सुबह मॉर्निंग वॉक पर गया था। तालाब के चार चक्कर लगाने के बाद थोड़ा बैठ गया। तभी बगल से आवाज़ आई —
“क्या रे मन्या, आज बत्तीसी (दांतों की कटोरी) भूल गया क्या रे!”
ये आवाज़ इतनी तेज़ और गूंजदार थी कि मैंने तुरंत गर्दन घुमा दी। तालाब के किनारे 70–80 साल के 8–10 बुज़ुर्ग बैठे थे, और बर्मूडा और टी-शर्ट पहनकर आए मन्या को देखकर ठहाके लगाकर हँस रहे थे।
मन्या बोला,
“हँसो रे, जिसकी जलती है वही समझता है! यूएस गया था, वापसी में बत्तीसी वहीं भूल गया। बेटे ने कोरियर की है, लेकिन अभी तक आई नहीं है। तीन दिन से तो पेज ही खा रहा हूँ। तुम्हें क्या फर्क पड़ता है, नकली दांत तो वैसे भी निकालने पड़ते हैं!”
तभी एक धोती-कुर्ता पहने दादाजी खड़े हुए और झूठे गुस्से में बोले,
“नकली दांत बोलता है रे? ये देख!”
कहते हुए उन्होंने मुँह खोल दिया — दो दांत टेडी बियर जैसे चमक रहे थे, बाकी पूरा मुँह सुनसान मरुस्थल!
“दांत दो ही सही, पर अब भी कड़क बेसन के लड्डू खा लेता हूँ!”
“खाता है या चबाता है रे?”
सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।
“नान्या, चबाता है तू! कल घर जाते वक्त मुँह में चार मूँगफली डाली थी, मंदिर में शाम को आया तब भी चबा रहा था!”
“हट! वो तो मंदिर की मिश्री वाली मूँगफली थी!”
ऐसे मस्त-मस्त संवाद चलते रहते थे।
फिर तो मुझे उनकी बातें रोज़ सुनने की आदत ही लग गई।
करीब पाँच-छह महीने हो गए होंगे उनकी बातें सुनते-सुनते। लेकिन कभी किसी की कोई शिकायत या ग़मगीन बात नहीं सुनी।
बस एक बार, जब नोटबंदी हुई थी, तब नाना गुस्से में झगड़ पड़े थे —
“उस मोदी ने मेरी छुपाकर रखी पितल की हांडी खोल दी! बीवी से छुपाकर रखे दो हज़ार निकलवाने पड़े!”
“अबे, छुपाते ही क्यों हो? मैं तो रोज़ घर से निकलते वक़्त बीवी के सामने भिक्षा मांगता हूँ, वो 20–25 रुपये देती है, उसी से बीड़ी-सिगरेट का इंतजाम हो जाता है!”
फिर एक दिन अचानक पूरा ग्रुप गायब!
अगले दो-तीन दिन मैं भी व्यस्त रहा, चौथे दिन जब पहुँचा तो सब हाज़िर थे।
मैंने तात्या से पूछा, “क्या हुआ था, परसों कोई आया ही नहीं?”
तो नाना ने एकदम अंतु बर्वा स्टाइल में जवाब दिया —
“अरे मन्या की ट्रांसफर हो गई ना, उसे छोड़ने गए थे!”
“कहाँ??”
“अरे कहाँ क्या पूछता है, स्वर्ग में!”
“उसकी अंतिम यात्रा पर गए थे हम सब!”
“कुछ भी कहो, मन्या किस्मत वाला था! बेटा अमेरिका से आता है, होटल में पार्टी करते हैं, फिर घर आकर सो जाते हैं… और जब बेटा जगाने गया, तब तक मन्या तो निकल ही गया था — स्वर्ग के दरवाज़े पर रंभा के पीछे!”
बाकी सब धीमे-धीमे मुस्कुराए।
मैंने कहा, “तात्या, आप इतने हल्के में ले रहे हैं?”
“अरे तू तो अभी नया आया है। पहले हम 26 लोग थे, अब बस 12 बचे हैं! वो भी 80-90 के बीच के! विकेट तो गिरने ही हैं रे। तो रोने से क्या होगा? दो दिन दुख होता है, फिर लोग दो मिनट ‘हाय-हाय’ कह के चले जाते हैं। हमें तो अपना रूटीन चालू रखना चाहिए।”
फिर अचानक कुछ याद आया और बोले,
“अरे तू कैटरिंग करता है ना? अपना नंबर दे, मन्या के बेटे को देंगे, तेरहवीं का ऑर्डर देगा तुझसे!”
मैंने माथा पकड़ लिया। ये देखकर एक और दादाजी बोले,
“अरे अपने सारे बेटों को इसका नंबर दे देते हैं, सालभर में दो-चार और विकेट तो गिरेंगे ही!” — फिर ज़ोर से हँसी गूंज उठी!
दो दिन बाद मैं थोड़ा जल्दी में था। तभी तात्या ने आवाज़ लगाई,
“ओ केटरर, इधर आओ, आज शाम की पार्टी का ऑर्डर लोगे क्या?”
“पार्टी?”
“अरे, नान्या की सेंचुरी को बस 11 साल बचे हैं!”
मैंने सवाल भरी नज़रों से देखा।
तात्या बोले,
“इतना बावला क्यों दिख रहा है रे! आज नान्या का 89वां जन्मदिन है। बहुत कुछ नहीं, बस बढ़िया गरमागरम उपमा और चाय — 12 प्लेट्स।”
“बस इतना ही? हो जाएगा!”
“और हाँ, कड़क बूंदी के पाँच लड्डू! आज देखता हूँ, कैसे खाता है!
और सुन, उपमा ज़्यादा तीखा मत बनाना, मसूड़े जलते हैं। और उसमें उड़द की दाल बिल्कुल मत डालना, कवळी नीचे अटक जाती है, निकालते समय जान चली जाती है!”
शाम को ऑर्डर देने गया और दंग रह गया!
सारे बुज़ुर्ग मस्ती में बैठे थे। मन्या की फोटो के सामने थोड़े से चाफा के फूल रखे थे और ज़ोर-ज़ोर से गाना चल रहा था —
“ज़िंदगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना!”
मुझे देखते ही सब चुप हो गए।
तात्या आगे आए, उपमा की एक-एक प्लेट सबको दी, चाय भी बाँटी गई। फिर सब खड़े हुए और बोले:
“लॉन्ग लिव नान्या! थ्री चीयर्स फॉर नान्या! हिप हिप हुर्रे! हिप हिप हुर्रे! हिप हिप हुर्रे!”
और चाय के कप टकराए, फिर अगला गाना चालू!
मैं थोड़ी उलझन में घर लौटा और सोचने लगा —
आज हम अपने ग्रुप में मिलते हैं, लेकिन जब हमारी ज़िंदगी की साँझ ढलेगी, तब भी क्या हम ऐसे ही हँसमुख और जिंदादिल होंगे?
क्या इन बुज़ुर्गों जैसी तरुणाई (युवापन) हमारे अंदर भी रहेगी?
रहनी चाहिए!
और तभी उनके ग्रुप की पार्टी में बजा हुआ आख़िरी गाना मेरे होठों पर आ गया —
**”कल खेल में हम हों न हों,
गर्दिश में तारे रहेंगे सदा,
भूलोगे तुम, भूलेंगे वो,
पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा…
रहेंगे यहीं, अपने निशाँ,
इसके सिवा जाना कहाँ…
जी चाहे जब हमको आवाज़ दो,
हम हैं वहीं, हम थे जहाँ…
अपने यही दोनों जहाँ,
इसके सिवा जाना कहाँ…
जीना यहाँ, मरना यहाँ,
इसके सिवा जाना कहाँ!”**