उसके जीवन का एक और आम सा “वर्क फ्रॉम होम” वाला दिन शुरू हुआ।
घंटा भर ही काम हुआ था कि अचानक लैपटॉप ने काम करना बंद कर दिया।
“छी… ठीक इसी समय बंद होना था जब सबसे ज़्यादा काम है?” – उसका स्वाभाविक झुंझलाहट भरा रिएक्शन।
पहली बार लैपटॉप खराब हुआ था, तो मोबाइल से नजदीकी सर्विस सेंटर का पता खोजा। बाइक निकाली और सीधे सर्विस सेंटर की ओर निकल पड़ा। दोपहर के 12 बजे का तेज़ धूप और गर्मी उसके गुस्से में और इज़ाफा कर रही थी।
सर्विस सेंटर एक बेहद भीड़-भाड़ वाली सड़क पर था। दोनों तरफ दुकानें और उनके बीच एक तंग सा प्रवेशद्वार। बाहर बाइक खड़ी करने की कोई जगह नहीं थी, तो उसने बाइक अंदर ही घुसा दी। उस संकरे रास्ते से अंदर गया तो सामने वॉचमैन की केबिन थी।
एक छोटे कद के, दुबले-पतले, सफ़ेद बालों वाले, चश्मा पहने हुए, करीब 55–60 साल के वॉचमैन अंकल, मोबाइल पर देखकर बीच-बीच में मुस्कुरा रहे थे। बिल्कुल आराम से वीडियो कॉल पर बात कर रहे थे।
थोड़ा आगे जाकर एक कोने में जहाँ किसी को परेशानी न हो, उसने बाइक खड़ी कर दी। दूर से इशारे से वॉचमैन से पूछा, “यहाँ बाइक लगा दी, चलेगा ना? आधे घंटे में लौट आऊँगा।”
वॉचमैन ने उसकी ओर देखा भी नहीं जैसे, और कोई जवाब भी नहीं दिया।
“क्या लोग होते हैं! इतने तमीज़ से पूछ रहा हूँ फिर भी बोलने की ज़रूरत नहीं समझते!”
गुस्से में बड़बड़ाता हुआ वहीं बाइक खड़ी कर दी।
ऊपर बहुत सारे ऑफिस के बोर्ड लगे थे। वो वॉचमैन के पास गया – थोड़ा चिढ़चिढ़ाते हुए – और मोबाइल पर सर्विस सेंटर का नाम दिखाकर पूछा, “अरे काका, ये सर्विस सेंटर कहाँ है?”
लेकिन काका अभी भी अपनी बातों में मग्न। फोन से आती आवाज़ों के शोर ने उसे और चिढ़ा दिया। आखिर काका ने मुश्किल से इशारे से रास्ता बताया।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह बड़बड़ाता रहा –
“सुबह से काम रुका हुआ है और इन्हें क्या फर्क पड़ता है! फालतू की तनख्वाह लेते हैं और पूरा दिन फोन पर गप्पें मारते रहते हैं। दूसरों के समय की कोई कद्र ही नहीं!”
काफी मशक्कत के बाद सर्विस सेंटर पहुँचा। एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद लैपटॉप ठीक हुआ और उसकी जान में जान आई।
कुछ शांत मन से नीचे आया, लेकिन वॉचमैन को देखकर फिर से गुस्सा उबाल मारने लगा।
अंकल अपने खाने की तैयारी कर रहे थे – सब्ज़ी-रोटी का डिब्बा खोल रहे थे।
असल में उसे उनकी पिछली बेरुखी के लिए कुछ सुनाने का मन था, लेकिन उसने खुद को रोका –
“छोड़ो यार! अब फिर क्यों बात बढ़ानी? शब्दों की झड़प में अपने ही मन का खराब होगा!”
ऐसा सोचकर वह बाइक निकाली और निकल पड़ा।
थोड़ा ही आगे गया था कि पीछे से आवाज़ आई –
“साहब… साहब… एक मिनट!”
उसने हेलमेट की शील्ड ऊपर की और पीछे मुड़ा। वही वॉचमैन अंकल बड़े अदब से आवाज़ लगा रहे थे।
“बोलिए… अब क्या हुआ?” – उसने चिढ़कर पूछा।
“माफ़ करिए साहब… आप थोड़ी देर पहले रास्ता पूछने आए थे, लेकिन मैं ठीक से बोल नहीं पाया… सच में सॉरी!”
उसने देखा कि उसकी शिकायत को उन्होंने महसूस किया, तो उसका मन भी थोड़ा पिघला।
“ठीक है काका… लेकिन फोन में थोड़ा ध्यान इधर भी दिया कीजिए!”
“आप बिल्कुल सही कह रहे हैं साहब। मैं ऐसा कभी नहीं करता। पर सच कहूँ तो… घर से फोन आया था। हमारे गांव से। आज मेरी बेटी को देखने लड़के वाले आए थे। एक ही बेटी है मेरी। पूरा परिवार जमा हुआ था – पर मैं नहीं था। इसलिए वीडियो कॉल किया था।
आप जब आए, तभी मुख्य परिचय का वक्त था। होने वाले दामाद और उनके घरवालों से मिलवाया जा रहा था। ऐसे पल बार-बार नहीं आते साहब!”
काका पूरे दिल से बता रहे थे।
उसे अब एक वॉचमैन नहीं, बल्कि एक प्यारी बेटी का स्नेही पिता नज़र आ रहा था। उसने हेलमेट उतार दिया और बातों में रम गया।
“अरे काका, फिर तो आपको गांव जाना चाहिए था! आपकी और आपकी बेटी की ज़िंदगी का अहम मोड़ था वो!”
“हां साहब… लेकिन गांव 600 किलोमीटर दूर है। एक दिन में जाना-आना मुमकिन नहीं। और पिछले महीने बीमार पड़ गया था, 8-10 दिन छुट्टी लेनी पड़ी थी। अब बार-बार छुट्टी भी नहीं ले सकते ना! सब कुछ देखना पड़ता है।”
काका की बातें – सच्चाई, थोड़ी बेबसी, थोड़ी खुशी, और थोड़ी कसक – सब मिलकर दिल को छू रही थीं।
अब उसके मन में पहले वाला गुस्सा बिल्कुल गायब हो चुका था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी रिश्तेदार से बात कर रहा हो।
बातों-बातों में काका अचानक खुश होकर बोले –
“और हाँ… आधे घंटे बाद फिर फोन आया। हमारे चाचा वहाँ थे। रिश्ता तय हो गया साहब! बड़ी अच्छी खबर मिली आज। अब चिंता दूर हुई।”
ये कहते हुए काका के चेहरे पर जो खुशी थी, वह छुपाए नहीं छुप रही थी।
“अब तो घर में जिलबी का खाना बना होगा। सब बैठकर खा रहे होंगे। मुझे और मेरी ठकु ताई को बहुत पसंद है जिलबी, इसलिए खास मेहमानों से कहकर गांव के मशहूर हलवाई से मंगवाई है जिलबी।”
“चलिए साहब… आपको देर हो रही होगी। मेरी बकबक में आपका काम अटक गया। फिर एक बार माफ़ कर दीजिए।” – काका ने हाथ जोड़कर कहा।
“अरे छोड़िए काका… सब भूल जाइए। आप सबको बहुत बधाई और शादी के लिए ढेरों शुभकामनाएं!”
वह बाहर निकला… लेकिन न जाने क्यों अचानक ब्रेक लगाया।
बाइक साइड में लगाई, सामने मिठाई की दुकान से पाव किलो जिलबी खरीदी और वापस अंदर गया।
काका ने अभी खाना शुरू ही किया था।
“काका, ये लीजिए… आज आप भी घरवालों के साथ जिलबी का खाना मनाइए।”
“अरे अरे… ये क्या साहब… मत दीजिए…” – काका झेंप गए।
“अरे लीजिए ना। बिल्कुल दिल से दे रहा हूँ। आप दूर हैं तो क्या हुआ, आप भी तो इस खुशी का हिस्सा हैं! और हाँ… शादी के समय अच्छी खासी छुट्टी लीजिए और आराम से बेटी से मिलिए!”
भावुक काका कुछ बोल नहीं पाए। उनकी आँखें भीग गई थीं।
वह भी बहुत शांत मन से वहां से निकला… लेकिन रास्ते भर सोचता रहा –
“इस दुनिया में हर किसी की ज़िंदगी में उसकी अपनी परेशानियाँ होती हैं।
हम बस अपनी ही चिंताओं में उलझे रहते हैं।
मेरे बंद हुए लैपटॉप के पीछे भी किसी की मजबूरी हो सकती है, ये ख्याल भी नहीं आया था शुरू में।
लेकिन क्या अजीब बात है ना?
जिनसे कुछ देर पहले चिढ़ रहा था, अब उन्हें खुद खुशी से जिलबी बाँट रहा हूँ!
शायद, इसी को ज़िंदगी की मिठास कहते हैं।”
सच में… हमारी ज़िंदगी भी कभी-कभी जटिल, उलझी हुई और गोल-गोल घूमती हुई लगती है,
लेकिन उतनी ही मीठी होती है… बिल्कुल उस “जिलबी” की तरह।