एक बार जब भगवान श्रीकृष्ण लीला कर रहे थे, तो ब्रह्मा, शिव, इंद्र आदि सब देवता ठाकुर जी के समीप आए।
उन्होंने देखा कि ठाकुर जी अपने पीछे कुछ छुपा रहे हैं।
देवताओं ने पूछा –
“प्रभु! आप क्या छुपा रहे हैं?”
भगवान चुपचाप खड़े रहे। उनके हाथ में एक पात्र था, जिसे उन्होंने पीछे कर रखा था।
फिर देवताओं ने पुनः पूछा –
“प्रभु! क्या छुपा रहे हैं?”
भगवान धीरे से बोले –
“देखो, किसी को बताना मत… बड़ी मुश्किल से आज मैं कहीं से माखन लेकर आया हूँ।”
देवता बोले –
“प्रभु! फिर इसे छुपा क्यों रहे हैं? क्या यह बहुत कीमती है?”
भगवान बोले –
“अब इसकी कीमत मैं क्या बताऊँ?”
देवताओं ने कहा –
“प्रभु! आप जो अनंत कोटि ब्रह्माण्डों के नायक हैं, यदि आप इस माखन को छुपा रहे हैं तो यह अवश्य ही अनमोल होगा। कृपा करके हमें भी एक ग्रास दे दीजिए, ताकि हम भी इसका रसास्वादन कर सकें।”
भगवान बोले –
“नहीं देवताओं! यह माखन तुम्हारे सौभाग्य में नहीं है।
तुम स्वर्ग का अमृत पी सकते हो, पर ब्रजवासियों का माखन तो मैं ही खाऊँगा।
तुम लोग जाओ और अमृत पियो, पर यह माखन मैं तुम्हें नहीं दे सकता।”
देवता बोले –
“प्रभु! इस माखन में ऐसी कौन-सी अनमोल बात है, जो हम इसका आस्वाद नहीं कर सकते?
क्या यह माखन अमृत से भी बढ़कर है?
माखन तो माखन है, इसमें विशेष क्या है?”
इतना सुनकर ठाकुर जी की आँखें आँसुओं से भर आईं।
वे बोले –
“देवताओं! तुम्हें क्या पता, इस माखन को पाने के लिए मुझे गोपिनियों के सामने नृत्य करना पड़ा है।
जब मैं नाचा, तभी मुझे यह माखन मिला।”
!! ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भर माखन पर नाच नचावे !!
कुछ तो विशेषता होगी ही न, उस माखन में,
जो गोपियों के प्रेम से बना है और जिसे पाने के लिए स्वयं ठाकुर जी को नृत्य करना पड़ा।
वस्तुतः, भक्त के निःस्वार्थ हृदय की गहराइयों से निकला हुआ भजन ही भगवान का वास्तविक भोजन है।
भजन ही नवनीत माखन है…
भजन क्या है?
किसका करना है, और कैसा करना है?
यह समय-समय पर तत्वदर्शी संत ही समझाते हैं।
परमात्मा इसी प्रेमवश भजन को भोगस्वरूप स्वीकार करते हैं।
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन।।