“क्या हुआ बुजुर्ग माँ? आज क्या परेशानी है?” मैंने हँसते हुए उस अम्मा से पूछा।
“मुझे कुछ नहीं चाहिए… मेरे बेटे को दे दो, वही रोज़ की दवा…”
ये अम्मा बहुत थक चुकी हैं… इंसान को लगने वाली लगभग सारी बीमारियाँ इन्हें हैं… लेकिन अब तक कभी भी उन्होंने खुद के लिए दवा नहीं ली। जब भी पूछा, बस यही कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरे बेटे को दे दो…”
हाँ, जब उनकी नज़र कम हो गई थी, तब ज़रूर पीछे पड़कर, जिद करके, आँखों का ऑपरेशन करवाया था। दूसरों से पहले अपनी बारी लगवाई थी… जिद करके दवाइयाँ और ड्रॉप्स ली थीं।
मैंने पूछा था, “बाकी दवाइयाँ कभी नहीं मांगती, अब आँखों के ऑपरेशन के लिए इतनी पीछे क्यों पड़ी हो?”
वो इस पर हमेशा चुप रहतीं…
आज भीख माँगने वालों की भीड़ थोड़ी कम थी, तो मज़ाक करने का मन हुआ…
“बोलो बुज़ुर्ग माँ… क्या दवा दूँ?” मैंने चिढ़ाया…
हमेशा की तरह बोलीं, “मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरे बेटे को जो चाहिए वो दे दो…”
मैंने कहा, “तुम्हारे बेटे को मैं बिना जांचे, सिर्फ़ तुम्हारे कहने पर दवा दे देता हूँ… कभी कुछ हो गया तो? अगली बार उसे साथ लाना, तभी दवा दूँगा। नहीं तो नहीं।”
अम्मा चौंक गईं… बोलीं, “सच कह रहे हो या मज़ाक कर रहे हो मेरे साथ?”
उनकी आँखों में डर साफ़ दिखा…
मैंने गंभीरता से कहा, “सच कह रहा हूँ, अगली बार उसे साथ लाना। मैं बिना देखे अब दवा नहीं दूँगा।”
“ऐसा मत करो साहब…”
हमेशा “अरे-तुरे” में बात करने वाली आज “साहब” कहने लगीं…
मुझे थोड़ी हैरानी हुई।
मैंने पूछा, “तुम्हारा बेटा बड़ा है ना? पिछली बार बताया था 40 साल का है, उसके पास चलकर आने के लिए पैर नहीं हैं क्या? माँ को भीख माँगने भेज देता है और घर में खुद सोता है? शर्म नहीं आती उसे? कहो उससे काम करे…”
मैं थोड़ा गुस्से में बोल गया…
अम्मा… करीब 75 साल की होंगी… शरीर पर मांस नहीं, सिर्फ़ हड्डियाँ, झुर्रीदार त्वचा… कमर और घुटने काम नहीं करते… आँखें धंसी हुईं…
नज़र आ जाए इसलिए मैंने उन्हें चश्मा दिया था जो अब भी पहना था…
मेरे शब्दों ने शायद उन्हें आहत किया…
कहीं-कहीं पकड़ कर, कराहते हुए, वे मेरे पास आईं, बगल में बैठ गईं और धीरे से बोलीं…
“डॉक्टर साहब… उसका उम्र 40 साल है… ये सच है… लेकिन वो चल नहीं सकता… क्योंकि वो जन्म से ही अपाहिज है…
मैं भीख माँगती हूँ, उसे शर्म आती है या नहीं, मुझे नहीं पता… क्योंकि वो जन्म से ही मानसिक रूप से अस्थिर है…
और काम भी नहीं कर सकता… क्योंकि कोई पागल को काम नहीं देता…”
अब चौंकने की बारी मेरी थी…
मैं शर्मिंदा हो गया…
बिना जाने ही कुछ भी बोल दिया… लेकिन सामने वाला इंसान दुखी हो गया…
मैंने शर्म से कहा, “अरे अम्मा, मैं तो मज़ाक कर रहा था, मेरा ऐसा कुछ मतलब नहीं था…”
मैंने कुछ ढांपने की कोशिश की…
लेकिन अम्मा आहत हो चुकी थीं…
मुझे बहुत बुरा लगा…
मैंने फिर कहा, “माफ़ करना अम्मा… मैं बस यूं ही बोल गया…”
वो हल्के से मुस्काईं और बोलीं,
“क्या माफ़ करूं साहब…? आपकी क्या गलती…?
जैसे कोई फटा कपड़ा सिलने गया और धागा ही खत्म हो गया हो…
अब दोष किसे दें?”
मैंने कहा, “सही कहा… कैसे हुआ तुम्हारे बेटे को ऐसा, किसे पता…?”
वो फिर कराहते हुए अपनी जगह जाकर बैठ गईं… शांत…
मैं उनके पास गया और पूछा,
“वो बच्चा नौ महीने से पहले पैदा हुआ था क्या?”
“क्या पता मुझे?” उन्होंने लापरवाही से कहा…
मैं चौंका…
“क्या मतलब अम्मा? तुम्हें नहीं पता?”
उतनी ही शांति से बोलीं,
“वो मेरे पेट का नहीं है… सौतन का है…”
मैं कुछ समझ नहीं पाया…
लेकिन आदत के मुताबिक़ मैं खुदाई करता गया…
जैसे ज़ख्मों पर परतें हटाता गया…
पुराने घावों को कुरेदता गया…
…उनका विवाह हुआ… लेकिन कई सालों तक संतान नहीं हुई…
पति ने इंतजार कर-करके घर से निकाल दिया… दूसरा विवाह कर लिया…
आँखों के सामने सौतन घर आई… ये बाहर…
बाहर किसी का सहारा नहीं…
सौतन कहती थी — घर के सारे काम करो, तो दो वक्त की रोटी और रात को सोने की जगह मिलेगी…
ये सारे काम करती… जो कहा जाता वो करती…
असल में ये पत्नी थी… सौतन बिना शादी वाली…
पर कौन बोले? और बोलने से फायदा क्या…?
दो वक्त की रोटी और रात की छत में ही उन्होंने संतोष ढूंढा…
पति और सौतन बहुत सताते थे…
एक दिन झूले में बच्चा आया… सौतन को बेटा हुआ…
छः महीने बाद, पति का एक्सीडेंट में निधन हो गया…
और फिर छह महीने में सौतन भी बीमारी से चल बसी…
वो टेढ़े पाँव वाला बच्चा घर में अकेले रोता रहता… माँ के बिना…
दो दिन उन्होंने भी रोने दिया उसे…
सोचा — सौतन का बच्चा है, मुझे क्या…? मरे तो मर जाए…
वो ही तो पति छीनकर ले गई थी… मुझे घर से निकाला…
मैं क्यों किसी और की चिंता करूं?
दो दिन बाद, उन्होंने बच्चे को उठाया… कहीं फेंकने के लिए निकलीं…
जैसे ही उन्होंने उसे उठाया, बच्चा उन्हें अपनी माँ समझकर छाती से लग गया…
जैसे पहली बार उन्हें “माँ” होने का एहसास हुआ…
बच्चे को फेंकने निकली ये औरत, दूध लेकर लौट आई —
और खुद भी बिना जाने “माँ” बन गई…
आज कितने साल हो गए…
उसे पाल रही हैं…
उसके इलाज के लिए उन्होंने अपना घर बेच दिया…
इकलौता छत… गहने… सब बेच दिया…
बच्चा मगर अब भी वैसा ही है…
दुख की बात ये, कि बच्चे को कुछ समझ नहीं आता कि कौन उसके लिए क्या कर रहा है…
हर बार जब डॉक्टर के पास जाता है, उसी अम्मा को अजनबी नजरों से देखता है…
जैसे वो उसकी कुछ है ही नहीं…
और उसी अजनबी को माँ मानकर…
वो सौतेली औरत सगी बन जाती है…
सड़क पर भीख मांगती है…
कितने सालों से…
उसे चोट लगने पर देख सके इसलिए उन्होंने जिद करके आँखों का ऑपरेशन करवाया था…
कोई किसी के लिए कुछ करता है, क्योंकि लगता है — कल को उसकी कद्र होगी…
लेकिन यहाँ ये माँ बिना किसी बदले की उम्मीद के…
अपने बेटे को जिंदा रखती है…
और उस बेटे को मालूम ही नहीं कि उसके एक दिन की जिंदगी के लिए…
कोई हर दिन अपना आत्मसम्मान बेच रहा है…
मैंने अम्मा का हाथ पकड़ कर पूछा —
“अम्मा, ये बच्चा तुम्हारा नहीं है फिर भी इतना करती हो?”
वो आँखों में आँसू लेकर बोलीं —
“मेरा ही है वो…”
“तुम अब भी मुझसे दवा लेती हो ताकि उसे ठीक कर सको? कैसे कर लेती हो ये?”
वो बोलीं —
“चाँद पर जाने के लिए पैसे चाहिए डॉक्टर…
लेकिन चाँद को देखने के लिए पैसे नहीं लगते…
लोग चाँद पर चले गए, हमें ज़मीन से ही चाँद देखने दो…
रोज़ मुझे सपना आता है कि मेरा बेटा ठीक हो गया है…
कम से कम मुझे सपने तो देखने दो…”
मैं निशब्द था…
“लेकिन अम्मा, तुम ये सब कितने दिन करोगी?”
“फूल को क्या पता होता है कि वो देवता के मंदिर में चढ़ेगा या किसी मरे हुए पर चढ़ेगा…
फिर भी वो खिलता है ना…?
हम भी ऐसे ही हैं डॉक्टर…
जहाँ भी रहें, महक देते हैं…
इंसानियत नहीं छोड़नी चाहिए…”
एक डॉक्टर को, एक अनपढ़ बुजुर्ग महिला जीवन का सबसे बड़ा पाठ सिखा रही थी…
जो किसी डिग्री में नहीं मिलता…
“अम्मा, लेकिन इस सब में तुम्हें कितना कष्ट हुआ… और आगे भी होगा…”
“डॉक्टर, जब बांस को छेदते हैं तभी तो बांसुरी बनती है…
कोई उसे ‘पावा’ कहता है…
तो कोई ‘बांसुरी’…
जन्म से ही खोखला होकर सिर्फ़ बजते रहना या
छेदों के साथ सुर देना…
ये हर किसी को खुद तय करना होता है…
खोखला बांस बस ‘बजता’ है
पर बांसुरी ‘गाती’ है…”
मैं काँप गया…
“अम्मा, कहाँ से सीखा ये सब?”
“डॉक्टर, ये कोई सिखाता नहीं…
ये सब खुद ही समझ में आ जाता है…”
सचमुच, ये ज्ञान उन्हें उनकी असीम पीड़ा से मिला था…
काँच, सपने और रिश्ते जब टूटते हैं —
तो चुभते हैं…
और वहीं से जन्म होता है जीवन के असली दर्शन का…
“डॉक्टर…”
अम्मा की आवाज़ से मैं होश में आया…
“मुझे बस एक चिंता है…”
“अगर मैं इस बच्चे से पहले मर गई तो…?
8 दिन में वो भी तड़पकर मर जाएगा…
अब तक मैंने उसे संभाला है…
मेरे बाद कोई नहीं देखेगा उसे…”
“मेरी सिर्फ़ एक इच्छा है…”
वो शून्य में देखने लगीं, फिर कान के पास आकर बोलीं —
“कोई माँ नहीं कहेगी ऐसा…
पर…
पर क्या अम्मा?”
“पर…
मेरे पहले वही मर जाए…”
मैं सन्न रह गया…
अम्मा ने अपना चेहरा आँचल से ढक लिया…
उस आँचल के पीछे से आती सिसकियाँ मेरी आत्मा को चीर गईं…
काफी देर बाद उन्हें शांत करके मैं चल पड़ा…
जाते-जाते पीछे मुड़कर देखा…
कमी से भरे सौ टुकड़ों वाले, रफू किए हुए कपड़े में लिपटा एक शरीर…
जो अपने सौतेले बेटे के लिए घिसता जा रहा था…
जिसने अपने शरीर पर छेद करवा कर, इंसानियत की मधुर धुन बजाई थी…
मैंने उस “बांसुरी” को दिल से प्रणाम किया…।