शिवाजी महाराज द्वारा अफज़लखान ही नहीं, बल्कि कई आदिलशाही सरदारों को पराजित किए जाने की खबरें दिल्ली में औरंगजेब तक पहुँच गई थीं। वास्तव में, औरंगजेब को अफज़लखान की मुहिम के दौरान ही शिवाजी के विरुद्ध सेना भेजनी चाहिए थी। यदि ऐसा होता, तो शिवाजी को दोहरी मार झेलनी पड़ती। आदिलशाह ने औरंगजेब से सहायता की अपील की थी कि शिवाजी केवल हमारे लिए नहीं, बल्कि आपके धर्म के लिए भी एक समस्या हैं। पर औरंगजेब किसी की हार की प्रतीक्षा करता रहा और फिर अफज़लखान की हार के बाद उसने शाहिस्तेखान के साथ 78,000 घुड़सवारों की सेना भेजी। साथ में पैदल सेना और तोपखाना भी था।
साथ ही, आदिलशाह ने सिद्दी जौहर और सलाबतखान को भी पन्हाला की ओर रवाना किया। उनकी सेना भी लगभग 50,000 की रही होगी। यानी स्वराज्य पर एक ही समय में लगभग डेढ़ से पौने दो लाख सैनिकों और भारी तोपखाने के साथ हमला हुआ। जबकि शिवाजी के पास केवल लगभग 20,000 सैनिक ही थे। लेकिन उनकी हिम्मत इन दोनों से कहीं ज्यादा थी। शिवाजी कभी एक साथ दो मोर्चों पर हमला नहीं करते थे, पर यदि दो दुश्मन एक साथ आएँ तो वे बुद्धि और हथियार दोनों से उनका सामना करते थे।
इतनी बड़ी सेना के बावजूद, दोनों सेनाओं की हार हुई और स्वराज्य की विजय हुई। इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल संख्या बल से कुछ नहीं होता, ज़रूरी है – निष्ठावान, समर्पित और चतुर योद्धा।
शाहिस्तेखान अपनी 1.25 लाख की सेना लेकर पुणे की ओर चला। सासवड़ से पुणे की 30 किमी दूरी उसने 8 दिनों में पूरी की, मतलब उसकी चाल एक घोंघे जैसी थी। इस धीमी चाल से वह आसानी से पुणे में दाखिल हो गया और महाराज उस समय पन्हाला में सिद्दी जौहर की घेराबंदी में फंसे हुए थे।
लेकिन तभी राजगढ़ की जिजाऊ माँ के निर्देश पर 500 मराठा मावलों ने शाहिस्तेखान की सेना पर उसके पीछे से हमला कर दिया। ये हमला इतना तेज था कि खुद खान को इसकी खबर देर से लगी।
शाहिस्तेखान ने पुणे में लाल महल में डेरा डाला। उसकी सेना मुठा नदी के दक्षिण में डटी थी। 500 हाथी और भारी तोपखाना भी उसके साथ था। वह अपने जनानखाने को भी युद्ध में साथ लाया था। अब सोचिए – मराठों की फुर्ती और छापामार रणनीति के आगे यह भारी-भरकम सेना क्या कर पाती? इन मुगलों और आदिलशाही सरदारों को ‘गनिमी कावा’ की समझ ही नहीं थी। पहाड़ी युद्धभूमि में उनके हाथी और तोपें बेकार थे। ऊपर से महिलाओं से भरा जनानखाना उनके गले में लटक रहा था।
शिवाजी महाराज ने कभी युद्ध में हाथी, भारी तोपखाना या स्त्रियों को साथ नहीं रखा। यह नीति 40 वर्षों तक रही। पर आश्चर्य है कि जब अंत में औरंगजेब स्वयं महाराष्ट्र आया, तो उसके साथ भारी जनानखाना, हाथी और तोपें थीं। ऐसा लगता है कि औरंगजेब की हार उसके हथियारों और जनानखाने ने ही सुनिश्चित कर दी थी।