Sshree Astro Vastu

हिन्दू संस्कार – नटराज के पैरों के नीचे कौन दबा रहता है।

जब भगवान शिव शंकर ने त्रिपुर नामक असुर का वध किया तो उसके बाद वे खुशी से झूमने लगे। नृत्य की शुरुआत में उन्होंने अपनी भुजाएं नहीं खोली क्योंकि वे जानते थे कि उससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा और सृष्टि का विनाश होने लगेगा। लेकिन भगवान शिव कुछ समय पश्चात नृत्य में इतने मगन हो जाते हैं कि उन्हें किसी तरह कि सुध नहीं रहती और खुल कर नृत्य करने लगते हैं जिसके साथ-साथ सृष्टि भी डगमगाने लगती है। तब उस समय संसार की रक्षा के लिये देवी पार्वती भी प्रेम और आनंद में भरकर लास्य नृत्य आरंभ करती हैं जिससे सृष्टि में संतुलन होने लगता है व भगवान शिव भी शांत होने लगते हैं। भगवान शिव को सृष्टि के प्रथम नर्तक के रूप में भी जाना जाता है।

 

वहीं ऐतिहासिक रूप से भगवान शिव के नटराज स्वरूप के विकास को सातवीं शताब्दी के पल्लव एवं आंठवी से दसवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य से जोड़ा जाता है। वहीं योगसूत्र के जनक महर्षि पतंजलि द्वारा बनवाये गये चिदंबरम में स्थित नटराज स्वरूप की भव्य मूर्ति पुख्ता प्रमाण भी मानी जा सकती है। हालांकि महर्षि पंतजलि ने भगवान शिव के नटराज स्वरूप को योगेश्वर शिव के रूप में निरूपित करने का प्रयास किया।

अपने नटराज स्वरूप में भगवान शिव एक बौने राक्षस पर तांडव नृत्य करते हुए लगते हैं। यहां शारीरिक दिव्यांगता को बौनापन नहीं माना बल्कि बौना अज्ञान का प्रतीक है। अज्ञानी व्यक्ति का कद समाज में हमेशा बौना माना जाता है। अज्ञान को दूर कर ज्ञान प्राप्त करने पर जो खुशी मिलती है उन्हीं भावों को शिव के इस स्वरूप में देखा जा सकता है। भगवान शिव की यह नृत्य भंगिमा आनंदम तांडवम के रूप में चर्चित है। इसी मुद्रा में उनके बायें हाथ में अग्नि भी दिखाई देती है जो कि विनाश की प्रकृति है शिव को विनाशक माना जाता है। अपनी इस अग्नि से शिव सृष्टि में मौजूद नकारात्मक सृजन को नष्ट कर ब्रह्मा जी को पुनर्निमाण के लिये आमंत्रित करते हैं। नृत्य की इस मुद्रा में शिव का एक पैर उठा हुआ है जो कि स्वतंत्र रूप से हमें आगे बढ़ने का संकेत करता है। उनकी इस मुद्रा में एक लय एक गति भी नजर आती है जिसका तात्पर्य है परिवर्तन या जीवन में गतिशीलता। शिव का यह आनंदित स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना अधिक यह विस्तृत है उतना ही अनुकरणीय भी है।

 

हम सभी ने भगवान शिव के नटराज रूप को कई बार देखा है। किन्तु क्या आपने ध्यान दिया है कि नटराज की प्रतिमा के पैरों के नीचे एक दानव भी दबा रहता है? आम तौर पर देखने से हमारा ध्यान उस राक्षस की ओर नहीं जाता किन्तु नटराज की मूर्ति के दाहिने पैर के नीचे आपको वो दिख जाएगा। क्या आपको पता है कि वास्तव में वो है कौन? आइये आज इस लेख में हम उस रहस्य्मयी दानव के विषय में जानते हैं।

 

भगवान नटराज के पैरों के नीचे जो दानव दबा रहता है उसका नाम है “अपस्मार”। उसका एक नाम “मूयालक” भी है। अपस्मार एक बौना दानव है जिसे अज्ञानता एवं विस्मृति का जनक बताया गया है। इसे रोग का प्रतिनिधि भी माना जाता है। आज भी मिर्गी के रोग को संस्कृत में अपस्मार ही कहते हैं। योग में “नटराजासन” नामक एक आसन है जिसे नियमित रूप से करने पर निश्चित रूप से मिर्गी के रोग से मुक्ति मिलती है।

 

एक कथा के अनुसार अपस्मार एक बौना राक्षस था जो स्वयं को सर्वशक्तिशाली एवं दूसरों को हीन समझता था। स्कन्द पुराण में उसे अमर बताया गया है। उसे वरदान प्राप्त था कि वो अपनी शक्तियों से किसी की भी चेतना का हरण कर सकता था। उसे लापरवाही एवं मिर्गी के रोग का प्रतिनिधि भी माना गया है। अपनी इसी शक्ति के बल पर अपस्मार सभी को दुःख पहुँचता रहता था। उसी के प्रभाव के कारण व्यक्ति मिर्गी के रोग से ग्रसित हो जाते थे और बहुत कष्ट भोगते थे। अपनी इस शक्ति एवं अमरता के कारण उसे अभिमान हो गया कि उसे कोई परास्त नहीं कर सकता।

 

एक बार अनेक ऋषि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ हवन एवं साधना कर रहे थे। प्रभु की माया से उन्हें अपने त्याग और सिद्धियों पर अभिमान हो गया और उन्हें लगा कि संसार केवल उन्ही की सिद्धियों पर टिका है। तभी भगवान शंकर और माता पार्वती भिक्षुक के वेश में वहाँ पधारे जिससे सभी स्त्रियाँ उन्हें प्रणाम करने के लिए यज्ञ छोड़ कर उठ गयी। इससे उन ऋषियों को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी सिद्धि से कई विषधर सर्पों को उत्पन्न किया और उन्हें भिक्षुक रुपी महादेव पर आक्रमण करने को कहा किन्तु भगवान शंकर ने सभी सर्पों का दलन कर दिया। तब उन ऋषियों ने वही उपस्थित अपस्मार को उनपर आक्रमण करने को कहा। स्कन्द पुराण में ऐसा भी वर्णित है कि उन्ही साधुओं ने अपनी सिद्धियों से ही अपस्मार का सृजन किया।

 

अपस्मार ने दोनों पर आक्रमण किया और अपनी शक्ति से माता पार्वती को भ्रमित कर दिया और उनकी चेतना लुप्त कर दी जिससे माता अचेत हो गयी। ये देख कर भगवान शंकर अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने १४ बार अपने डमरू का नाद किया। उस भीषण नाद को अपस्मार सहन नहीं कर पाया और भूमि पर गिर पड़ा। तत्पश्चात उन्होंने एक आलौकिक नटराज का रूप धारण किया और अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबा कर नृत्य करने लगे। नटराज रूप में भगवान शंकर ने एक पैर से उसे दबा कर तथा एक पैर उठाकर अपस्मार की सभी शक्तियों का दलन कर दिया और स्वयं संतुलित हो स्थिर हो गए। उनकी यही मुद्रा “अंजलि मुद्रा” कहलाई।

 

उन्होंने उसका वध इसीलिए नहीं किया क्यूंकि एक तो वो अमर था और दूसरे उसके मरने पर संसार सेउपेक्षा का लोप हो जाता जिससे किसी भी विद्या को प्राप्त करना अत्यंत सरल हो जाता। इससे विद्यार्थियों में विद्या को प्राप्त करने के प्रति सम्मान समाप्त हो जाता। जब उन साधुओं भगवान शंकर का वो रूप देखा तो उनका अभिमान समाप्त हो गया और वे बारम्बार उनकी स्तुति करने लगे। उन्होंने उसी प्रकार अपस्मार को निष्क्रिय रखने की प्रार्थना की ताकि भविष्य में संसार में कोई उसकी शक्तियों के प्रभाव में ना आये। नटराज रूप में महादेव ने जो १४ बार अपने डमरू का नाद किया था उसे ही आधार मान कर महर्षि पाणिनि ने १४ सूत्रों वाले रूद्राष्टाध्यायी “माहेश्वर सूत्र” की रचना की।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर के मन में एक आलौकिक नृत्य करने की इच्छा हुई। उसे देखने के लिए सभी देवता, यक्ष, ऋषि, गन्धर्व इत्यादि कैलाश पर एकत्र हुए। स्वयं महाकाली ने उस सभा की अध्यक्षता की। देवी सरस्वती तन्मयता से अपनी वीणा बजाने लगी, भगवान विष्णु मृदंग बजाने लगे, माता लक्ष्मी गायन करने लगी, परमपिता ब्रह्मा हाथ से ताल देने लगे, इंद्र मुरली बजाने लगे एवं अन्य सभी देवताओं ने अनेक वाद्ययंत्रों से लयबद्ध स्वर उत्पन किया। तब महादेव ने नटराज का रूप धर कर ऐसा अद्भुत नृत्य किया जैसा आज तक किसी ने नहीं देखा था। उस मनोहारी नृत्य को देख कर सभी अपनी सुध-बुध खो बैठे।

 

जब नृत्य समाप्त हुआ तो सभी ने एक स्वर में महादेव को साधुवाद दिया। महाकाली तो इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने कहा – “प्रभु! आपके इस नृत्य से मैं इतनी प्रसन्न हूँ कि मुझे आपको वर देने की इच्छा हुई है। अतः आप मुझसे कोई वर मांग लीजिये।” तब महादेव ने कहा – “देवी! जिस प्रकार आप सभी देवगण मेरे इस नृत्य से प्रसन्न हो रहे हैं उसी प्रकार पृथ्वी के सभी प्राणी भी हों, यही मेरी इच्छा है। अब मैं तांडव से विरत होकर केवल “रास” करना चाहता हूं।”

 

ये सुनकर महाकाली ने सभी देवताओं को पृथ्वी पर अवतार लेने का आदेश दिया और स्वयं श्रीकृष्ण का अवतार लेकर वृन्दावन पधारी। भगवान शंकर ने राधा का अवतार लिया और फिर दोनों ने मिलकर देवदुर्लभ “महारास” किया जिससे सभी पृथ्वी वासी धन्य गए।

 

तो इस प्रकार अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबाये अभय मुद्रा में भगवान शंकर का नटराज स्वरुप ये शिक्षा देता है कि यदि हम चाहें तो अपने किसी भी दोष को स्वयं संतुलित कर उसका दलन कर सकते हैं। महादेव का नटराज स्वरुप पाप के दलन का प्रतीक तो है ही किन्तु उसके साथ-साथ आत्मसंयम एवं इच्छाशक्ति का भी प्रतीक है।

 

।। जय श्री नटराजन ।।

🕉हिन्दू संस्कार🕉

आपका अपना संस्कार

सनातन धर्म और गौ माता की सदा जय हो

अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करें

🙏🏻जय जय श्री राम🙏🏻

आप सभी लोगों से निवेदन है कि हमारी पोस्ट अधिक से अधिक शेयर करें जिससे अधिक से अधिक लोगों को पोस्ट पढ़कर फायदा मिले |
Share This Article
error: Content is protected !!
×