√•जब तब मुख बन्द करके मैं गुनगुनाता रहता हूँ-“भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्’ वाक्य। आज विचार कर रहा हूँ कि गिरिजापति कौन है ? गिरि = पर्वत, गिरिजा = पर्वत से जायमान= नदी। गिरिजापति= नदीपति= समुद्र = लक्ष्मी के पिता, विष्णु के श्वसुर विष्णु पिता विहीन हैं तो लक्ष्मी श्वसुरहीन हैं। इन दोनों को आश्रय देने वाला, अपने यहाँ रखने वाला समुद्र परमदेव है।
√•गिरि= गिरी = गिरा = वाणी।
√•गिरिजा = वाणी से जायमान = स्तुति, मन्त्र, वेद, ज्ञान।
√•गिरिजापति=सर्वज्ञ परमेश्वर =चतुर्वेदी चतुर्मुख ब्रह्मा
√•समुद्र = सह + मुद् + रन्= प्रसन्नता से युक्त = सतत प्रसन्न=खिला हुआ=चमकीला=प्रकाशमय=सूर्य=ज्ञानयुक्त = शान्त शिव।
√•जो ज्ञानी है, वही शान्त है। जा साद है, वही शिव है। यह शिव गिरिजापति है। मन को यह प्रिय है। इसलिये मन शान्त है। मैं इस शान्त मन से श्री महाराज जी को प्रणाम करता हूँ। विस्तार का कोई अन्त नहीं। आकाश विस्तृत है। अतः दशम के वर्णन से विमुख होकर मैं एकादश में उन्मुख होता हूँ। एकादश भाव लाभ है। संख्या ११ कुम्भ है। कुम्भ स्थिर राशि है। अतः लाभ स्थिर होना चाहिये। अर्थात् जीवन में स्थिरता लाभ है। जो स्थिर है, एक देश में है, वह लाभ में है। जिस का मन स्थिर हो गया, बुद्धि स्थिर हो गयी, निश्चय ही वह जातक लाभ में है। सामान्य दृष्टि से धन प्राप्ति, स्त्री प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, आवास =प्रकाश = प्राप्ति वाहन प्राप्ति, सेवक प्राप्ति, पद प्राप्ति, प्रतिष्ठा प्राप्ति मित्र प्राप्ति, जय प्राप्ति, आरोग्य प्राप्ति, भोजन प्राप्ति लाभ होता है। किन्तु यह वास्तविक लाभ नहीं है क्योंकि इसमें स्थिरता नहीं है। धन समाप्त हो जाता है, स्त्री रूठ जाती है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, आवास ढह जाता है, वाहन नष्ट हो जाता है, सेवक भाग जाता है, पद छिन जाता है, प्रतिष्ठा गिर जाती है, मित्र शत्रु बन जाता है, जय पराजय में बदल जाती है, आरोग्य से पुनः रोग होता है, भोजन का अभाव होता है। अतः लाभ ऐसा होना चाहिये जो मिलने के बाद सदैव बना रहे, उस का क्षरण न होवे, वह न कम हो और न विकृत हो, न नष्ट हो। ऐसा लाभ है-स्थित प्रज्ञ होना।
√•पञ्चम बुद्धि एकादश लाभ को देखती है। बुद्धि =संख्या ५ तथा लाभ= संख्या ११। ये दोनों संखाएँ (राशियों) स्थिर हैं। अतः बुद्धि की स्थिरता स्थायी लाभ है। बुद्धि कभी टस से मस नहीं होती। किन्तु बुद्धि का पड़ोसी मन है। मन =४ कर्क राशि जो कि अस्थिर संख्या है। इसलिये सबका मन चंचल रहता है। यह चलायमान मन अपने पड़ोसी बुद्धि को चंचल कर देता है संग का प्रभाव तो होता है. बलवान निर्बल को दबा देता है, इस नीति सूत्र से जब मन बली होता है और बुद्धि निर्बल होती है तो मन उस बुद्धि को आक्रान्त करके अपने ही समान चंचल कर देता है। किन्तु यदि मन की अपेक्षा बुद्धि बली है तो वह उस मन को जकड़ कर स्वसमान स्थिर कर देती है।
√•चतुर्थभाव मन से एकादश लाभ भाव अष्टम है। इसका अर्थ हुआ अस्थिर मन की मृत्युस्थली लाभ भाव है। अधिक स्पष्टता के साथ, मन का मरना ही लाभ है। परन्तु मन तो अजर अमर है। मन की मृत्यु का अर्थ क्या है ? मन के स्वभाव का पूर्णतः परिवर्तित होना ही मन की मृत्यु है। मन अपनी स्वाभाविक चंचलता का त्याग कर दे, यहाँ मन की मृत्यु है। अतः मन का स्थिर होना ही मन की मृत्यु है। मन की मृत्यु तभी रोगी, जब बुद्धि उससे प्रबल होगी। बुद्धि को बलवान् कैसे बनाया जाय ? सांख्य दृष्टि से मूल प्रकृति का प्रथम विकार महतत्व (बुद्धि) है। इस बुद्धि से अहंकार तथा सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति होती है। इससे स्पष्ट है-मन का पितामह बुद्धि है। अतः बुद्धि श्रेष्ठ हुई मन से इसका समर्थन गोता से इस प्रकार है…
“मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धः परतस्तु सः।”
(गीता ३/४२)
√•मन से श्रेष्ठ बुद्धि है। बुद्धि से श्रेष्ठ चेतनतत्व है। वैसे भी देखा जाय तो बुद्धि कण्ठ के ऊपरी भाग मस्तिष्क शीर्ष स्थान में है तथा मन कण्ठ के नीचे हृदय के मध्य में है। सिर स्थिर है तो बुद्धि भी स्थिर है। हृदय चंचल गतिशील है तो मन भी चलनशील है जो ऊपर है, वह श्रेष्ठ है जो नीचे है, वह अपेक्षया अश्रेष्ठ है। स्थानीय वा स्थितिगत दृष्टि से भी मन से बुद्धि श्रेष्ठ है। इसे जानते हुए कभी भी बुद्धि को मन के वश में नहीं होने देना चाहिये। मन का संख्यात्मक मान = ४ तथा बुद्धि का संख्यात्मक मान ५। अतः मन< बुद्धि ।मन जब बुद्धि से योग करता है वह अपनी चंचलता में कमी कर देता है तथा बुद्धि भी अपनी स्थिरता कम कर देती है। दोनों मिल कर द्विस्वभाव रूप को प्राप्त करते हैं। क्योंकि मन (४) + बुद्धि (५) = ९। यहाँ ४ = अस्थायी / चर राशि, ५ स्थायी / अचर राशि ९= न स्थायी, न अस्थायी द्विस्वभाव राशि। यह चर-अचर के मध्य की स्थिति है। यह अनिश्चितता है इससे अनिर्णय = की स्थिति उत्पन्न होती है। बुद्धि भ्रमित वा संशयास्त होती है। यह नहीं होने देना है। पर यह हो कैसे?
√•एक सरल उपाय है- स्थिराय नमः स्थिर को नमन करने से देखने से मन बुद्धि का युगल चेतन जीव स्थिर होता है, शान्त होता है क्या स्थिर है ? आकाश इसमें अवकाश है। इसमें सब चर रहे हैं। यह आकाश गणेश है। यह वायु का पिता, अग्नि का पितामह, जल का प्रपितामह तथा पृथ्वी का परपितामह है। इसे मैं नमस्कार करते हुए अपने बुद्धि मन के युग्म को शान्त करता हूँ।
√• मन बुद्धि का युग्म हो भाग्य है ४ मन + ५ बुद्धि ९ भाग्य ।९= द्विस्वभाव राशि इसलिये भाग्य सब का द्विस्वभाव होता है भाग्य का उत्कर्ष – अपकर्ष हो उसकी द्विस्वभावता है। यह सबके जीवन में घटता है। लाभ में से भाग्य को घटा दिया जाय तो धन मिलता है। यह सरल सत्य है। ११ लाभ ९ भाग्य = २ धन यह धन स्थिर है। क्योंकि २ = स्थिर राशि इसलिये भाग्य का चक्कर छोड़ कर स्थिर धन पाने के लिये स्थिर तत्व परमेश्वर को मन बुद्धि दोनों से युक्त होकर सदा ही नमस्कार करते रहना चाहिये।
√•पञ्चम भाव पर एकादश भाव की दृष्टि पड़ती रहती है। पञ्चमस्थ बुद्धि की स्थिरता मन से संयुक्त होने पर भी एकादश के प्रभाव से स्थिर (यथावत बनी रहे यही लाभ है। ऐसा जातक स्थिर भी कहलाता है।
“दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥”
(गीता २ / ७६)
√• दुःखेषु अनुद्विग्नमनाः = दुःख प्राप्त होने पर भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता।
√•सुखेषु विगतस्पृहः = सुखों की प्राप्ति होने पर जो सर्वथा निःस्पृह रहता है।
√• वीतरागभयक्रोधः= जिसके राग, भय, क्रोध नष्ट हो गये हैं।
√• मुनिः स्थितधीः उच्यते = ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।
√•स्थितभी होना अत्यन्त कठिन है। जिसने यह वाक्य कहा है, वही ऐसा था अर्थात् श्रीकृष्ण स्थितभी हैं। मैं ऐसे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ।
√•परमलाभ स्थितधी होना है। यहाँ मोक्ष (आनन्द) है। यह दुःख-सुख से परे की अवस्था है। शरीर से परे कोई मोक्ष नहीं है। शरीरस्थ जीव को परम अवस्था का नाम ही मोक्ष है। मन और बुद्धि को परमात्मतत्व में लगाने से जो स्थिति उत्पन्न होती है, वह मोक्ष है। यह अनुभव साध्य है। ज्ञानी भक्त योगी जन इसका अनुभव करते रहे हैं। मैं इन सबको प्रणाम करता हूँ।
√•संत तुलसीदास जी कहते हैं कि राम की भक्ति के समान कोई लाभ ही नहीं है। ऐसा श्रुति संत और पुराण कहते हैं।
“लाभु कि किछु हरि भगति समाना ।
जेहि गावहि श्रुति कि सन्त पुराना॥”
(उत्तरकाण्ड रा.च.मा.)
√•भगवान् का भक्त कितना भी नौच क्यों न हो, वह राम को प्राण के समान प्रिय है। यह राम की वाणी है।
“भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ।।”
(उत्तर काण्ड, रा.च.मा.)
√• लाभ का लाभ भाग्य है। भाग्य स्थान एकादश से एकादश है। भाग्य से एकादश स्थान तृतीय है। इसलिये भाग्य का बल (बाहु) एकादश है। भाग्य और लाभ भाव एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। भले ही लाभ में मह हों, भाग्य स्थान ग्रहहीन होने पर लाभ अधिक नहीं होगा, लाभ से दुष्टि नहीं होगी। भाग्य में ग्रह हों, लाभ में मह न हों तो भाग्य पुष्ट नहीं होता, भाग्य निर्बल होता है। सभी लोग बड़े भाग्य वाले हैं। क्योंकि मनुष्य हैं।
“बड़े सुर भाग्य मानुष तन पावा ।
दुर्लभ सद्ग्रन्थन गावा ॥”
(उत्तरकाण्ड, रा.च.मा.)
√• मनुष्य शरीर को पाना बड़ा भाग्य (लाभ) है। यह योनि सुर दुर्लभ है। सद्ग्रन्थों में यह कहा गया। है। इस देह फल विषय सेवन नहीं, राम भजन है।
“एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्गउ अन्त स्वल्प दुःखदाई ॥”
(उत्तर काण्ड ।)
“देह धरे कर फल यह भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई ॥”
(किष्किन्धाकाण्ड ।)
√• राम के भजन का अर्थ है, अपने में राम को उतारना जागृत करना। राम सुन्दर। अतः राम भजन = सुन्दर बनना, सुन्दर होना। रूपवान् होना सुन्दर नहीं है। शीलवान् होना सुन्दर है। सद्गुण सम्पन्न, सदाचारयुक्त, शूरवीर, धर्मवीर, दानवीर होना ही राम भजन है। राम नाम जपने से व्यक्ति की जिह्वा सुन्दर हो जाती है। मद और मोह को त्याग कर के विचार किया जाय तो राम नाम के बिना वाणी में सौन्दर्य नहीं आता।
“राम नाम बिनु गिरा न सोहा
देखु विचारि त्याग मद मोहा ॥”
(सुंदर काण्ड)
√• भाव- २ वाक्स्थान है। यही धन स्थान है। अतः वाक् ही धन है। यह धन लाभ और भाग्य के अन्तर का फल है। अर्थात् भाग्य से अधिक पाना। लाभ = ११, भाग्य ९। लाभ- भाग्य = ११- ९ = २ = धन। यहाँ लब्धि, भाग्य ९ से २ अधिक है। राम से विमुख होने पर प्राप्त सम्पत्ति एवं प्रभुता चली जाता है। अतः इसका पाना न पाने के समान है।
“राम विमुख सम्पति प्रभुताई
जाइ रही पाई विनु पाई॥”
( सुन्दरकाण्ड )
√•भाव २=धन, भाव ११= लाभ का सुख है।
√•द्वितीय भाव एकादश से चतुर्थ है वा द्वितीय से एकादश भाव दशम (प्रतिष्ठा प्रभुत्व) है। द्वितीय और एकादश परस्पर केन्द्र में हैं। दोनों परस्पर प्रभावित करते हैं। भाव २ = धन। भाव ११ = लाभ । ११ = १ + १ = २ । अतः जो लाभ है, वही धन है तथा जो धन है, वही लाभ है। इस प्रकार, द्वितीय भाव = एकादश भाव। २ = ११ । धन लाभ । २ एवं ११ स्थिर हैं। इसलिये धन स्थिर होना चाहिये, लाभ स्थिर होना चाहिये। २ जिहा स्थिर होनी चाहिये। जिह्वा का स्थैर्य मौन | अतः मौन हो = वास्तविक धन है। मौनव्रती को मेरा नमस्कार।
√• कुण्डली में चार भाव ऐसे हैं जिनमें स्थिर राशियाँ होती है। ये आपस में एक दूसरे से केन्द्र में स्थित भी हैं। २ = धन, वाक्। ८ = मृत्यु, आयु ,५ = बुद्धि, प्रज्ञा ११ = प्राप्ति, लाभ।
√•इन चारों की पुष्टि के लिये जातक को सतत चेष्टाशील रहना चाहिये। १-द्वितीय भावाभिलब्धि = स्थायी सम्पत्ति का होना, शब्द का धनी होना। २- पञ्चम भावाभिलब्धि = अपनी आत्मा का विस्तार करना, प्रज्ञावान होना। ३- अष्टमभावभिलब्धि = पूर्णायु प्राप्त करना, मृत्यु पर विजय पाना, इच्छा मृत्यु होना। ४- एकादश भावाभिलब्धि = सर्वलाभ इन्द्रिय तृप्ति इच्छापूर्ति ये इस जीवन के चार पुरुषार्थ है। इस जीवन को ठीक से जीना इसका सार है।
√•भूत दृष्टि से ओझल हो चुका है, पीछे है। भविष्य दृष्टि की सीमा से आगे है, अदृश्य है। अदृष्ट और अदृश्य के बीच में जातक सदैव रहा करता है। इसलिये वर्तमान की चिन्ता करना है। यह अपने हाथ में है, पहुँच के भीतर है। अपनी सामर्थ्य एवं शक्ति के अनुसार इसका लाभ उठाना है। आगे पीछे को चिन्ता करना व्यर्थ है।
“गता सूनगतासूश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।”
( गीता २/११)
√•चार एपणाएं हैं-
√•१. वित्तेषणा = भाव २ = धन संचय की इच्छा।
√• २. पुत्रेषणा =भाव ५= सन्तान को इच्छा। √•३. जीवषणा = भाव ८ जीवन जीने की इच्छा।
√•४. लोकषणा = भाव ११ = लोकलाभ/सम्मान
√•यश, ख्याति की इच्छा। भाव ११ दशम का धन है। दशम यश है। अतः एकादश यश का संचय है, लोक प्रतिष्ठा है। यह सबसे बड़ा ऐहिक लाभ है। इसके लिये मनुष्य क्या नहीं करता ? यह अंतिम एवं प्रबलतम एषणा है।
√•पहले इन एषणाओं को प्राप्त करना है, बाद में इनसे परे होना है। इन्हें बिना प्राप्त किये इनसे परे नहीं हुआ जा सकता। पहले प्राप्ति, तब त्याग। बिना इन्हें पाये, इनका त्याग हो ही नहीं सकता। जो है ही नहीं, उसका त्याग ? यह मूर्खो का प्रलाप है।
√•प्राप्ति का एक क्रम है। सर्वप्रथम देह प्राप्ति होती है। इसके बाद धन धन के बाद पराक्रम, बाहुबल। तब सुख । सुखोपरान्त स्वरूप विस्तार, संतति विस्तार। पुनः अवरोधों पर विजय। इसके बाद कलत्र/सहयोगी का मिलना। फिर तप, पुण्य । तत्पश्चात् मान बड़ाई । तदुपरान्त शेष समस्त इच्छाओं की पूर्ति और अंत में इन सबका का त्याग अर्थात् ऊर्ध्वलोक गमन । यही द्वादश अरों वाला चक्र हैं। इस चक्र में सभी पिस रहे हैं। इसमें पिस कर भी इससे अक्षत निकलना जीवन की कला है। इसके परम कलाकार कृष्ण को मेरा प्रणाम।
संत कबीर का एक दोहा है-
“चलती chaकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ॥”
( कबीर वाणी। )
√•चाकी = चक्र। सृष्टि चक्र चल रहा है। जन्म और मृत्यु, मान और अपमान, सुख और दुःख, हानि और लाभ ही इसके दो पाट हैं। इनके बीच में यह जीव पिस रहा है। इसे देख कर कबीर जी रोते हैं-गहन चिन्तन करते हैं। जीव की नियति में पिसना वा दुःख भोगना है। इस दुःख से सन्त का द्रवित होना ही उसका रोना है।
√• लग्न शरीर है। यह दो भावों (पाटों) के बीच में है। एक पाट, दूसरा भाव धन है। दूसरा पाट, द्वादश भाव व्यय है। जीवन धन है, जीवन का अन्त व्यय है। धन और व्यय के मध्य में हम सब पिस रहे हैं। भाव १ = शरीर ।भाव २ = नासिका = श्वसनद्वार = प्राण स्थान ।भाव १२= जीवन का अन्त = प्राणहानि। प्राण सबसे बड़ा धन है। इसलिये प्राण सबको प्रिय है। प्राण और प्राणहानि के मध्य में रहते हुए जीव की दशा सचमुच शोचनीय है। अपनी इस शोचनीय स्थिति से पार होने का यत्न करने वाला जातक धन्य है। मैं उसे प्रणाम करता हूँ। संसार चक्की में पिसने से बच निकलना अर्थात् सुख दुःख के द्वन्द्व को पार करना भगवत्कृपा का फल है। यह कृपा कब, कैसे और क्यों होती है ? कहना कठिन है। किसी न किसी जन्म के पुण्य से सन्त दर्शन होता है। सन्त प्रभु का ही विग्रह है। प्रभु के इस विग्रह का दर्शन होना वास्तविक लाभ है। इस लाभ के लिये लालायित में साथ की आहुति देता हूँ।