रामायण में वर्णित हरएक घटना अपने आप में मानव जाति के लिए मार्गदर्शन मिलता है | लेकिन कुछ घटनाये ऐसी हैं जिसे हम बार बार पढते हैं फिर भी संतुष्ट नहीं होते| उन्ही घटनाओं में से एक है भगवान राम और केवट का प्रसंग| यह घटना उस समय की है जब भगवान राम अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए अपनी पत्नी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास जा रहे थे |
वन के मार्ग में एक स्थान पर उन्हें गंगा नदी पार करना था| उनके साथ उस समय निषादराज गुह भी थे जो भगवान राम की मदद के लिए साथ में थे |गंगा तट का वह प्रदेश निषादराज के राज्य क्षेत्र में था |तट पर पहुँचने के बाद निषादराज ने उस घाट के केवट को यह सुचना दी की भगवान राम नदी पार करना चाहते हैं इसलिए वह जल्द उपस्थित हो|
भगवान राम के आगमन की खबर सुनकर केवट की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था | साधारण सा दिखने वाला वह केवट दरअसल भगवान राम का एक बहुत बड़ा भक्त था |वह यह जानता था कि भगवान के चरणों में तीनो लोकों की सत्ता है, और पूर्ण मुक्ति का मार्ग है| वह किसी भांति भगवान के चरणों में समर्पित होना चाहता था |लेकिन वह सीधा सीधा कैसा कहता?
भगवान राम की चरण वंदना के लिए उसने अति अनूठा मार्ग चुना| प्रेम और भक्ति से जुडा यह प्रसंग अपने आप में इतना अनूठा है कि हजारो सालों के बाद भी जब जब रामायण का जिक्र होता है तो केवट का जिक्र जरूर होता है | भगवान राम और केवट के इस प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस में बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है|
रामचरित मानस में वर्णित वह प्रसंग इस प्रकार है: अयोध्याकांड —
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
श्री राम ने केवट से [गंगा पार जाने के लिए] नाव माँगा, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया है। सब लोग कहते हैं कि आपके चरणों में कोई जादू है जो किसी वस्तु को मनुष्य बना देती है॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई।
पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई।
बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
जिसके छूते ही [अहिल्या की] पत्थर की शिला सुन्दर स्त्री हो गई । (मेरी नाव तो काठ की है) काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री [अहिल्या] की तरह स्त्री हो जाएगी, तब तो मैं लुट जाऊँगा (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥
मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि आप अवश्य ही पार जाना चाहते हैं तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धोने) की आज्ञा दें॥
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप नाव पर सवार करूँगा, अपने चरण पखारने के अलावा मैं कोई और उतराई नहीं चाहता । हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। तुलसीदास कहते हैं,केवट ने कहा, हे नाथ! हे कृपालु! भले ही लक्ष्मण मुझे तीर मार दे, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक मैं पार नहीं उतारूँगा।
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
केवट के प्रेम और भक्ति से युक्त अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्र जी जानकी जी और लक्ष्मण जी की ओर देखकर हंस पड़े॥
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥
कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई ! ठीक है तुम वही करो जिससे तुम्हारी नाव न जाए । जल्दी पानी लाकर पैर धो लो । देर हो रही है, हमे पार उतार दो॥
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥
यह देखकर गंगाजी सोचने लगीं] एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं (से बिनती कर रहे हैं)॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥
प्रभु के इन वचनों को सुनकर (श्री राम द्वार केवट से बिनती करता देखकर) गंगाजी की बुद्धि थोड़े समय के लिए मोहित हो गई कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं,परन्तु श्री राम के चरणों के पदनखों को देखते ही ,उन्हें पहचानकर, देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं,केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥
तब अति आनंद और भक्ति से पूर्ण केवट भगवान राम के कमल के समान सुंदर चरणों को पखारने लगा।[यह दृश्य देखकर] सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके(केवट के) समान कोई और भाग्यशाली नहीं है जिसने स्वयं भगवान के चरणों को पखारने का अवसर पाया॥
द
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
चरणों को धोकर केवट ने और उसके पुरे परिवार ने उस [पवित्र जल] को पिया |इस प्रकार उसने अपने सहित पुरे परिवार को मोक्ष का भागी बनाया| उसके बाद वह आनंदपूर्वक प्रभु श्री राम को गंगा के पार ले गया|
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव सेउतरकर दूसरी ओर] गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर श्री राम को दण्डवत प्रणाम किया। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥
पति के हृदय के भाव को जानकर सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जङित अँगूठी उतारकर दी । कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया(अर्थात मुझे तो सबकुछ मिला गया)! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी(अनंत काल के परिश्रम का पूर्ण फल मुझे मिल गया है)
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥
भावार्थ:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ और नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिरोधार्य करूँगा॥ (इस प्रकार केवट ने यह आग्रह भी किया कि लौटते समय प्रभु दुबारा उसे सेवा का अवसर दें)
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥
प्रभु श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी ने बहुत आग्रह किया, पर केवट ने कुछ नहीं लिया। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥
केवट ने श्री राम से उतराई में कुछ भी नहीं लिया बल्कि उसने यह वरदान माँगा कि वह सदैव भगवान राम का भक्त रहे और उनके चरणों में उसे स्थान प्राप्त हो| उसके इस निर्मल और निष्काम भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे निर्मल भक्ति का वरदान दिया|
भगवान के अनंत भक्त है लेकिन केवट जैसी निर्मल भक्ति का उदहारण कम ही मिलता है| केवट को अपने जीवन में बस कुछ ही पल मिले और उन पलों का केवट ने पूर्ण उपयोग किया| अपना ही नहीं उसने अपने पुरे परिवार और सभी पूर्वजों का भी उद्धार किया|
केवट की भक्ति हम सब के लिए आज भी एक उदहारण है जो यह साबित करता है कि अगर मनुष्य की भक्ति पवित्र हो तो उसका सम्पूर्ण उद्धार होना निश्चित है| ईश्वर कभी भक्त को निराश नहीं करते..!!