उंबरखिंड मानो 15 किमी लंबी बंदूक की नली जैसी थी।
मुग़ल सेना ने उंबरखिंड को पूरी तरह पार भी नहीं किया था कि वे उस संकरी जंगली घाटी में या तो बुरी तरह कुचले जा रहे थे या सीधे स्वर्ग सिधार रहे थे। इस भयंकर चीते जैसे हमले की खबर घबराते हुए, दौड़ते हुए मुग़ल सरदारों ने पीछे मौजूद अपने सेनापति कारतलबखान को दी।
समाचार देने वाले बेहद व्याकुल थे।
यह भीषण हमला खान के लिए अप्रत्याशित था। ये तमाम बादशाही सरदार अपने विशाल सैन्यबल और युद्धसामग्री पर घमंड करते थे।
उन्हें लगता था, “मराठे तो मुट्ठीभर हैं, मार गिराएँगे!”
लेकिन उन मुट्ठीभर मराठों की शक्ति बारूद से भरे गोदाम जैसी थी।
कारतलबखान स्तब्ध रह गया, क्योंकि एक के बाद एक बर्बादी की खबरें आने लगीं।
इस समय रायबाघन (एक बहादुर महिला योद्धा) अपने घोड़े पर चुपचाप बैठी थी।
खान ने अपना घोड़ा उसकी ओर मोड़ा और बेबसी से बोला,
“रायबाघनसाहिबा, अब मैं क्या करूं? क्या हालत हो गई हमारी?”
इस पर रायबाघन नाराज़ होकर बोली,
“पुणे से निकलते समय क्या आपने मुझसे सलाह ली थी?
क्या आपको पता था कि आप शिवाजी के किस हिस्से में और कैसे जा रहे हैं?”
खान को अपनी गलती का पूरा एहसास हो गया था।
पर अब इस महिला की सीख का युद्ध के बीच क्या उपयोग?
वह बार-बार बस यही कह रहा था,
“अब मैं क्या करूं?”
इस पर रायबाघन ने बिल्कुल साफ़ शब्दों में उसे डांटते हुए कहा:
“ऐसा दुस्साहस आत्मघाती मूर्खता है।
मैं अभी भी आपको कहती हूं कि आप चुपचाप शिवाजीराजे के पास दूत भेजिए।
समर्पण करिए। क्षमा मांगिए।
वह राजा बहुत उदार हृदय का है।
वह अभी भी आपको क्षमा कर सकता है।
नहीं तो सर्वनाश!”
और सचमुच, खान ने अपना दूत भेजा।
लेकिन उस भारी अफरातफरी में शिवाजी महाराज तक पहुँचना आसान नहीं था।
आख़िरकार, बड़ी मशक्कत से वह दूत महाराज के पास पहुँचा —
यह मुगलों का सौभाग्य था।
उसने महाराज से व्याकुल होकर विनती की:
“हमें इस इलाके की जानकारी नहीं थी।
हमसे गलती हो गई।
हमें क्षमा कर दीजिए।
आपके पूज्य पिता और कारतलब साहब के अच्छे संबंध थे।
कृपा कीजिए। आप दयालु हैं।”
महाराज ने बड़ा दिल दिखाया और कहा:
“एक शर्त पर —
तुम्हारे खान साहब जो भी कुछ साथ लाए हैं वह सब यहीं छोड़ दो।
और खाली हाथ, निहत्थे लौट जाओ।
मंज़ूर है?”
“जी, मंज़ूर है।”
खजाना, तंबू, घोड़े, झंडे, और पूरा युद्धसामान वहीं छोड़कर
खान लौटने को तैयार हुआ।
उसे मानना पड़ा, क्योंकि मावलों ने उसकी पूरी फजीहत कर दी थी।
खान वापस लौटा — सिर झुकाकर।
उसका महत्व और पद एक तरह से समाप्त हो चुका था।
वह इतिहास से बाहर हो गया।
इस उंबरखिंड के युद्ध में नेताजी पालकर, तानाजी मालुसरे, पिलाजी सरनाईक जैसे प्रचंड योद्धा शिवाजी महाराज के साथ थे।
सभी ने मुगलों पर हथियार चला कर अपनी शक्ति का परिचय दिया।
शाइस्ताखान की हार की सूची में एक और भीषण पराजय जुड़ गई।
एक बात पर ध्यान दीजिए —
कारतलबखान लोनावला की ओर से पश्चिम की दिशा में उंबरखिंड में आया था,
लेकिन महाराज पहले ही (संभावित रूप से 1 फरवरी 1661) पुणे की ओर से ताम्हिणी या सवाष्णी घाट से कोंकण उतर चुके थे
और उंबरखिंड के मुहाने पर ही खान का रास्ता रोक लिया था।
उसका पूरा सामान कब्जे में ले लिया।
सिर्फ शरीर पर जो कपड़े थे वही बाकी बचे —
यह खान और उसकी सेना का सौभाग्य था।
महाराज 3 फरवरी 1661 को पाली, जांभूळपाड़ा, नागोठणे के रास्ते महाड की ओर निकले।
लेकिन उनकी सतर्कता देखिए —
उन्होंने नेताजी पालकर को लगभग 1-2 हजार फौज के साथ उंबरखिंड में ही छोड़ दिया।
अगर चेतावनी न ले, तो अपमानित हुआ कारतलब दोबारा युद्धसामग्री जुटाकर कोंकण में उतरने की कोशिश करे —
तो उसकी दूसरी हार की तैयारी महाराज ने नेताजी को सौंप दी थी।
अब महाराज चिपळूण के पास श्री परशुराम के दर्शन के लिए निकले।
महाराज धार्मिक थे,
लेकिन उन्होंने कभी अपने काम के रास्ते में धर्म, पूजा-पाठ, व्रत आदि को नहीं आने दिया।
सब कुछ निपटाकर अब वे श्रीदर्शन के लिए निकले थे।