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नर कंकाल

नर कंकाल!जी हाँ, नर कंकाल।एक नहीं, तीन-तीन नर-कंकाल !सभी मजदूरों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सभी के चेहरे स्याह पड़ गए थे। कोई भी खुदाई का काम आगे करने के लिए तैयार नहीं था।पुरातत्व विभाग में मेरी नई- नई नियुक्ति हुई थी उस समय और मेरे निर्देशन में पहली बार खुदाई का काम हो रहा था असम के उस घोर जंगली इलाके में। मनोहर लाल उस इलाके का ठेकेदार था, वह जंगल की कटाई का ठेका लिया करता था। उसी ने खुदाई के लिए 30-40 मजदूरों का इन्तजाम किया था।

बातचीत में मनोहर लाल से पता चला था कि वह टीला भुतहा है। रात में अक्सर प्रेतात्माएँ घूमती हैं वहां। टीले के बगल में बैताल बाबा का जो मंदिर है, सुनने में आता है कि अमावस की काली अँधेरी रात में वहां सारी प्रेतात्माएँ इकट्ठी होती हैं और जलसा करती हैं।मंदिर से कुछ दूर एक मंजिला पक्का मकान भी था। वह भी काफी पुराना हो चुका था। उसकी कई दीवारें गिर चुकी थीं।

खुदाई का काम बन्द हो जाने के कारण मुझे परेशानी हो रही थी। मैं अपने सहयोगी डा. सक्सेना को लेकर खुदाई की जगह पहुंचा। लगभग 16-17 फुट नीचे एक पक्के चबूतरे के भीतर वे तीनों नर-कंकाल मिले थे। मैंने ध्यान से देखा तो तीनों साबुत थे। कहीं से टूटे नहीं थे। उनमें से दो नर-कंकाल पुरुषों के और एक स्त्री का था। परीक्षण करने से पता चला कि दो कंकाल कम उम्र के थे। आगे के परीक्षण के लिए कंकालों की खोपड़ियां अलग कर अपने साथ लेता आया और उसकी सूचना अधिकारियों को दे दी।

उस दिन !साँझ का समय ! आकाश में काले बादल छाये हुए थे। वातावरण में घोर नीरवता छाई हुई थी। मैं धीरे-धीरे चलते हुए बेताल बाबा के मंदिर के टूटे चबूतरे पर बैठ गया। न जाने कब तक बैठ रहा खोया-खोया-सा। अचानक मकान के खंडहर की ओर से किसी के चीखने की आवाज़ आई। बड़ी दर्दनाक चीख थी वह। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। फिर मैं एक मिनट भी वहां नहीं रुका। सवेरे पिंगुल ने जो मेरा स्थानीय नौकर था, मुझे बताया–साहब, उस मकान में शास्त्रीजी का भूत रहता है। कभी-कभी वही चिल्लाता है। फिर उसने मुझे जो बताया, वह सब बड़ा विचित्र लगा मुझे। उसने बताया–लगभग 40-50 साल पहले उस मकान में रमाकान्त शास्त्री नामक एक युवक रहता था। काफी पढ़ा-लिखा था वह। किसी एकान्त स्थान पर रहकर व दर्शनशास्त्र की पुस्तक लिखना चाहता था और इसी इरादे से वह एकान्त में बने मकान में रहने आया था। बाहर कम ही निकलता था वह। एक दिन न जाने वह कहाँ चला गया, लापता हो गया

 एकाएक और फिर आजतक वापस नहीं लौटा। पिंगुल से मुझे यह भीे पता चला कि रमाकान्त शास्त्री की शादी गांव के मुखिया लक्ष्मण प्रसाद की इकलौती बेटी रेखा से होने वाली थी। मुखिया ने ही रमाकान्त शास्त्री को शहर से बुलवाया था और अपना वह मकान उसे रहने के लिए दिया था। रेखा काफी सुन्दर आकर्षक युवती थी। पढ़ी-लिखी भी थी। रेखा रमाकान्त को और रमाकान्त रेखा को चाहने लगे थे। कभी कभी शाम के समय वे दोनों इसी टीले पर घूमने चले आते थे। घंटों बैठे बात करते रहते थे।

 

मगर जिस दिन रमाकान्त गायब हुआ, उसी दिन रेखा की लाश रमाकान्त के मकान के दरवाजे पर पायी गयी। वह अचानक कैसे मर गयी–इसका पता कभी किसी को नहीं चल पाया। डॉक्टरों ने बतलाया कि रेखा की ह्रदय गति बन्द हो जाने से मौत हुई थी। इस भयानक घटना से मुखिया को इतना सदमा पहुंचा कि वह पागल हो गए और कुछ ही दिनों में उनकी भी मृत्यु हो गयी। लड़की के सिवाय परिवार में और कोई नहीं था, इसलिए उनकी सारी लावारिस सम्पत्ति सरकार ने अपने कब्जे में ले ली।तुमको ये सारी बातें कैसे मालूम हुई?– मैंने पिंगुल से पूछा।

 

साहब, मेरी माँ मुखिया के घर वर्तन मांजती थी और मैं भी चाकरी करता था। उस समय वह टीला नहीं था। उसकी जगह एक बड़ा मंदिर था जो तीन तल्लों का था। दो तल्ला तो ज़मीन के भीतर और तीसरा तल्ला ऊपर था। जहां तक मेरा ख्याल है वह बौद्धों का मन्दिर था क्योंकि कभी-कभी बहुत सारे बौद्ध भिक्षु मन्दिर में इकट्ठे होते थे और अपना पूजा-पाठ करते थे।पिंगुल का कहना सही था। एक शिलालेख के आधार पर वहां एक प्राचीन बौद्ध मठ का पता चला था। कभी किसी समय तथागत ने अपने शिष्यों के साथ उस मठ में कुछ समय बिताया था। सरकार को भी वहां प्राचीन बौद्धकालीन वस्तुएं मिलने की सम्भावना थी। इसीलिए खुदाई की जा रही थी।पिंगुल की बातें सुनकर पूरी रात मेरे मन में रमाकान्त और रेखा का काल्पनिक चित्र उभरता और मिटता रहा। सोचने लगा–कहीं वे तीनों कंकाल रमाकान्त, रेखा और मुखिया के तो नहीं हैं ? अगर हैं तो तीनो एक साथ एक स्थान पर कैसे मिले ? मेरे सामने यह विकट प्रश्न था।

 

मजदूरों के अभाव में काम रोक देना पड़ा। डा. सक्सेना तो दिल्ली चले गए। मगर मैं वहीँ रह गया। इसलिए कि मनोहर लाल ने मजदूरों की व्यवस्था करने का मुझे वचन दिया था!एक दिन देखा–नर-कंकालों की खोपड़ियां गायब थीं। घोर आश्चर्य हुआ। काफी खोजने पर भी पता नहीं चला। कौन ले गया उनको ? इस घटना के दो-तीन दिन बाद एक युवक मुझसे मिलने आया केम्प में। काफी सौम्य और शान्त लगा मुझे। सुन्दर और आकर्षक तो था ही। पढ़ा-लिखा भी था । मगर उसकी भाव-भंगिमा मुझे कुछ विचित्र-सी लगी। जब मैंने पूछा कि क्या काम है उसे मुझसे तो वह शांति से बोला–जब मजदूरों का इन्तजाम हो जाये तो टीले के भीतर की खुदाई सावधानी से कराएं। वहां एक पुरानी पाण्डुलिपि मिलेगी जिससे सारे रहस्यों पर से स्वयं पर्दा हट जायेगा।

 

जब मैंने पूछा कि पाण्डुलिपि के बारे में उसे कैसे मालूम हुआ तो पहले तो उसने मेरी ओर घूर कर देखा फिर धीमे स्वर में बोला–मेरा नाम रमाकान्त शास्त्री है। यह पाण्डुलिपि मेरी खुद की लिखी हुई है।रमाकान्त शास्त्री !–चौंक पड़ा मैं।मगर इस नाम का एक युवक 40-50 साल पहले लापता हो गया था। अगर तुम वही रमाकान्त शास्त्री हो तो तुम्हारी आयु 70 के आसपास होनी चाहिए। मगर तुम तो अभी युवक हो ?
मगर मेरी बात का उस युवक ने कोई उत्तर नहीं दिया। बस, निर्विकार भाव से मेरी ओर देखता रहा वह।नर-कंकाल मेरी बातों का युवक ने कोई जवाब नहीं दिया, बस निर्विकार भाव से मेरी ओर देखता रहा। उस समय उसकी आँखों में एक प्रकार का अजीव-सा सम्मोहन उतर आया था। विचलित हो उठा मगर कुछ बोला नहीं गया मुझसे। सहसा बैठे-ही-बैठे उस युवक का शरीर एक भयंकर नर-कंकाल में बदल गया। भय से थर-थर कांपने लगा मेरा सारा शरीर। फिर न जाने मेरे शरीर में कहाँ से ताक़त आ गयी। पूरे वेग से केम्प से निकल कर मैं नदी की ओर भगा। संयोग से रास्ते में मोहन लाल मिल गया जिसे मैंने एक साँस में पूरा किस्सा सुना डाला। मेरी बात सुनकर वह बोला– मैंने तो आप से पहले ही कहा था कि यह पूरा इलाका भुतहा है मगर आप ही नहीं माने। खैर, अब आप मेरे मकान में रहिये।

 

एक हफ्ते में डा.सक्सेना लौट आये। मजदूरों का भी इंतजाम हो गया और खुदाई फिर से शुरू हो गयी। दो-तीन दिन की खुदाई से बौद्ध आश्रम की भूमिगत सबसे नीचे वाली मंज़िल निकल आई। दालान, आँगन और कमरे सफ़ेद और लाल संगमरमर के बने हुए थे। कमरे बिलकुल साफ थे। कमरे में एक अनिर्वचनीय सुगन्ध भी फैली हुई थी। कमरे के भीतर घुसते ही मेरा तन-मन पुलकित हो उठा। काफी देर तक मैं निर्विकार भाव से खड़ा रहा कमरे में। सहसा ऐसा लगा कि कोई अंतर्मन से मुझे पुकार रहा है। मगर वहां कोई दिखाई नहीं दिया।

 

सक्सेना साहब बगल वाले कमरे में थे। जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने इशारा करते हुए कहा–शर्माजी, देखो, यह क्या है ? कमरे की दीवार से सटा कर भगवान् तथागत की एक अति भव्य पाषाण प्रतिमा स्थापित थी वहां पर। तथागत की अभय मुद्रा थी। प्रतिमा लगभग तीन फुट ऊंची थी। भगवान् के कमलासन के बगल में एक संदूकची रखी हुई थी और उसके ऊपर लिखा हुआ था–‘शान्ति के दूत भगवान् तथागत के चरणों में’–रमाकान्त शास्त्री।मेरा शरीर काँप उठा। उस युवक की शक्ल भी तैर गयी दिमाग में। फिर संदूकची तोड़ कर खोली गयी। उसके भीतर मृगछाला में लिपटी हुई दर्शन शास्त्र की हस्त लिखित एक मोटी-सी पुस्तक रखी मिली और उसी के साथ कागज का एक मोटा पुलिंदा भी लिपटा हुआ मिला जिस पर लिखा हुआ था–‘ रमाकान्त शास्त्री की जीवन गाथा’। मेरे लिए जितनी मूल्यवान वह तथागत की मूर्ति थी, उतनी ही मूल्यवान रमाकान्त शास्त्री की जीवन गाथा भी थी।जीवन-गाथा का अंतिम अंश इस प्रकार था—और अब अपने जीवन की सबसे अधिक दुखदायी अद्भुत घटना का जिक्र करता हूँ। मेरी यह जीवन कथा जिसके हाथ लगे, उससे अब मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। आपने अब तक जीवन-कथा में जो कुछ पढ़ा है उससे आपको कहीं ऐसा तो नहीं लगा कि कहीं मेरा दिमाग ख़राब तो नहीं हो गया। कहीं मैं पागल तो नहीं हो गया।और तब मैं असीम वेदना से तड़प उठता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी इस कथा का एक-एक अक्षर सत्य है। मेरे पास धन संपत्ति की कोई कमी नहीं है कलकत्ता में मेरे अपने कई मकान हैं। कलकत्ता के कोलाहल पूर्ण जीवन से ऊब कर मैं असम के इस सुनसान शांत इलाके में आया था। मेरे एकाकी जीवन को माधुर्य से भर देने वाली एक सुन्दर-सुशील पत्नी भी प्राप्त होने वाली थी। सच तो यह है कि रेखा का आकर्षण ही मुझे यहाँ खींच लाया था।
सोचता हूँ रेखा ! जब तुम उस दिन सुबह मेरे यहाँ आने के लिए घर से निकली होगी तो मने अपने मन में कैसी-कैसी कल्पना की होगी। खैर ! छोडो यह सब। मैं तो भावना के प्रवाह में बहने लगता हूँ।रेखा के साथ मेरी शादी पक्की हो चुकी थी। मगर मैं अपनी हठ के कारण शादी करने को तैयार नहीं था। मैंने स्वामी विवेकानंद और बुद्ध के ग्रंथों का अध्ययन किया था। मुझे इस बात का विश्वास हो गया था कि धर्म केवल विवाद का विषय नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है। यदि परमेश्वर का अस्तित्व सचमुच है तो उसका प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देना आवश्यक है–इसी जन्म में और इन्हीं आँखों से और इसीलिए मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी जब तक ईश्वर प्राप्ति के किसी मार्ग का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लूंगा तब तक शादी नहीं करूँगा।
मैं घण्टों अशान्त मन लिए इधर-उधर टहलता रहता। एक दिन ऐसी ही मनोदशा में काफी देर टहलने के बाद मैं रेखा के घर गया। वह अकेली थी उस समय। भर्राये स्वर में मैं बोला–रेखा ! कल सवेरे मेरे यहाँ तुझे आना होगा।

किसलिये ?–चकित हो कर पूछा उसने। कोई खास बात नहीं, बस यों ही।
आप भी कैसी बातें करते हैं, शादी से पहले इस तरह मिलना-जुलना उचित है क्या ? दुनियां क्या कहेगी ? आपको हो क्या गया है ? मुझे कुछ नहीं हुआ है। लेकिन कल सवेरे तुम्हें किसी न किसी तरह से मेरे यहाँ आना होगा।रेखा मेरी बात का कोई जवाब दे, इससे पहले मैं वहां से चला आया। चल तो पड़ा। पर बाद में मेरा मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा। सोचा कि लौट कर कह दूँ कि रेखा ! मेरे यहाँ आने की जरुरत नहीं है। पर ऐसा कर न सका। काश ! लौट कर मना कर दिया होता। मगर नियति तो कुछ और ही चाहती थी। मेरे साथ मेरे ही हाथों से रेखा का सर्वनाश जो लिखा था ! रास्ते में सोचने लगा–स्वामी राम कृष्ण और विवेकानन्द ने भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन किये थे लेकिन हज़ार कोशिश करने के बाद भी मैं भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन न कर सका। मुझे किसी ऐसे गुरु से भेंट हो जाती जो मेरी इस लालसा को पूर्ण कर देता। दुर्भाग्य से यह मेरी लालसा पूर्ण हो गयी। जैसे ही मठ के निकट पहुंचा, एकाएक मेरी नज़र एक सन्यासी पर पड गयी जो ध्यानस्थ बैठा था मठ के चबूतरे पर। वह शायद अघोरी सन्यासी था। आयु रही होगी कोई 70-80 साल की। उसके चेहरे पर तेज था। न जाने किस प्रेरणा से मैं उसके सामने जाकर बैठ गया। लगभग एक घंटे के बाद उसने अपनी आँखे खोलीं और कौतूहल से मेरी ओर देखते हुए उसने पूछा– तुम कौन हो बेटा ? मैंने अपना नाम बतला दिया। उम्र क्या है ? पच्चीस वर्ष।सन्यासी काफी देर मौन साधे बैठा रहा। फिर मौन भंग हुआ। मेरी ओर स्थिर दृष्टि से देखते हुए वह बोला-बेटा, लगता है, तू काफी दुःखी है। बता, तू क्या चाहता है ? मैंने उसके सामने अपने मन की वास्तविक अवस्था खोल कर रख दी।

 

तुम जिस चीज़ का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते हो, उसके लिए तो योगियों को भी अनेक जन्म लेने पड़ते हैं। कई-कई जन्म तपस्या करने के बाद कहीं उसका थोडा-सा ज्ञान हो पाता है। मैं तुझे ईश्वर का तो दर्शन नहीं करा सकता पर उसके साक्षात्कार के प्रयत्न करने के लिए जिस लम्बी आयु की आवश्यकता होती है, वह मैं तुझे दे सकता हूँ। अर्थात् इच्छा मरण शक्ति। तू इस शक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी है। बेटा, यही कारण है कि मैं तुझे इस शक्ति को देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन इसके लिए मेरी एक शर्त है। यह अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेने के बाद तुझे उस समय तक के लिए अपना शरीर, अपना मन- बुद्धि आदि सबकुछ मेरे आधीन कर देना होगा। इच्छा मरण की शक्ति प्राप्त करना कोई आसान थोड़े ही है। सन्यासी की बात सुनकर मैंने वह शक्ति प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। इस विषय में कोई सोच-विचार करने की ज़रूरत नहीं समझी।आप मुझे वह शक्ति दीजिये। मैं सब तरह से तैयार हूँ। मैं पूरी तरह आपके आधीन होने के लिए तैयार हूँ। मेरे मुंह से इतना निकलते ही वह साधू मेरी ओर देख कर मुस्कराया। काश ! उस समय उस मुस्कराहट का रहस्य मैं समझ पाता। फिर वह अपने साथ इसी कमरे में लेकर आया और पद्मासन में बैठने का आदेश दिया। मैने तुरन्त आदेश का पालन किया। दूसरे पल मेरी साँस धीमी पड़ने लगी। स्थिर होने लगा मन। पलकें बोझिल होती गयीं। मुझे लगने लगा कि मेरी समस्त चेतना सुप्त होती जा रही है।। उस अर्ध-जागृत अवस्था में मुझे उस साधू के ये अधिकार पूर्ण शब्द सुनाई दिए–मैं जैसा जो कहूँगा, वही तुम्हें करना होगा। कहो–अपने आपको मैं देख सकूँगा किन्तु स्पर्श नहीं कर सकूँगा। मैं अपने आपको देख सकूँगा पर न तो उससे बातचीत कर सकूँगा और न नुकसान पहुंचा सकूँगा।–इन शब्दों को मैंने दोहरा दिया। शब्दों में निहित विचित्रता पर ध्यान देने की शक्ति मुझमें बाक़ी नहीं रह गयी थी। मैंने उक्त शब्दों का उच्चारण किया ही था कि मुझे साधू के ये शब्द सुनाई दिए–तुमने इच्छा- मरण-शक्ति प्राप्त कर ली। और तभी मेरी शेष चेतना भी लुप्त हो गयी।

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