एक रात शंकराचार्य अपनी छोटी सी कुटिया के बाहर सड़क पर कुछ ढूंढ रहे थे।
जब उनका शिष्य अपने काम से लौटा, तो उसने यह देखा और उत्सुकता से गुरु से पूछा, “आचार्य, आप इस समय यहाँ सड़क पर क्या देख रहे हैं?”
शंकराचार्य ने उत्तर दिया, “मेरी सुई खो गई है, मैं उसे ढूंढ रहा हूं।”
शिष्य भी उसके साथ खोज में शामिल हो गया, लेकिन कुछ देर तक खोजने के बाद उसने पूछा, “क्या आप याद करने की कोशिश कर सकते हैं कि आपने इसे कहाँ छोड़ा होगा?”
शंकराचार्य ने कहा, ”बेशक, मुझे याद है। मैंने इसे झोपड़ी में बिस्तर के पास गिरा दिया।”
शिष्य ने इस अजीब उत्तर से बिल्कुल आश्चर्यचकित होकर कहा, “आचार्य, आप कहते हैं कि आपने इसे घर के अंदर खो दिया है, फिर हम इसे बाहर क्यों ढूंढ रहे हैं?”
शंकराचार्य ने मासूमियत से जवाब दिया, “दीपक में तेल नहीं बचा है, इसलिए घर के अंदर अंधेरा है। इसलिए मैंने इसे बाहर खोजने के बारे में सोचा, क्योंकि यहां पर्याप्त रोशनी है।”
अपनी हंसी रोकते हुए शिष्य ने कहा, “अगर आपकी सुई घर के अंदर खो गई है, तो आप उसके बाहर मिलने की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं?”
शंकराचार्य ने शिष्य की ओर मुस्कुराते हुए कहा, “क्या हम ऐसा नहीं करते हैं? हम बहुत दूर भागते हैं और अपने अंदर जो खोया है उसे खोजने के लिए आगे बढ़ते हैं। हम सभी अपने अंदर जो खोया है उसे बाहर खोज रहे हैं। क्यों ?सिर्फ इसलिए कि अंदर घुप्प अंधेरा है।
मूर्ख, क्या हम नहीं हैं?”
“अपने अंदर दीपक जलाएं और अपना खोया हुआ खजाना वहीं पाएं।”