हमारे शास्त्रों में प्रत्येक हिन्दू साधक व धर्मावलंबी को संध्यावंदन, अग्निहोत्र, पूजन-अर्चन, होम एवं पितृकार्य करना आवश्यक है। शास्त्रानुसार इन कार्यों को संपादित करते समय साधक को ‘पवित्री’ धारण करना आवश्यक माना गया है। हमारे शास्त्रों में ‘पवित्री’ से आशय कुश (Kush) अथवा स्वर्ण से बनी अंगूठी से होता है जिसे धारण किए बिना कोई भी धार्मिक कार्य की विशुद्धि व पूर्णता नहीं मानी गई है।
शास्त्रानुसार स्वर्ण की पवित्री का महत्व कुश की पवित्री से अधिक बताया गया है किंतु स्वर्ण की पवित्री धारण करना प्रत्येक श्रद्धालु के लिए संभव न होने के कारण शास्त्र में कुश की पवित्री की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है।
पवित्री को सदैव दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में धारण किया जाना चाहिए। कुश की पवित्री के लिए कुशा का होना आवश्यक है। शास्त्रानुसार पवित्री एवं अन्य पितृकार्य के लिए कुश को ठीक मुहूर्त में प्राप्त करना आवश्यक है।
किसी भी मास की अमावस को उखाड़ा गया कुश 1 मास तक पवित्र व शुद्ध रहता है।
इस कुश से बनी पवित्री देवकार्य के पश्चात पवित्र स्थान में सुरक्षित रखकर पुन: 1 माह तक उपयोग में ली जा सकती है किंतु भाद्रपद मास की अमावस जिसे विशेष रूप से ‘कुशोत्पाटिनी अमावस’ (Kushotpatini Amavasya) कहा जाता है। इस दिन प्राप्त किया गया कुश 1 वर्ष तक देवकार्य व पितृकार्य में उपयोग किया जा सकता है।
‘कुशोत्पाटिनी अमावस’ के दिन ‘हुं फट्’ के बीज मंत्र के साथ प्राप्त किया गया कुश एवं इससे बनी पवित्री का उपयोग 1 वर्ष तक किया जा सकता है। अत: ‘कुशोत्पाटिनी अमावस’ का विशेष महत्व होता है।
जो भी श्रद्धालुगण देवकार्य एवं पितृकार्य के लिए कुशा प्राप्त करना चाहते हैं, वे शुभ-लाभ के चौघड़िए में इस दिन प्राप्त कर सकते हैं।