(दीर्घ जीवतीय – द्रव्य, वनस्पतियों का वर्णन)
द्रव्य के भेद – किलोषप्रशमनं किंखिद्धातुप्रदूषणम् । स्वस्थवृत्तौ हिते किचित् त्रिविधं द्रव्यमुच्यते ॥६७॥
द्रव्य (वस्तु, पदार्थ) के भेद :–
द्रव्य तीन प्रकार के हैं ।
(१) कुछ द्रव्य वात आदि दोषों का शोधन (शुद्ध करना) एवं शमन (शांत करना) करते हैं।
जैसे :–
तेल – वायु (हवा, गेस) का,
घी – पित्त (अग्नि, यकृत) का और,
मधु – कफ (बलग़म) का शमन (शांत) करता है। और,
(२) कुछ द्रव्य शरीर को धारण करने वाले वात आदि वा रस आदि को दूषित वा कुपित (क्रोधित) करते हैं और,
(३) कुछ द्रव्य स्वास्थ्य का रक्षण करते है, वे स्वस्थ अवस्था के लिए हितकारी हैं।
जैसे – लाल चावल, सांठी (मोटा चावल), जौ, जीवन्ती शाक (साग) आदि।
“शमनं कोवनं स्वस्थहितं द्रव्यमिति त्रिवा ॥” वाग्भटः ॥
तत्पुनस्त्रिविधं ज्ञेयं जातमोदिपार्थिवम् । मधूनि गोरसाः पित्तं वसा मज्जासृगामिषम् ॥६८॥ विण्मूत्रं चर्म रेतोऽस्थि स्नायुः शृङ्गं खुरा नखाः । जङ्गमेभ्यः प्रयुज्यन्ते केशा लोमानि रोचनाः ॥६९॥
द्रव्य (वस्तु, पदार्थ) फिर तीन (३) प्रकार के है :–
(१) (जांगम) – प्राणियों से उत्पन्न होने वाले, और
(२) (औद्भिद) – भूमि को भेदन करके पृथिवी में से उत्पन्न होने वाले वनस्पति आदि,
(३) (पार्थिव) – भूमि से उत्पन्न होने वाले, खनिज ।
जंगम द्रव्य (चलने-फिरने वाला) – मधु (शहद) [१] गौरस, दूध, घी, आदि, पित्त, वसा (चर्बी), मज्जा, रक्त, मांस, विष्ठा, मूत्र, चर्म, वीर्य, अस्थि, स्नायु, सींग, नख, खुर, (केश) शिर के बाल, (रोम) शरीर के बाद, रोचना अर्थात् गोरोचना, – ये जंगम (चलने-फिरने वाला) प्राणियों से लेकर व्यवहार में लाये जाते हैं ॥६८-६९॥
[१] माक्षिकं भ्रामरं क्षौद्रं पौतिकं मधुजातयः ।
भौस द्रव्य – सुवर्ण समलाः पञ्च लोहा : ससिकताः सुधा मनःशिलाले मणयो लवणं गैरिकाञ्जने ॥७०॥ भौममौषधमुद्दिष्टम्, औद्भिदं तु चतुर्विधम् । वानस्पतीर्वीरुधक्षच वानस्पत्यस्तथौषधिः ॥ ७१ ॥
(पार्थिव) – स्वर्ण, और इसका मल (शिलाजीत) पांच (५) प्रकार के लोह जैसे – (रांगा, सीसा, ताम्बा, चांदी, और लोहा, (सिकता) बालू, (सुधा) चूना, पार्थिव विप, मनः शिला, (आल) हरताल, (मणि) स्फटिक आदि, लवण सैन्धव आदि, [ गैरिक ] गेरु, (अंजन) सुरमा, – ये पार्थिव (पृथ्वी से उत्पन्न) औषध कहे हैं।
औद्भिद (धरती के अंदर से फूटने या व्यक्त होनेवाला ) द्रव्य चार (४) प्रकार के हैं ।
वनस्पति, वीरुत्, वानस्पत्य, और औषधि ॥७०-७१॥
फलैर्वनस्पतिः, पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि । ओषध्यः फलपाकान्ताः, प्रतानैर्वीरुधः स्मृताः ॥७२॥
(१) वनस्पति – जिनमें बिना पुष्प के फल आता है, – वे ‘वनस्पति’ हैं, जैसे – गूलर, वट, पिलखन (पाकड़) आदि,
(२) वानस्पत्य – जिनमें फल और पुष्प दोनों आते हैं – उनको ‘वानस्पत्य’ अर्थात् वृक्ष कहते हैं, जैसे – आम, जामुन आदि,
(३) औषधि – जो फल आने पर नष्ट हो जाते हैं, – उनको ‘औषधि’ कहते हैं, जैसे – धान, चावल, जौ, गेहुं आदि और
(४) वीरुधू – जो लता के समान फैलने वाली हैं – उनको ‘वीरुधू कहते हैं जैसे – गिलोय आदि ॥७२॥
औद्भिद पदार्थों के काम में आने वाले अंग :–
मूलत्वक्सारनिर्यासनालस्वरसपल्लवाः । क्षाराः क्षीरं फलं पुष्पं भस्म तैलानि कण्टकाः ॥७३॥ पत्राणि शुङ्गाः गः कन्दाच प्ररोहाश्रौद्धिदो गणः ।
मूल, त्वचा, (सार) अन्दर का स्थिर सार भाग, (निर्यास) गोंद, (नाङ) नाल, (स्वरस) पीड़न करके द्रव्य से निकाला हुआ रस, (पल्ल्व) परों आम, जामुन आदि के, क्षार, (क्षार) दूध, थोर (थूहर) आदि के फल, पुष्प, भस्म, तैल मिलावे आदि का कांटे, पत्ते, शुंग अर्थात छोटे-छोटे कांटे जो वृक्ष पर होते हैं।
जैसे सिम्बल के, कन्द अर्थात् फलहीन औषधियों के मूल, (प्ररोह) अंकुर यह ‘औद्भिद गण’ है ।
वनस्पतियों के ये उपरोक्त अंश काम में आते हैं ॥७३॥
मूलिन्यः पोडशंकांनाः फलिन्यो विंशतिः स्मृताः ॥७४॥ महास्नेहाञ्च चत्वारः पञ्चैव लवणानि च । अष्टौ मूत्राणि सङ्घातान्यष्टावेव पयांसि च ॥७५॥ शोधनार्थाश्च षड् वृक्षाः पुनर्वसुनिदर्शिताः । य एतान् वेत्ति संयोक्तुं विकारेषु स वेदवित् ॥७६॥
जिन वनस्पतियों का मूल प्रयोग करने योग्य है – वे ‘भूलिन’ हैं । ऐसी वनस्पतियां उन्नीस (१९) हैं।
और जिन वनस्पतियों का फल उपयोगी है – वे ‘फलिनी’ हैं, ऐसी वनस्पतियां उन्नीस (१९) हैं।
चार (४) महास्नेह हैं, जैसे – घी, तेल, वसा, और मज्जा।
पांच (५) प्रकार के – नमक (लवण) हैं।
आठ (८) प्रकार के – मूत्र (पेशाब) और
आठ (८) ही प्रकार के – दूध है।
और संशोधन के लिये छः (६) वृक्ष पुनर्वसु आत्रेय मे कहें हैं ।
जो विद्वान् वैद्य रोगों में इन सब का प्रयोग करना जानता है, वह आयुर्वेद को भली प्रकार से जानता है ॥७४-७६॥
सोलह (१६) ‘मूलिनी’ ओषधियों की गणना – हस्तिदन्ती हैमवती श्यामा त्रिवृदधोगुडा । सप्तला श्वेतनामा च प्रत्यवश्रेणी गवाक्ष्यपि ॥७७॥ ज्योतिष्मती च बिम्बी च शणपुष्पी विषाणिका । अजगन्धा द्रवन्ती च क्षीरिणी चात्र षोडशी ॥७८॥
सोलह (१६) ‘मूलिनी’ औषधियों की गणना :–
१. हस्तीदन्ती (चका), २. हैमवती (श्वेत वच), ३. श्यामा (त्रिवृत), ४. त्रित् (लाल जड़ वाली निशोथ), ५. अधोगुडा (विधारा), ६. सप्तला (शिका काई), ७. शवेतनाम (श्वेत कोयल), ८. प्रत्यक् श्रेणी (दन्ती जमालगोटा), ९. गवाक्षी (इन्द्रायण), १०. ज्योतिष्मती (माल कंगनी), ११. बिम्बी (कन्दूरी), १२. शणपुष्पी (झन झनियां), १३. विषाणिका (उत्तरण), १४. अजगन्था (डुकु), १५. द्रवन्ती (जंगली एरण्ड), १६. क्षीरिणी (हिरवी) – ये सोलह (१६) हैं ॥७७-७८॥*
इनके कर्म – शणपुष्पी च बिम्बी च छर्दने हैमवत्यपि । श्वेता ज्योतिष्मती चैव योज्या शीर्षविरेचने ॥७८॥ एकादशावशिष्टा याः प्रयोज्यास्ता विरंचने । इत्युक्ता नामकर्मभ्यां मूलिन्यः फलिनीः शृणु ॥८०॥
इनके कर्म :–
ऊपर कही हुई सोलह (१६) मूलिनी औषधियों में, राणपुष्पी, बिम्बी (लाल लौकी, बेबी तरबूज), और हैमवती (श्वेतवचा) – ये तीन (३) वमन (क़ै करना, उलटी करना) कार्य में प्रयोग करनी चाहिये।
श्वेत अपराजिता, ज्योतिष्मती (मालकांगनी) – ये दोनों शिरोविरेचन (नाक से संबंधित) में, और शेष ग्यारह (११) वनस्पतियां विरेचन (थेरेपी, शुद्धिकरण) कार्य में प्रयोग करनी चाहिये ।
सब कामों में इनके मूल ही काम में लाने चाहिये । इस प्रकार से ये सोलह (१६) मूलवाली, वनस्पतियां नाम और कर्म सहित कह दी गयी हैं।
‘फलिनी’ वनस्पतियों का नाम सुनो ॥७९-८०॥
शङ्खिन्यथ विडङ्गानि त्रपुषं मदनानि च । आनूपं स्थलजं चैव क्लीतकं द्विविधं स्मृतम् ॥८१॥ धामार्गवमथेक्ष्वाकु जीमूतं कृतवेधनम् । प्रकीर्या चोदकीर्या च प्रत्युक्पुष्पा तथाऽभया अन्तः कोटरपुष्पी च हस्तिपर्ण्याश्च शारदम् ॥८२॥ कम्पिल्लकारग्वधयोः फलं यत्कुटजस्य च । धामार्गवमथेक्ष्वाकु जीमूतं कृतवेधनम् ॥८३॥
(१) शंखिनी (वनौषधि), (२) विडङ्ग (वायविंडग), (३) त्रपुत्र (खीरा, ककड़ी), (४) मदन (मैनफल), (५) आनूप क्लीतक (जल में पैदा होने वाली मुलहैठी), (६) स्थलज क्लीतक (शुष्क भूमि में पैदा होने वाली मुलहैठी),
(७) धामार्गव (बड़ी तुरई), (८) इक्ष्वाकु (कड़वी तुरई), (९) जीमूत (वन्दाल), (१०) कृतवेधन (तुरई), (११) कडुवी प्रकीर्य्या और, उदकीर्य्या (दो प्रकार के करंज), (१२) प्रत्यक पुष्पा (अपामार्ग),
(१३) अभया (हरड़), (१४) अन्तःकोटरपुष्पी (घाव पत्ता), (१५) शारदा हस्तिपर्णी (हस्तिशुण्डी, हस्तिपणर्णी के शरद् ऋतु में उत्पन्न फल), (१६) कम्पिल्लक (कमीला), (१७) आरग्बध (अमलतास), (१८) कुटज (कूड़े का फल, इन्द्र जौ), – ये १८ ‘फलिनी’ वनस्पतियां हैं ॥८१-८३॥
इनके कर्म – मदनं कुटजं चैव पुषं हस्तिपर्णिनी । एतानी वमने चैव योज्यान्यास्थापनेषु च ॥८४॥ नस्तः प्रच्छर्दने चैव प्रत्यक्पुष्पा विधीयते । दश यान्यवशिष्टानि तान्युक्तानि विरेचने ॥८५॥
इनके कर्म :–
शरद ऋतु में उत्पन्न फल :–
धामार्गव, इक्ष्याकु, जीमूत, अमलतास, मैनफल, कुड़े का फल, खीरा, और हस्तिपर्णी के शरद ऋतु में उत्पन्न फल है।
ये आठ (८) वनस्पतियां – वमन (उल्टी), आस्थापन बस्ति, और निरूह बस्ति (एक बलवर्धक औषधि) कर्म में प्रयोग करना चाहिये ।
[आस्थापन वस्ति (शोधक वस्ति): इसमें औषधीय क्वाथों को गुदा मार्ग से प्रवेश कराया जाता है, इसका उपयोग कमर दर्द, साइटिका आदि में किया जाता है। (बस्ति वात रोगों की विशिष्ट चिकित्सा है)।]
[जिस बस्ति कर्म में कोष्ठ (आमाशय में जमे मल) की शुद्धि के लिए औषधियों के क्वाथ, दूध और तेल का प्रयोग किया जाता है, उसे निरूह बस्ति कहते हैं।]
अपामार्ग (चिरचिटे) का फल – नस्य (नासिका) कर्म में प्रयोग करना चाहिये।
[नस्य कर्म – औषधि को नासिका (नाक) के माध्यम से हर्बल तेलों के रूप में दिया जाता है]
और शेष दस (१०) वनस्पतियों का प्रयोग विरेचन (दस्त लाना) कार्य में करना चाहिये।
इस प्रकार से ये सोलह (१६) ‘फलिनी’ वनस्पतियां नाम और कर्म द्वारा कह दी हैं ॥८४-८५॥
जय श्री कृष्णा