करीब चार-साढ़े चार साल पहले नौकरी के सिलसिले में मैं ओडिशा आया था। तब यहाँ की हर बात मुझे आकर्षक लगती थी। नया राज्य, अलग भाषा, अलग लोग, अजीब रस्में, और हर हिंदू त्योहार को धूमधाम से मनाने का जुनून—यह सब बहुत मोहक था। मेरी नौकरी से जुड़ी विशाल कोयला खदानें, वहाँ से एक के बाद एक निकलते हजारों ट्रक, ऊपर से देखने पर चींटी से भी छोटे लगने वाले खुदाई के विशालकाय यंत्र, घने जंगल, निर्मल नदियाँ, और सड़कों पर बेफिक्र घूमते हाथी—ये सब देख कर मन मग्न हो जाता था। यहाँ की कम जनसंख्या और ट्रैफिक जाम से मुक्ति देने वाली पहाड़ी सड़कों ने भी दिल जीत लिया। और इन सब पर भारी—हर गाँव-शहर में मौजूद प्राचीन मंदिर! ओडिशा में शायद ही कोई मंदिर बंद या वीरान हो। निर्जन जंगलों में कोई टूटा-फूटा प्राचीन मंदिर भी दिख जाए, तो वहाँ भी गर्भगृह में दिया जलता हुआ जरूर दिखता है। कौन जलाता है, कब जलाता है, कहाँ चला जाता है—कुछ समझ नहीं आता!
हर रविवार किसी न किसी जंगल की सैर, किसी किसान की बताई जानकारी के आधार पर किसी पुरातन मंदिर की खोज, जंगल में चुपचाप बैठकर हाथियों के झुंड को देखना, किसी पहाड़ी पर चढ़कर चटाई बिछाकर आसमान में बदलते बादलों को देखना और गुलज़ार के गीत सुनते हुए दिन बिताना—बस ऐसा ही ज़िंदादिल सिलसिला चल रहा था। रविवार का जितना बेसब्री से इंतजार मैं इन दिनों करता था, उतना शायद स्कूल के दिनों में भी नहीं किया होगा।
कुछ महीनों बाद इससे बोरियत होने लगी। ओडिशा आए 5-6 महीने हो चुके थे। एक बार रविवार के साथ एक छुट्टी और जुड़ गई। परिवार पुणे में था, मैं अकेला। दो दिन घर में क्या करता? तभी सोचा कि इस बार जगन्नाथ पुरी जाकर मंदिर के दर्शन कर आऊँ। वैसे भी पत्नी पिछले 2-3 महीने से बार-बार कह रही थी—”एक बार जगन्नाथ के दर्शन करके आओ, ज़रूर जाओ।” दो महीने पहले मैं कोणार्क गया था, लेकिन पास होने के बावजूद पुरी नहीं जा पाया था।
मैंने एक ओड़िया सहकर्मी से कहा, “चलो यार, कल पुरी चलते हैं, जगन्नाथ के दर्शन करने।”
जगन्नाथ ओडिशा के आराध्य देव हैं। घर में, बाहर, गाड़ी में, दीवार पर, ऑफिस में—हर जगह उनका चित्र या मूर्ति होती ही है। पुरी जाना मेरे लिए जितना रोमांचक था, मुझे लगा यह सुनकर मेरा ओड़िया सहकर्मी खुश हो जाएगा।
पर उसका चेहरा अचानक उदास हो गया और उसने कहा,
“जाने का कोई फायदा नहीं… महाप्रभु (जगन्नाथ) बीमार हैं!”
मैं चौंक गया! आदमी बीमार होता है, भगवान कैसे बीमार हो सकता है?
मुझे केवल इतना पता था कि हर साल जगन्नाथ की यात्रा होती है, जिसमें मूर्तियों को गर्भगृह से बाहर निकालकर रथयात्रा निकाली जाती है। पर यह नहीं पता था कि भगवान बीमार भी पड़ते हैं!
मैंने हँसते हुए पूछा, “भगवान बीमार? क्या हो गया उन्हें?”
दक्षिण भारत के मंदिरों में मैं अक्सर दोपहर में गया हूँ जहाँ पुजारी कहते हैं—”भगवान सो रहे हैं।” लेकिन भगवान विष्णु, जो सृष्टि के पालनकर्ता हैं, ओडिशा में बीमार पड़ते हैं—ये तो कल्पना से परे था!
सहकर्मी बोला, “महाप्रभु को बुखार है!”
वह बहुत गंभीर था, कोई मज़ाक नहीं। मैं भी अब गंभीर हो गया।
“तो फिर ठीक कब होंगे? दर्शन कब हो पाएगा?”
उसने कहा, “रथयात्रा से एक दिन पहले। जैसे ही ठीक होंगे, रथयात्रा निकलेगी और भगवान दर्शन देंगे।”
अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने पूछा, “इतनी पक्की बात कह रहे हो, कोई इलाज वगैरह चल रहा है क्या?”
उसने कहा, “हाँ हाँ! राजवैद्य हैं ना! हर दिन इलाज कर रहे हैं!”
मैं दंग रह गया—“देवता और इंसानी इलाज?”
धीरे-धीरे मुझे इस रिवाज की पूरी जानकारी मिली, और हर बात चौंकाने वाली थी।
चैत्र-वैशाख के चिलचिलाते गर्मी में पुरी भी झुलसता है। इस मौसम में लोग तो बाहर आ-जा सकते हैं, पर मंदिर के गर्भगृह में सालभर बंद रहने वाले भगवान को यह राहत कहाँ?
तो भगवान पुजारी के माध्यम से राजा को संदेश भेजते हैं—
“मुझे ठंडे पानी से स्नान करना है!”
पुरी में आज भी राजा हैं—गजपति महाराज दिव्यसिंह देब। मंदिर के सारे निर्णय वही लेते हैं। जब भगवान ने इच्छा जताई, तो राजा कैसे मना करते?
राजाज्ञा से मंदिर प्रांगण में स्नान के लिए एक विशेष वेदी बनाई जाती है। ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को (ओडिशा में इसे स्नान पूर्णिमा या ‘देब स्नान पूर्णिमा’ कहते हैं), भगवान अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ यहाँ ठंडे पानी से स्नान करते हैं—108 कलशों से!
पर इस स्नान से तीनों को बुखार हो जाता है! फिर उन्हें मंदिर के अंदर एक विशेष कक्ष—अनासार घर—में लाया जाता है। वहाँ 15 दिनों तक कोई नहीं मिल सकता—न भक्त, न पुजारी!
तब राजवैद्य आते हैं, इलाज शुरू होता है। और इस दौरान रोज़ मंदिर की सीढ़ियों से वैद्य भक्तों को भगवान की तबीयत का हाल बताते हैं—बिलकुल जैसे VIP मरीजों का मेडिकल बुलेटिन!
भगवान को पहले 4 दिन हल्का “अनासार पाना” नामक पंचामृत जैसा पेय दिया जाता है। फिर पाँचवें दिन उन्हें “फुलेरी तेल” से मालिश की जाती है—जो खास जड़ी-बूटियों से बना होता है और एक साल पहले जमीन में दबाकर तैयार किया गया होता है।
जब थोड़ी तबीयत सुधरती है, तो उन्हें “दशमूल मोदक” अर्पित किए जाते हैं—दस आयुर्वेदिक जड़ों से बने पौष्टिक लड्डू, जो राजवैद्य अपने हाथों से बनाते हैं। रोज़ 120 मोदक अर्पित होते हैं।
13वें दिन भगवान ठीक हो जाते हैं। राजा को सूचना दी जाती है, और फिर पुरी में उल्लास छा जाता है। अगले दिन रथयात्रा निकलती है।
मैंने खुद दो साल पहले यह सब देखा है। एक बार जब मैं मंदिर गया, तो कुछ आदिवासी महिलाएँ बाहर रो रही थीं—मैंने एक दोस्त से पूछा तो उसने बताया वे भगवान के लिए कह रही थीं,
“मेरा बाबू, तू कब ठीक होगा?”
भगवान उनके लिए कोई मूर्ति नहीं, उनका बेटा था।
जगन्नाथ यहाँ देव नहीं, परिवार का हिस्सा हैं। जब अच्छा हो, तो उनकी कृपा; जब कुछ बुरा हो, तो हमारी गलती की सज़ा। इतनी आत्मीयता, इतना विश्वास, और इतनी मासूम भक्ति—शब्दों से परे।
जोय जगन्नाथ!