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राजा बलि और गोवर्धन पर्वत : दान, भक्ति और धर्म के प्रतीक

 

भारत की पौराणिक कथाएँ केवल देवताओं और असुरों की कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि वे जीवन के गूढ़ संदेशों का संग्रह हैं। ऐसी ही दो अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक कथाएँ हैं — राजा बलि की कथा और गोवर्धन पर्वत की कथा। पहली कथा हमें दान और विनम्रता का पाठ पढ़ाती है, जबकि दूसरी कथा भक्ति और संरक्षण का प्रतीक है। आइए दोनों प्रसंगों को विस्तार से समझें।

राजा बलि की कथा : दानवीरता और विनम्रता का उदाहरण

राजा बलि असुरों के राजा थे, परंतु अपने दानशील स्वभाव और सत्यप्रियता के कारण वे देवताओं तक में प्रसिद्ध थे। वे प्रह्लाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र थे। बचपन से ही उनमें परोपकार की भावना थी। वे अपने राज्य में किसी को दुखी नहीं रहने देते थे। उनकी दानवीरता इतनी प्रसिद्ध थी कि कहा जाता है, राजा बलि से बड़ा दानी कोई नहीं।”

बलि का साम्राज्य और देवताओं की चिंता

राजा बलि ने अपने पराक्रम से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी — स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल। उनकी बढ़ती शक्ति से इंद्र और अन्य देवता चिंतित हो उठे। वे भगवान विष्णु के पास गए और कहा — “प्रभु, असुर बलि ने हमसे स्वर्ग छीन लिया है, कृपया हमारी रक्षा करें।”

भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले — “बलि दानवीर है, परंतु उसका दान अहंकार में बदलने लगा है। उसे उसके ही दान से सबक सिखाया जाएगा।”

वामन अवतार : भगवान विष्णु की लीला

भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया — एक छोटे ब्राह्मण बालक के रूप में। वे बलि के यज्ञ स्थल पर पहुँचे जहाँ राजा बलि ब्राह्मणों को दान दे रहे थे। बालक वामन ने विनम्रता से कहा —
“राजन, मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए, जहाँ मैं अपना निवास बना सकूँ।”

राजा बलि ने हँसकर कहा — “मुझे लगा तुम सोना, गाएँ या रत्न माँगोगे, परंतु केवल तीन पग भूमि ही माँगते हो? ठीक है, जैसा तुम चाहो।”

शुक्राचार्य, जो बलि के गुरु थे, तुरंत समझ गए कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, स्वयं विष्णु हैं। उन्होंने बलि को चेताया — “राजन, यह कोई ब्राह्मण नहीं, स्वयं भगवान विष्णु हैं, सावधान रहो।”

परंतु बलि बोले — “यदि यह विष्णु हैं, तो इनके हाथों दिया गया दान मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य होगा।”

तीन पग भूमि की लीला

जैसे ही बलि ने वचन दिया, भगवान वामन ने अपना आकार बढ़ाना शुरू किया। पहले ही पग में उन्होंने पृथ्वी नाप ली, दूसरे पग में आकाश और जब तीसरे पग की बारी आई, तो कोई स्थान शेष नहीं था।

भगवान ने कहा — “अब बताओ बलि, तीसरा पग कहाँ रखूँ?”

राजा बलि ने विनम्र होकर उत्तर दिया —
“प्रभु, तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए।”

भगवान ने प्रसन्न होकर अपने पाँव से बलि के सिर पर आशीर्वाद दिया और उसे पाताल लोक का राजा बना दिया।
किंतु भगवान ने वचन दिया — “बलि, तुम्हारी भक्ति और दानशीलता अमर रहेगी। वर्ष में एक दिन मैं स्वयं तुम्हारे द्वार पर भिक्षा माँगने आऊँगा।”

इसी कारण दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में बली प्रतिपदा (दीपावली के अगले दिन) को बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है। यह दिन राजा बलि की सत्यनिष्ठा और विनम्रता का प्रतीक है।

राजा बलि की कथा का संदेश

राजा बलि की कथा हमें यह सिखाती है कि

  • दान का अर्थ अहंकार नहीं, समर्पण है।
  • ईश्वर के प्रति निष्ठा और सत्य की रक्षा सबसे बड़ा धर्म है।
  • शक्ति और संपत्ति क्षणभंगुर हैं, परंतु विनम्रता और धर्म अमर हैं।

राजा बलि ने जो सीखा, वही संदेश आज भी समाज को प्रेरित करता है — सच्चा बलिदान वही है जिसमें अपना अहंकार भी समर्पित हो।

गोवर्धन पर्वत : भक्ति और संरक्षण की कथा

दूसरी महान कथा है भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने की, जो भक्ति और प्रकृति संरक्षण का अद्भुत उदाहरण है।

इंद्र पूजा और कृष्ण का विरोध

गोकुल में हर वर्ष लोग इंद्र देव की पूजा करते थे। उनका विश्वास था कि वर्षा इंद्र की कृपा से होती है। परंतु जब बालक कृष्ण ने यह देखा, तो उन्होंने कहा —
“वर्षा इंद्र की नहीं, प्रकृति की देन है। हमे उस पर्वत की पूजा करनी चाहिए जो हमें जल, चारा और सुरक्षा देता है — गोवर्धन पर्वत।”

गोकुलवासी कृष्ण की बातों से प्रभावित हुए और उन्होंने इंद्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इससे इंद्र क्रोधित हो गए।

इंद्र का प्रकोप और कृष्ण का चमत्कार

इंद्र ने अपने मेघों को आदेश दिया — “जाओ और गोकुल पर प्रलयकारी वर्षा बरसाओ।”
चारों ओर अंधकार छा गया, बिजली कड़कने लगी, नदियाँ उफान पर आ गईं।

तब बालक कृष्ण ने अपनी छोटी ऊँगली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और कहा —
“गोकुलवासी आओ, इस पर्वत के नीचे शरण लो।”

सात दिनों तक निरंतर वर्षा होती रही, परंतु गोवर्धन पर्वत के नीचे सब सुरक्षित रहे। सातवें दिन इंद्र ने हार मान ली और भगवान कृष्ण के चरणों में झुक गए।

गोवर्धन पूजा का आरंभ

जब इंद्र ने क्षमा माँगी, तो कृष्ण ने कहा —
“इंद्र, हमें किसी भी शक्ति का अहंकार नहीं करना चाहिए। प्रकृति हमारी माता है, उसका सम्मान करना ही सच्ची पूजा है।”

उस दिन से गोवर्धन पूजा की परंपरा शुरू हुई। यह दिन दीपावली के अगले दिन, कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। लोग गायों की पूजा करते हैं, गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाते हैं और अन्नकूट का भोग लगाते हैं।

गोवर्धन पर्वत का आध्यात्मिक महत्व

गोवर्धन पर्वत केवल एक पौराणिक प्रतीक नहीं, बल्कि प्रकृति और ईश्वर के सामंजस्य का प्रतीक है।

  • यह हमें सिखाता है कि मानव का कर्तव्य है प्रकृति की रक्षा करना।
  • यह दर्शाता है कि भक्ति केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि समझदारी और करुणा का मेल है।
  • भगवान कृष्ण ने दिखाया कि सच्चा धर्म वह है जो सबका कल्याण करे।

गोवर्धन आज भी ब्रजभूमि में स्थित है और हर वर्ष लाखों भक्त गोवर्धन परिक्रमा करते हैं। कहा जाता है कि यह पर्वत स्वयं भगवान कृष्ण का स्वरूप है, और इसकी परिक्रमा करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।

दोनों कथाओं का सामंजस्य : राजा बलि और गोवर्धन पर्वत

अगर गहराई से देखा जाए तो राजा बलि और गोवर्धन पर्वत की कथाएँ दो अलग युगों की होते हुए भी समान संदेश देती हैं —
अहंकार त्यागो, धर्म अपनाओ, और भक्ति से जीवन को प्रकाशित करो।”

  • राजा बलि ने अपने अहंकार का त्याग कर विनम्रता सीखी।
  • श्रीकृष्ण ने इंद्र के अहंकार को शांत कर भक्ति का अर्थ समझाया।

दोनों कथाओं में ईश्वर यह सिखाते हैं कि जो व्यक्ति धर्म और विनम्रता के मार्ग पर चलता है, वही सच्चे अर्थों में महान होता है।

समकालीन सन्देश

आज के समय में भी ये दोनों कथाएँ अत्यंत प्रासंगिक हैं।

  • जब मनुष्य भौतिक शक्ति और धन के नशे में चूर है, तब राजा बलि का उदाहरण सिखाता है कि दान का अर्थ है — अहंकार का विसर्जन।
  • और जब मनुष्य प्रकृति का शोषण कर रहा है, तब गोवर्धन पर्वत याद दिलाता है — प्रकृति की रक्षा ही सच्ची पूजा है।

राजा बलि की कथा हमें सिखाती है कि सत्य और विनम्रता से बढ़कर कोई बल नहीं,
और गोवर्धन पर्वत की कथा हमें सिखाती है कि भक्ति का अर्थ प्रकृति और समाज की सेवा है।

इन दोनों प्रसंगों में ईश्वर का सन्देश एक ही है —

“जो दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करता है, वही सच्चा भक्त और सच्चा राजा है।”

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