औरंगजेब चाहता तो पूरे मंदिर को तोड़कर, सारे अवशेषों को हटा कर, ज़मीन को एक दम समतल कर के भी मस्जिद बना सकता था।उसके पास न तो संसाधनों की कमी थी और न ही उसे उस समय कोई रोक सकता था। उसे सिर्फ एक आदेश देना था और बादशाह सलामत का हुकम बजाते उसके सिपहसालार… बड़े ही कुशल तरीके से पूरे मंदिर को नेस्तनाबूत कर के, एक नयी नींव पर एक नयी मस्जिद का निर्माण करवा देते।
किन्तु, ऐसा नहीं किया गया!
क्यूँ…? क्यूंकि ऐसा किया ही नहीं जाना था।
अपने शत्रु को ख़त्म करने से ज्यादा मज़ा, उसका मानमर्दन करने में आता है। मृत्यु तो एक क्षण का दर्द दे कर, फिर आराम कर जाती है। लेकिन अपने शत्रु को हर रोज, तिल तिल कर मरते देखना, शर्मिंदा होते देखना, उसके आत्मगौरव को छलनी होते देखना… इस सबका मज़ा कुछ और ही है।
ज़िल्लेईलाही ने यही तो किया।
उसने भारत की आत्मा पर चोट की। उसने सनातन के आत्मसम्मान को अपने पैरों तले रौंदने का लुत्फ उठाया। पश्चिमी दीवार को जस का तस छोड़ दिया गया… बाकी तीन दीवारें नयी उठाई गयीं। एक दीवार और तोड़ देता और नयी बना देता तो भला उसके खजाने पे क्या असर होना था…? पर यह नहीं करना था। बाबर के खानदान में यह नहीं हुआ करता था। वहां राम मंदिर को आधा तोड़कर उसी के अवशेषों पर, मस्जिद बनाये जाने की आनुवांशिक परंपरा थी। आख़िर उस परंपरा से च्युत कैसे हुआ जा सकता था?
जजिया लगाने वाले आलमगीर से किसी भी तरह की ढील छोड़ देने की अपेक्षा करना, बेमानी था। नंदी को नहीं तोड़ा गया? आख़िर दूर से ही पता लगना चाहिये कि यह मस्जि़द, शिव धाम को रौंद कर बनाई गयी है।
औरंगजेब को लगता था कि जितना बड़ा साम्राज्य उसने खड़ा कर दिया है, अगर वह ख़त्म भी हुआ तो उसे ख़त्म होने में कई हजार वर्ष लगेंगे। अर्थात हजारों वर्षों तक मंदिर के माथे पर रखी गयी मस्जिद रूपी यह जालीदार टोपी, हिन्दुओं को लज्जित करती रहेगी। उसकी 10 वाजिब गैरवाजिब औलादों में से कोई तो ऐसा निकलेगा ही जो साम्राज्य की सीमाओं को और आगे ले जाएगा।
रहीसही कसर वामपंथी इतिहासकारों ने पूरी कर दी। उन्होंने औरंगजेब को साफ सुथरा और नेक नीयत बताने के लिये, इतिहास के न जाने कितने पन्ने काले कर दिये।
जब तक शेर खुद लिखना नहीं जानेगा, इतिहास में वीरगाथाएँ तो शिकारी की ही लिखी जाएंगी।इन औरंगजेबी औलादों ने बड़े बड़े अक्षरों में लिखा… “आलमगीर तो टोपी सिलकर अपना खर्च चलाता था।” … तो?क्या फर्क पड़ता है इस से?
वह अपने धर्म की शिक्षाओं का पालन कर रहा था।वही शिक्षाएं जो यह भी सिखाती थी कि काफिरों को जीने का अधिकार नहीं है।उन पर जजिया लगाया जाना चाहिये,और हर तरीके से उनका मानमर्दन किया ही जाना चाहिये।
इन औरंगजेबी मानस पुत्रों ने ऐसी लॉलीपॉप भारतीय जन-मानस को चटाई, जिसका स्वाद सदियों तक हम चटखारे मारकर लेते रहे और हर चटखारे में “आलमगीर जिंदाबाद” के नारे लगाते रहे।