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दिवाली: जीवन के उजालों से छठे सुख तक

 छठा सुख

चीन के लोगों में एक परंपरा है। वे जब एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं, तो कहते हैं — “तुम्हें सभी छः सुख प्राप्त हों।”
पहले पाँच सुख हैं — स्वास्थ्य, संपत्ति, प्रतिष्ठा, अच्छा जीवनसाथी और अच्छे बच्चे।

छठा सुख है — वह सुख जिसे व्यक्ति स्वयं समझे और खोजे।
यह सुख उसे किसी और से नहीं, बल्कि अपने जीवन में खुद तलाशना होता है।
जब कोई व्यक्ति दूसरे को यह आशीर्वाद देता है कि “तुम्हें छठा सुख मिले”, तो उसका मतलब होता है कि तुम अपने जीवन का असली सुख खुद खोज सको।

हमारे यहाँ भी ज्ञानेश्वर माउली ने कहा है —
जो जे वांछील तो ते, लाहो प्राणिजात”


(अर्थात् जो जिसे चाहे, वही उसे प्राप्त हो।)

हर व्यक्ति का यह छठा सुख अलग होता है।
समाज में हर किसी की जीवनशैली, आर्थिक स्थिति, और आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं।
इसलिए हर किसी का “छठा सुख” भी अलग होता है।

आज के समय में जो चीजें मुझे चाहिए, वही शायद मेरा छठा सुख हैं।
लेकिन मैं उस छठे सुख के पीछे भागना नहीं चाहता।
जो मेरे पास है, जो मुझे मिल रहा है — वही मेरा छठा सुख है।

अच्छे कार्यक्रम देखने को मिलें, यात्राएँ करने का अवसर मिले, शरीर स्वस्थ रहे — कम से कम बीमारी न हो,
अच्छा लिखने की प्रेरणा मिले — ये सब मेरे छठे सुख हैं।
अगर सूची बनाऊँ, तो ये बढ़ती ही जाएगी।

अब तक जो अधूरी इच्छाएँ रह गईं, उन्हें पूरा करने का अवसर मिले — वह भी एक छठा सुख होगा।

लेख के अंत में शांताबाई बताती हैं कि यह सुख कैसे मिलता है।
वे कहती हैं — इसका खोज अपने-आप लग जाता है।
यह सच भी है।
सुख के पीछे भागने से बेहतर है वर्तमान परिस्थिति को स्वीकार कर उसके साथ चलना।
उस मार्ग पर चलते हुए हमें आनंद के पेड़ मिलेंगे, झरने मिलेंगे, धूप-छाँव का खेल होगा, गुनगुनाती पगडंडी होगी…
अपने मन को संतुष्ट रखना ही सबसे बड़ा छठा सुख है।


शुभ दीपावली 🪔


जीवन के इस पड़ाव पर दिवाली एक अल्पविराम की तरह आती है।

जहाँ से हमें दिवाली याद है, वहाँ किसी का हाथ हमारे हाथ में होता था।
पटाखा जलाते समय हमारे हाथ किसी के हाथ में होते थे।
कोई हमें गोद में उठाता था, कोई भोर में जगाकर गरम तेल और गुनगुने पानी से अभ्यंग स्नान करवाता था।
आज वे उंगलियाँ छूट चुकी हैं, वे हाथ थक चुके हैं,
जो हमें गोद में उठाते थे — अब वे तस्वीरों से हमें मुस्कराते हुए देखते हैं।

फिर बड़े होते-होते अनेक दिवालियाँ याद आती हैं।
हर वर्ष की छाया उस दिवाली पर पड़ी होती है — कभी उजली, कभी धुंधली।
फिर भी वे चार दिन हमने हमेशा मनाए हैं।
दीयों की रोशनी में हमने उजाला चुराया है और अंधेरे को मुस्कराकर रोशन किया है।
समय के गर्भ में सभी प्रश्नों के उत्तर होते हैं,
और हमने उन्हें धीरे-धीरे खुलते हुए देखा है।

धीरे-धीरे हमारे हाथों में किसी और का हाथ आता है।
हमारी उंगलियों को किसी नन्हे हाथ की मुट्ठी थाम लेती है।
यह दिवाली अब जिम्मेदारी की होती है, समझदारी की होती है।
कई बार इस दिवाली में हम ही दीपक बन जाते हैं —
और अपने छोटे से संसार को रोशन करने की जिम्मेदारी हमारी होती है।
शांत वात का व्रत लेकर हम उसे निभाने की कोशिश करते हैं —
कभी काँपते हैं, कभी उजले पड़ते हैं…
बस सौभाग्य यह कि तेल कभी कम नहीं पड़ता,
वात बुझती नहीं, अंधेरा घेरता नहीं।

वो दिन भी पीछे छूट जाते हैं।
दीये के चारों ओर हमारी ओंजलियों (हथेलियों) के साथ कुछ और ओंजलियाँ जुड़ जाती हैं।
हम अपनी हथेलियाँ नहीं हटाते,
क्योंकि लगता है — उन नन्हे हाथों को अभी अनुभव नहीं, चटका लग जाएगा।
पर वे हाथ हमारी ऊष्मा ले रहे होते हैं,
और हम भीतर से शांत होते जा रहे होते हैं।

दीये की उस लौ को निहारते हुए हमें याद आता है —
कभी किसी से हमने यह प्रकाश का व्रत लिया था।
और अब हम वही उजाला आगे बाँट रहे हैं।
हम भीतर से आलोकित हो उठते हैं।

दिवाली अल्पविराम की तरह आती है,
नई आशाएँ, नए सपने, नई इच्छाएँ बोती जाती है।
नए प्रकाश में नए मार्ग दिखाती जाती है।

आज इस पड़ाव पर मेरी दिवाली पहुँची है 😊🪔

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