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नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती

तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा’- इस मशहूर नारे को देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक जबरदस्त स्वतंत्रता सेना थे जिन्होंने अंग्रेजों के सामने आजादी के जोश से भरे स्वतंत्र भारतीयों की फौज बनाकर उन्हें अंग्रेजों के सामने खड़ा कर दिया था। उन्होंने पहली बार अंडमान में स्वतंत्र भारत का झंडा पहली बार लहराकर भारत के एक हिस्से को आजाद घोषित किया। पहले 23 जनवरी महज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती का प्रतीक था लेकिन साल 2021 से इस दिन को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।

हर साल 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती के मौके पर पराक्रम दिवस मनाते हैं। इस पराक्रम दिवस को मनाए जाने की शुरुआत नेताजी की 125वीं जयंती से हुई थी। आने वाले साल 2025 में नेताजी की 128वीं जयंती पराक्रम दिवस के रूप में मनाई जाएगी। नेताजी के सभी काम और लक्ष्य आज भी युवाओं के रगों में एक प्रेरणा बनकर दौड़ रहे हैं। फौलादी इरादों वाले ऐसे महान व्यक्तित्व के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।

कटक के प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व संभाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडें सी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।

नेताजी ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए आजाद हिंद फौज का गठन किया। जब दुनिया में जब भारत को सपेरे और गरीबों का देश कहा जाता था और महिलाओं के सामान्य अधिकारों पर चर्चा की जाती थी, तब नेता जी ने रानी झांसी रेजीमेंट का गठन करके महिलाओं को अपने साथ संघर्ष में जोड़ा।

 

इस रेजीमेंट में हर जाति, मजहब और क्षेत्र की महिलाओं को जगाकर अपने साथ शामिल किया और उसे आजाद हिंद फौज का नाम दिया गया। जब तथाकथित अन्य नेताओं और अहिंसा वादियों ने सुभाष चंद्र बोस जी जैसे शख्सियत की कदर नहीं की और उनके विचारों से सहमति नहीं जताई तो वे अकेले ही अपनी आजाद हिंद फौज के साथ पथ पर चल दिए।

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