एक दिन श्रीकृष्ण साधु-संतों का जब स्वागत कर रहे थे, पत्तलें बाँट रहे थे तब ऋषियों ने कहाः “कन्हैया ! यह सब करने की तुम्हें क्या जरूरत है ? तुम तो आदिनारायण हो ! यहाँ वसुदेव के बेटे होकर लीला कर रहे हो तो क्या हुआ ? हम तो तुम्हें पहचानते हैं। ये पत्तले बाँटने से और उठाने से तुमको क्या लाभ होगा ?”
श्रीकृष्ण कहते हैं- “पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से हृदय का अज्ञान नहीं मिटता है, लेकिन ब्रह्मवेत्ता सत्पुरूष की सेवा से वह कार्य हो जाता है। हजारों साधुओं में आप जैसे एकाध ब्रह्मज्ञानी महापुरूष भी मिल जाएगा तो मेरी सेवा सार्थक हो जाएगी। मेरे साथ जो सेवा कर रहे हैं उनका भी कल्याण हो जाएगा। इसलिए महाराज ! मुझे पैर धोने दो।
केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिटटी या पत्थर की प्रतिमायें ही देवता नहीं होती; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका (तीर्थों का) बहुत समय तक सेवन किया जाये, तब वे पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से कृतार्थ कर देते हैं । अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी, और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है । परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाये, तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं । महात्माओं और सभासदों ! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ – इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा – अपना ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना, और मिटटी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है – ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा ही है ।” (श्रीमद् भागवत: 10.84.11, 12, 13)
श्रीकृष्ण के इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पचास वर्ष की अपने ढंग की तपस्या, व्रत या नियम भी दो घड़ी के सत्संग की बराबरी नहीं कर सकते । इसलिए तुलसीदास जी की बात हमको यथार्थ और सचमुच में प्रिय लगती हैः
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।
सत्संग में आने से पाप तो नष्ट हो जाते हैं लेकिन हमारी पुरानी आदते हैं गलतियाँ करने की, उनसे हम पुनः पाप निर्मित कर लेते हैं। ईमानदारी से यदि सत्संग में बैठा जाए तो पाप नष्ट होते ही आनंद शुरू होता है। आनंद शुरू हो गया तो हम फिर से वासनाओं के अनुसार कर्म करने लगते हैं। जैसे, कपड़ा मैला था, साफ किया, फिर मैला किया, साफ किया, फिर मैला किया…. ऐसा हम लोग करते हैं।
यदि सत्संग सुनकर एकांत में चले जाएँ, ध्यान-भजन में चले जाएँ, दूसरा कोई पाप कर्म न करें और फिर सत्संग सुनें, ध्यान करें तो थोड़े ही दिन में मन शक्ति, बुद्धिशक्ति का अनुभव कर लेंगे।