६, ८ अथवा १२ स्थान में हो और शनि से दृष्टि हो तो जातक बधिर होता है।

(११) यदि षष्ठ स्थान का स्वामी बुध हो और बुध एवं षष्ठास्थान, शनि की सप्तम दृष्टि से दृष्ट हो तो जातक बधिर होता है।

(१२) यदि मङ्गल के साथ पूर्ण वन्द्रमा छठ्ठ स्थान में हो तो भी बधिर होता है। (१३) यदि बुध छठे स्थान में, अथवा शुक्र दशम स्थान में हो और जातक का जन्म रात्रि के समय का हो तो ऐसा जातक बायें काम से बहुत ऊंचा सुनता है।

(१४) क्षीण चं. के लग्न में रहने से जातक ऊ’चा सुनता है। यदि चं., बु., कृ. और शु. साथ होकर किसी भाव में बैठे हों तो जातक बधिर होता है।

 

            दन्त-रोग ।

(१) यदि चं. अथवा राहु द्वादश स्थान-गत हो अथवा

 

किसी त्रिकोण में हो और सूर्य सप्तम अथवा अष्टम स्थान में हो तो जातक को दन्त-रोग और नेत्र-रोग होते हैं। पुनः उसी प्रकार ऊपर के योग वाले ग्रह सब यदि नीच नवांश अथवा शत्रु नवांश में हो तो भी दन्त रोग होता है।

(२) यदि पापग्रह, सप्तम भाव-गत हो और उसपर शुभग्रह की दृष्टि न हो तो जातक के दांत देखने में कुरूप होते हैं।

(३) यदि द्वितीयेश, राहु के साथ षठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव-गत हो और राहु जिस राशि में हो उस स्थान का स्वामी द्वितीयेश के साथ हो तो द्वितीयेश की महादशा में तथा राहु जिस स्थान में बैठा हो उस स्थान के स्वामी की दशा में जातक दन्त रोग से पीड़ित होता है। बुध की अन्तर-दशा में जातक की जिव्हा में भी कुछ रोग होता है।

(४) यदि द्वितीयेश, षष्ठेश के साथ हो, अथवा द्वितीयेश जिस स्थान में बैठा हो उस स्थान का स्वामी अपने नवांशेश के साथ हो तो इन ग्रहों की दशा अन्तरदशा में जातक के दांत उखाड़े जाते हैं।

(५) यदि मेष, वृष अथवा वृश्चिक लग्न होऔर उसपर पापग्रह की दृष्टि हो तो जातक के दांत सुन्दर नहीं होते ।

 

        नासिका-रोग ।

(१) यदि द्वादश स्थान में कोई एक पाप ग्रह, वह स्थान में चन्द्रमा हो, षष्ठ भाव में शनि और लग्नेश, पापपह के नवमांश में हो तो जातक को पीनस-रोग होता है। अर्थात् उसको प्राण शक्ति नष्ट हो जाती है।

(२) यदि मंगल लग्न में हो और यह स्थान में शुक हो तो ऐसे जातक को नासिका किसी कारण से कट आती है |

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