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राम के तुलसी भाग – 10

बाबा की बात पर राजा भगत भी बोल उठे- “बकरीदी भइया ने एक बार हमें तुम्हें सुनाया भी रहा। तुमको याद है न, भइया?”

“इसी ज़मीन का सौदा करने राजा के साथ इनकें यहाँ गया था। तब इन्होंने ऐसे रोचक ढंग से पिछले समय की बातें सुनाई कि आँखन के आगे उनके सजीव चित्र उभर आए थे।”

गणपति जी भी उत्साह भरे स्वर में बोले- “बकरीदी काका, यह लोग बड़ी दूर से सुनने की खातिर आए हैं।”

बकरीदी काका ने एक बार अपनी झुकी कमर को तानकर सीधी करने का प्रयत्न किया, कहने का जोश छाती में फूला, घुँधली आँखें दूर अतीत में सधी पर वैसे ही खाँसी आ गई। बूढ़ी काया के भीतर जागती जवानी का संघर्ष उनके चेहरे पर तमककर उभरा और खाँसी को रुकना पड़ा।कुछ क्षण अपने गले की खराश पर विजय पाने में लगे, जिससे आवाज का जोश फिर कुछ थका थका सा हो गया। धीरे-धीरे बात उठाई, कहा- “अब हमारे भीतर वैसा जवानी का जोस तो रहा नहीं बच्चा, बाकी यह बात है कि हमारे अब्बा बताते रहे कि गोसाईं महाराज का जनम भया रहा उस दिन, वहीं बिरिया अब्बा बड़े महाराज के पास हमारे ग्रह-नछत्तर पूछने के लिये गए रहे….”

“बकरीदी भैया, राजकुआरी और बेड़नियों की बात बताओ पहले। तभी तो इन पंचों को गाँव की विपदा का अंदाजा लगेगा।”

राजा भगत की बात पर बकरीदी मियां ने समर्थनसूचक सिर हिलाया और नये जोश में कहना शुरू किया -“हाँ, तो ये भया कि हुमायूँ बादसाह रहे। तौन उनके बाप पठानों से दिल्‍ली फतह कर लिये और फिर चारों ओर देस में कयामत आयै गई। मुगल ऐसी जोर से आए कि कुछ न पूछौ। कही राजपूतों से ठनी, कही पठानों से कटाजुज्क हुआ। बस लूटपाट, मारकाट, आगजनी, यही हाल रहा। हमारे राजा साहेब जैसपुर के पठानों के साथ रहे।तब मुगल राजा साहेब की गढ़ी घेरि लीनी।आसपास के गावँन मा गुहार पड़ गई। हमरे गाँव की सरहद पर ब्राह्मन, छत्तरी, अहिर, जुलाहा सातों जात के सूरमा हरदम डेरा डाले रहे।

पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपकर खड़े हुए लगभग सौ-सवा सौ बहादुर उत्तर दिशा की ओर देख रहे हैं। उस दिशा में लगभग कोस भर की दूरी पर एक विशाल जंगल जल रहा है। लड़ाकों की गरज हुंकार कानों के पर्दे फाड़ रही है और उससे भी अधिक हजारों मनुष्यों का आर्तनाद भरा कोलाहल इन बहादुरों के चेहरों पर निराशा, क्षोभ और जोश की उड़न-परछाइयाँ डाल रहा है। कोई किसी से बोल नही रहा। मिलने पर आँखें प्रश्नों के उत्तर में प्रश्न ही पूछतीं हैं। आवाजें सुन-सुनकर इन लड़ाकौं में से किसी का ध्यान बरबस अपने हथियार लाठियों-भालों और तीर-कमानों पर जाता है, कलेजों से हताश निश्वाँस ढल पड़ती हैं।

गाँव में माई के थान पर कुछ बुढ़ियाँ आपस में खुसुर-फुसुर बातें कर रहीं हैं- “अरे ई दैउ के बज्जर अस जौन-जौन गरज रहे है उनसे कौन जीत सकत है भला।”

“हमे तुम्हें तो आत्मा की बहुरिया ने अटकाय लिया। नहीं तो अपनी बिटियन बहुरियन के साथ हम भी जमना पार हुई जातीं अब तलक।”

“अब भाई, जनम मरन तो कोऊ के बस की बात है नाहीं। हुलसी बिचारी तो आप दुखियाय रही है। कल संझा के बखत इत्ते-इत्ते दरद उठे पर फिर बन्द हुई गए। रात से तौ बिचारी के ज्वर भी चढ़ि आया है। हमतें रोय के कहै कि भौजी जाने कौन ब्रह्मराक्षस हमरे पेट में आयके बैठा है।

“अरे, महराजिन, ये लड़ाई झगड़ा , जीता-मरना तो रोज का खिलवाड़ है। हमरी जिठानी के भी बाल-बच्चा होय वाला है आजकल में। हम भी तो अटके बैठे है, का करें। हुसैनी जोलहा आय रहा है।इसकी घरैतिन ने भी तौ परी कि नरौ बेटा जना है।” सुकरू अहिर की घरैतिन बोली।

हुसेनी जुलाहा अपनी बगलों में बैसाखिया लगाए इधर ही आ रहा है। चेहरे से खाता-पीता खुश और आयु में ३५-४० के बीच का लगता है। भाई के चबूतरे पर बैठी महराजिनो में से एक बूढी ने पूछा -“हुसेनी, लड़ाई का समाचार कुछ पायो?”

“सलाम बुआ। धौकलसिंह गद्दारी कर गए। गढ़ी टूट गई है। राजा साहेब मारे गए। अब लूट मची है।”

“तब तो जानो कि हमारा गाँव बचि गया। मुगल अब इधर न आवैं साइत।”

“हाँ , कहा तो यही जाय रहा है, बाकी बुआ, लुटेरे-जल्लादन का कौन ठिकाना।”

मैदान तें लगे हुए घर के द्वार से एक कुरूप प्रौढ़ा दासी निकली और हुसेनी द्वारा बुआ कही जाने वाली बूढी से हड़बड़ाहट भरे स्वर में कहा- “पंडाइन भौजी, चलौ-चलौ, दाई बुलावत है, बखत आय गया।”

पंडाइन जल्दी से उठी। हुसैनी बोले-“हम भी महराज के पास आए है, चलौ।”

छोटी सी कच्ची बैठक में पचीस-तीस बरस की आयु वाले दुबले-पतले चिन्तातुर ज्योतिषी आत्माराम चटाई पर छोटी सी चौकी पर रखे कभी पोथी के पन्ने और कभी पंचाग पर दृष्टि डालकर मिट्टी की बत्ती से पाटी पर कुछ गणित भी फैलाते जाते हैं। तभी हुसैनी की बैसाखियाँ दरवाजे पर खटकती हैं।

“सलाम महराज”

“आशीर्वाद, बैठो-बैठो”

“हमारे लड़के के नछत्तर विचारे महराज?”

“हुँ हुँ, अभी बताते हैं।” हिसाब पूरा किया और आत्माराम ने हताश होके पाटी और बत्ती चटाई पर एक ओर सरकाकर निश्वाँस ढील दी।

“क्या कोई असगुन विचार में आया महराज?”

“तुम्हारे लड़के की बात नहीं। राजा साहेब न बचेंगे”

“वह तो मर गए, महाराज”

“क्या, खबर आ गई है?”

“हाँ , इत्ती विरिया तो गढ़ी में लूटपाट चल रही है, कत्लेआम मचा है। अल्ला मिया की मरजी। अच्छा अब हमको आप बताय दे तो हम भी भागे। तारीगाँव में खाला के घर पर सब बाल-बच्चन को छोड़ आए हैं , वहीं लौट जायें।”

“तेरा बिटौना तो सौ बरस का आयुर्वेल लैंके आया है भागवान। जमीन- जैजाद पुत्र-कलत्र जावत सुख भोगैगा।हमने आज भोरहरे ही विचार किया था।”

 

दासी ने दरवाजे पर आकर उत्साह से थाली बजाई। सुनकर हुसैनी और आत्माराम पण्डित के चेहरे चमचमा उठे। हुसैनी ने कहा-“मुबारक होय महाराज, हम अच्छी साइत से आए हैं।”पण्डित आत्माराम तब तक अपनी जलघड़ी वाली कटोरी के भीतर बनी रेखाओं को देखने में दत्त-चित्त हो गए थे। जलघड़ी का बारीकी से परीक्षण करके पंचाग पर नजर डाली।

क्रमशः

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