आम तौर पर लोगों की इतिहास की जानकारी बहुत कम होती है | इस वजह से कई मक्कारों को फायदा हो जाता है | जिन्हें अपना खुद का इतिहास याद ही नहीं उन्हें ठगना आसान होता है | एक ही तरीके का इस्तेमाल बार बार करने में आसानी होती है |
इसका एक उदाहरण पुड्डुचेरी है | आम तौर पर भारतीय मानते हैं कि उनका देश फिरंगी हुकूमत से 1947 में आजाद हो गया था | साथ ही ये अवधारणा भी है कि भारत अहिंसात्मक, तथाकथित गांधीवादी तरीकों से आजाद हुआ था | ये नियम आधा सच है | भारत के एक बड़े भूभाग पर लागु होने के वाबजूद ये पूरा सच नहीं |
अभी हाल के विधानसभा चुनावों के बाद जिन इलाकों का जिक्र आ रहा है, वो सब ऐसे इलाके हैं जिन्हें आम तौर पर इतिहास से गायब रखा गया है | इनमें से एक है पुड्डुचेरी | ये जगह 1954 में आजाद हुई थी | यानि गोवा से पहले मगर बाकी भारत के बाद | पुड्डुचेरी की आजादी की लड़ाई को इन्टरनेट पर पढ़ लेना भी आपको कई सच्चाइयों से वाकिफ करवा देगा | कभी फुर्सत मिले तो कम से कम भारत की आजादी के बारे में तो पढ़ ही लीजिये | ऐसी ही और जगहों के बारे में भी पता चलेगा जो 1947 में आजाद नहीं हुई थी |
ओह, हां ! भारत की आजादी पर लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण, या तथ्यात्मक, अच्छी किताबें, विदेशियों ने लिखी हैं | जी हाँ अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं ज्यादातर | दिन में एक दो पन्ने का भी अनुवाद साल डेढ़ साल में इन किताबों को हिंदी में, या अन्य भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध करवा देता | अफ़सोस दिन में एक पन्ने का अनुवाद करने का समय हमारे राष्ट्रवादियों को पिछले 67 साल में मिल नहीं पाया है |
हड़प्पा का नाम सुनते ही क्या याद आता है ? पुरानी सभ्यता, भारतीय इतिहास और इन सब का बंटवारे में पकिस्तान चले जाना ? 1947 के बाद से इनपर काफी सर्वे हुआ है | पाकिस्तान में करीब 800 और इसी कालखंड के अवशेषों वाली जगहें मिली थी और भारत में ASI ने करीब 2000 इलाकों की निशानदेही की है | इनमे से 1000 सिर्फ हरयाणा में हैं | जिस इलाके में ये सबसे ज्यादा दिखते हैं उसे घग्गर-हकरा बेसिन कहा जाता है, ये वो इलाका है जिसे कई लोग वेदों में वर्णित सरस्वती नदी का इलाका मानते हैं |
अच्छा अच्छा आपने इस जगह के बारे में नहीं सुना ? इतिहास की किताबों में भी नहीं था क्या ? फिर तो आपको इतिहासकारों से पूछना चाहिए की ये सारा हिस्सा किताबों से कहाँ गया ?
अगर किसी साईट पर जाकर आप लोगों को वहां काम करते देखेंगे तो लगभग सोना छानने जैसा दृश्य दिखेगा | मिट्टी को खोदकर निकाला जाता है और उसके अलग अलग ढेर लगाये जाते हैं | कोयले जैसे टुकड़ों को अलग, हड्डी के नमूनों का अलग, चूड़ियों जैसे टुकड़ों का अलग और बर्तनों के टुकड़ों का अलग वर्गीकरण होता है फिर | भारत की अलग अलग फोरेंसिक लेबोरेटरी में यहाँ से कई संदूक भर भर कर भेजे जा चुके हैं | कैंप में एक छोटा सा म्यूजियम भी है | वहां अक्सर मालविका चैटरजी होती हैं | वो कहती हैं की ज्यादातर गाँव वाले उनके मिट्टी के बर्तनों के शौक पर अचरज जताते हैं | यहाँ से जो चीजें निकली है उनमे कई जानवरों की मूर्तियाँ हैं | हाथी है, चिड़िया है, बैल हैं और गले में पट्टा लगाये एक कुत्ता भी है | हड़प्पा वाले कुत्ते पालते थे ! आश्चर्य !
प्रोफेसर वसंत शिंदे हड़प्पा के जानकारों में जाने माने नाम हैं | पुणे यूनिवर्सिटी के डेक्कन कॉलेज के ये प्रोफेसर इस खुदाई अभियान के प्रमुख हैं | उनके हिसाब से 5500 से 5000 BCE की तारीखें मिल रही हैं और उस से पहले की भी | जहाँ तक वो मान के चले थे ये सभ्यता उस से कम से कम 1000 साल पुरानी है | अब ये तो इतिहास की हमारी अवधारणा के बारे में काफी कुछ बदल देगा | करीब दो तिहाई खुदाई की जगहें उस इलाके में मिली हैं जिसे सरस्वती नदी का बेसिन माना जाता है | प्रोफेसर शिंदे ये ढूँढने में जुटे हैं की कैसे प्रारंभिक, मध्य और उन्नत रूप में ये सभ्यता आगे बढ़ी, खेती करने वाले छोटे समुदायों से ये विकसित नगरों तक पहुंचे कैसे ? प्रोफेसर शिंदे का मानना है की ये लोग बड़े निर्माण में सक्षम थे और अपने संसाधनों का इस्तेमाल सबके लिए सामान्य सुविधाएँ बनाने में करते थे |
जैसे जैसे नयी खोजे होती जाती हैं वैसे वैसे पता चलता जाता है की ये एक काफी तेज़ी से बदली सभ्यता थी | शुरू में इतिहासकारों का ध्यान उनके शहरों / गाँव की स्थिति का पता लगाना था, फिर उनके शहरों की योजना और लोगों के दिनचर्या पर ध्यान गया | हड़प्पा के लोग शायद पुनर्जन्म में विश्वास करते थे | वहां एक जगह चार कंकाल भी मिले हैं, उनके साथ ही कुछ बर्तनों में खाने के अवसेश भी थे | इनमे दो पुरुष कंकाल हैं, एक महिला का है और एक बच्चे का | साउथ कोरिया की सीओल नेशनल यूनिवर्सिटी के साथ इनपर DNA की जांच का काम चल रहा है | इसके पूरा होते ही ये बताया जा सकेगा की हड़प्पा की सभ्यता के लोग कौन थे | अगर वो कहीं और से आये थे तो कहाँ के थे ? मध्य या पश्चिमी एशिया के थे क्या ? हड़प्पा के लोग दिखते कैसे थे ? हरयाणा और पंजाब के लोग क्या हड़प्पा के लोगों के वंशज हैं ? खाते क्या थे ? कौन सी बीमारियाँ होती थी उन्हें ?
DNA की जांच में संभावनाएं तो अपार है | रहा किताबों में हरियाणा के राखिगढ़ी का जिक्र, तो ये उन बहुत से मुद्दों में से है जिसपर प्रधानमंत्री कहते हैं की भारतीय लोगों को शर्म आती थी |
शर्म आती होगी तभी तो किताबों में नहीं लिखा न ? वरना ढूंढ तो इस जगह को 1963 में ही लिया था ?
हाल में ही एक अज्ञात से नक्सली किस्म का साहित्य लिखने वाली की जब आपसी लूट के बंटवारे में हत्या हो गई तो लोगों ने उसका फेसबुक वाल भी छानना शुरू किया था। वहां कई लोगों को हाल में ही बीते ओणम पर्व के उपलक्ष्य में लगाया एक कार्टून भी दिख गया। उसमें राजा बलि किसी ब्राह्मण को कचरे के डब्बे में डालते दिख रहे थे। ऐसे कार्टून के जरिये क्षेत्रवाद को उकसाना कोई बड़ी बात नहीं है। कम्युनिस्टों के 1931 के दौर के नाजी सहयोगी गोएबेल्स के काल से ही कामरेड ये तकनीक सीख चुके थे।
किस्मत से जिस राजा बलि को आम तौर पर दक्षिण भारतीय और द्रविड़ बताया जाता है, उनका किला बिहार में है। राजा बलि के बिहार से इस सम्बन्ध को अज्ञात कारणों से जमकर कागज़ काले करने वाले एक ख़ास आयातित विचारधारा के लोगों ने कभी तजरीह ही नहीं दी। किसी दौर में बिहार का मोस्को कहे जाने वाले बेगुसराय के कॉमरेड इसके बारे में लिखने से हिचके। जमीन विवाद में जब बिहार का मोस्को ख़त्म हो रहा था तब नौकरी की तलाश में अखबार, प्रकाशन, विश्वविद्यालयों में पैठ जमाते गिरोहों ने इसे भुलाए रखना ही ठीक समझा।
राजधानी पटना से करीब ढाई सौ और मधुबनी जिले के मुख्यालय से करीब तीस-पैंतीस किलोमीटर दूर बलिराजगढ़ का इलाका शुरू होता है। बाकी मिथिलांचल की तरह ही बाढ़ और उपेक्षा के शिकार इस इलाके में, प्रचलित मान्यताओं के मुताबिक राजा बलि का किला, यानि बलिराजगढ़ है। ये इलाका करीब पौने दो सौ (175) एकड़ में फैला हुआ है। थोड़े समय पहले ही (2015 में) यहाँ खुदाई रुकवाई गई है। पुरातत्व विभाग की खुदाई में यहाँ से जो किला मिला वो ईसा से दो शताब्दी पूर्व का माना जा रहा है।
सन 2014 में यहाँ की खुदाई में पुरातात्विक महत्व की करीब 400 वस्तुएं निकली थी। इसमें मिटटी और टेराकोटा के बने जानवरों और इंसानों के खिलौने-पुतले हैं, चूड़ियाँ हैं, कीमती पत्थरों की मालाएं भी हैं। ASI द्वारा संरक्षित ये किले के अवशेष फिलहाल प्रचार से दूर हैं। यहाँ से शुंग और पाल वंश तक की वस्तुएं, सिक्के इत्यादि मिले हैं। माना जा रहा है कि पाल वंश का शासन आने तक ये किला इस्तेमाल में था। इतिहास कहते ही जो मैथिल सीधा पौराणिक राजा जनक पर कूदते हैं, वो भी ये बीच का स्टेशन एक्सप्रेस गाड़ी की तरह छोड़ जाते हैं।
बिहार में मौजूद ऐतिहासिक महत्व की ऐसी जगहें पर्यटन स्थल क्यों नहीं हैं ? इन्हें उचित प्रचार क्यों नहीं मिलता ? दो हजार साल से ज्यादा पुराने बिहार के एक किले का सम्बन्ध तथाकथित रूप से दक्षिण के माने जाने वाले राजा बलि के नाम पर क्यों है ? सवाल कई हैं, समस्या ये भी है कि कोई प्राइम टाइम में पूछता भी तो नहीं ! अफ़सोस छेनू यहाँ नहीं आया था।