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सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र

सत्य की चर्चा जब भी कही जाएगी, महाराजा हरिश्चन्द्र का नाम जरूर लिया जायेगा। सूर्यवंशी सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चंद्र, जिन्हें उनकी सत्यनिष्ठा के लिए आज भी जाना जाता है। उनकी सत्य के प्रति निष्ठा उनके सैकड़ों साल बाद भी सत्य का प्रतीक बनी हुई है। इनका युग त्रेता माना जाता है। राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा थे जो सत्यव्रत के पुत्र थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अद्वितीय हैं और इसके लिए इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े। ये बहुत दिनों तक पुत्रहीन रहे पर अंत में अपने कुलगुरु वशिष्ठ के उपदेश से इन्होंने वरुणदेव की उपासना की तो इस शर्त पर पुत्र जन्मा कि उसे हरिश्चंद्र यज्ञ में बलि दे दें। पुत्र का नाम रोहिताश्व रखा गया और जब राजा ने वरुण के कई बार आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी न की तो उन्होंने हरिश्चंद्र को जलोदर रोग होने का शाप दे दिया।

रोग से छुटकारा पाने और वरुणदेव को फिर प्रसन्न करने के लिए राजा वशिष्ठ जी के पास पहुँचे। इधर इंद्र ने रोहिताश्व को वन में भगा दिया। राजा ने वशिष्ठ जी की सम्मति से अजीगर्त नामक एक दरिद्र ब्राह्मण के बालक शुन:शेपको खरीदकर यज्ञ की तैयारी की। परंतु बलि देने के समय शमिता ने कहा कि मैं पशु की बलि देता हूँ, मनुष्य की नहीं। जब शमिता चला गया तो विश्वामित्र ने आकर शुन:शेप को एक मंत्र बतलाया और उसे जपने के लिए कहा। इस मंत्र का जप कने पर वरुणदेव स्वयं प्रकट हुए और बोले – हरिश्चंद्र , तुम्हारा यज्ञ पूरा हो गया। इस ब्राह्मणकुमार को छोड़ दो। तुम्हें मैं जलोदर से भी मुक्त करता हूँ। यज्ञ की समाप्ति सुनकर रोहिताश्व भी वन से लौट आया और शुन:शेप विश्वामित्र का पुत्र बन गया।

 

सच पर आधरित विश्वामित्र कथा –

 

राजा हरिश्चंद्र सच बोलने और वचन. पालन के लिए मशहूर थे।

 

 

उनकी प्रसिद्धि चारों तरफ फैली थी।।                      

ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की प्रसिद्धि सुनी। वे स्वयं इसकी परीक्षा करना चाहते थे। राजा हरिश्चंद्र हर हालत में केवल सच का ही साथ देते थे। अपनी इस निष्ठा की वजह से कई बार उन्हें बड़ी-बड़ी परेशानियों का भी सामना करना पड़ा लेकिन फिर भी उन्होंने किसी भी हाल में सच का साथ नहीं छोड़ा। वे एक बार जो प्रण ले लेते थे उसे किसी भी कीमत पर पूरा करके ही छोड़ते थे। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य के मार्ग पर चलने के लिये अपनी पत्नी और पुत्र के साथ खुद को बेच दिया था।

इनकी पत्नी का नाम तारा था और पुत्र का नाम रोहित। एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने सपना देखा कि उन्होंने अपना सारा राजपाट विश्वामित्र को दान में दे दिया है। अगले दिन जब विश्वामित्र उनके महल में आए तो उन्होंने विश्वामित्र को सारा हाल सुनाया और साथ ही अपना राज्य उन्हें सौंप दिया। जाते-जाते विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं दान में मांगी। विश्वामित्र ने राजा को याद दिलाया कि राजपाट के साथ राज्य का कोष भी वे दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु को दोबारा दान नहीं किया जाता। तब राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएं हासिल की, लेकिन वो भी पांच सौ नहीं हो पाईं। राजा हरिश्चंद्र ने खुद को भी बेच डाला और सोने की सभी मुद्राएं विश्वामित्र को दान में दे दीं। अपनी मर्यादा को निभाया।

 

राजा हरिश्चंद्र ने खुद को जहां बेचा था वह श्मशान का चांडाल था, जो शवदाह के लिए आए मृतक के परिजन से कर लेकर उन्हें अंतिम संस्कार करने देता था। एक दिन सर्प के काटने से इनके पुत्र की मृत्यु हो गयी तो पत्नी तारा अपने पुत्र को शमशान में अन्तिम क्रिया के लिये लेकर गयी।।             

वहाँ पर राजा ने रानी से भी कर के लिये आदेश दिया, तभी रानी तारा ने अपनी साडी को फाड़कर कर चुकाना चाहा, आसमान में बिजली चमकी तो उस बिजली की रोशनी में हरिश्चंद्र को उस अबला स्त्री का चेहरा नजर आया, वह स्त्री उनकी पत्नी तारावति थी और उसके हाथ में उनके पुत्र रोहिताश्व का शव था। अपनी पत्नी की यह दशा और पुत्र के शव को देखकर हरिश्चंद्र बेहद भावुक हो उठे। उस दिन उनका एकादशी का व्रत भी था और परिवार की इस हालत ने उन्हें हिलाकर रख दिया।

 

उनकी आंखों में आंसू भरे थे लेकिन फिर भी वह अपने कर्तव्य की रक्षा के लिए आतुर थे। भारी मन से उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि जिस सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने अपना महल, राजपाट तक त्याग दिया, स्वयं और अपने परिवार को बेच दिया, आज यह उसी सत्य की रक्षा की घड़ी है। उसी समय आकाशवाणी हुयी और स्वयं ईश्वर प्रकट हुए और उन्होंने राजा से कहा “हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित किया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा महान है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।”और राजा की ली जाने वाली दान वाली परीक्षा तथा कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की जीत बतायी।

हरिश्चंद्र ने ईश्वर से कहा “अगर वाकई मेरी कर्तव्यनिष्ठा और सत्य के प्रति समर्पण सही है तो कृपया इस स्त्री के पुत्र को जीवनदान दीजिए”। इतने में ही रोहिताश्व जीवित हो उठा। ईश्वर की अनुमति से विश्वामित्र ने भी हरिश्चंद्र का राजपाठ उन्हें वापस लौटा दिया गया l

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